आचार्य रजनीश . ओतीलाल वनारसीदास दिल्ली :: वाराणसी :; पढना मोतीलाल बनारसीदास गो रोड, जवाहर बाहर नगर, दिल्‍ली-७ चौक, वाराणसी (उ० प्र०) अद्योक राजपब, पदना (विहार) प्रधान कार्यलिय : वंयल घाखाएं : १ ह््प हा संझोधित एवं परिवर्द्धित संस्करण, १९७१ * सचदरलाल जैन, मोत्तीसाल बनारसी दास | सुच्दरलाल ऊन, मातावचाल बनाससादास, बंगला राठ, जवाहर नगर. इदिल्ली-७ द्वादा प्रकाशित तथर वित्त पल डिय पटना कार अधि ४ विष्णु पंत्राइय, पटना-४ द्वारा मुद्रित । जल आचार्य श्री रजनीश तर्त्बाचितक हैं । आध्यात्मिक अनुभूति संपन्‍न हैं । वर्तमान युगद्रप्टा हैं । नए ढंग की विचार-दृष्टि प्रस्तुत करते है । धर्म का नया मूल्यांकन बताते हें । आप उनके विचारों को अवदय सुरतें शिक्षण के संबंध में उनके क्रांतिकारक विचार मननीय हूँ । आजार्य रजनोश : एक परिचय आचार्य रकनील अर्तेमान ग्रग के युवा-द्रष्श, करतिकारी विश्ार्, आपुनिक संत, रहत्यदर्णी ऋषि क्षीर जीवन-सर्जक हैं । ब्रैस तो धर्म, अब्यात्म और साधना में ही इनकी जीवन-वाह है; लिकिन अत्ा, साहित्य, दर्शन, राजनीति, समाजभारत्र आध््निक विजान आदि में भी जो भी थे बोलते हैं, करते हैं, वह सब जीवन की आत्यंतिक गहराहया कर गता है। थे हमेशा जीवन-समस्याओं की गहनतम जड़ों को स्पर्य करते हैं। जीवन को उसकी समग्रता में जीनत जीने और प्रध्ोग करने के ये जोवन्त प्रतीक हैं । ४ जीवन की चरम अंबाहयों में जो फूछ खिलने सभच हू उन सबका दर्शन इसके व्यक्षितत्व भें संभव है । ११ दिसम्बर, १९६१ की सब्यप्रदेश के एक छोटे-से गाँव में इनका जम हुआ | दिन-द्रगती और रात-बौगती इतकीं प्रतिभा विकसित होती रही । सन ११५४ में इन्होंने सागर-विश्वविद्यालय स्त ठईनि: शास्त्र में एम० ए० का उपाधि प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान के साथ अ्रप्त की। थे अपने पूरे विद्यार्थी- जीवन में बड़ें ऋंतिकारी और बह्वितीय जिन्नास तया प्रतिभाग्याली छात्र रहें । बाद में रायपुर और जबलपुर के दो महाविद्यालयों में मश्ः एक और का ६६ के लिए आचार्य (प्रोफेसर) के पद पर मिक्षण-कार्य करते सह। बीच इनका पूरे देश में घूम-घुमकर, प्रवचन देने और साधना-शिविर आयोजित करने का कार्य भी चलता रहा बाद में अपना पूरा समय प्रायोगिक साधना के द्विस्तार और धर्म के एुनद- त्वान में लगाने के उद्देघ्य से थे सन्‌ १९६६ में तौकरी छ&र्द है: आचायपद मुक्त हार । इनके, प्रवचनों थौर साधना-दिविरो से मे रणा पाकर बनेक प्रमुख शहरों में उत्साही प्रेमियों ते जीवन-जागृति-वेंख के चीड से एक मित्रो $ साधकों का मिलन-सथल (संस्थान) रवापित बिया है। वे आवायल्री के अदेदत (ख) जौर शिविर आयोजित करते हैं तथा पुस्तकों के प्रकाशन की व्यवस्था करते हैं जीवन-जायृति आन्दोलन का प्रमुख कार्यालय वम्बई में लगभग आठ वर्षो से कार्य कर रहा है । अब तो आचार्यश्री भी अपने जबलपुर के निवास-स्थान के छोड़ कर १ जुलाई, १९७० से स्थायी रूप से बम्बई में आ गए हैं, ताकि जीवन- जागृति आन्दोलन के अन्तर्राप्ट्रीय रूप को सहयोग मिल सके ॥१ पु जीव: ट्रक जीवन-जागृति आन्दोलन की ओर से एक मासिक “पत्रिका “युक्रान्दोँ (युवक क्रांति दल का मुख-पत्र) पिछले दो वर्षो से तथा एक त्रैमासिक पत्रिका “ज्योतिबिखा” पिछले पाँच वर्षो से प्रकाशित हो रही है। आचायंश्री के प्रवचनों के संकलन ही पुत््तकाकार में प्रकाशित कर दिए जाते हैं। अब तक लगभग २६ बड़ी पुस्तकें तथा २१ छोटी पुस्तिकाएँ मूल हिन्दी में प्रकाशित हुई हैं। अधिकतर पुस्तकों के गुजराती, अँग्रेजी ओर मराठी अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं। १३ नई अप्रकाशित पुस्तकें प्रेस के लिए तैयार पड़ी हैं। अब तक बाचार्यश्री प्रवचनमालाओं में तथा साधना-शिविरों में लगभग २००० घंटे . जीवन, जगत और साधना के सूक्ष्ततम तथा गहनतम विपयों पर सविस्तार चर्चाएं कर चुके है । अब भारत के बाहर भी अनेक देशों में इनकी पुस्तकें लोगों की प्रेरणा और आकर्षण का केनद्र बनती जा रही हैं। हजारों की संझया में देशी तथा विदेशी साधक इनसे विविव गढ़तम सावना-पद्ध तियों एवं प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में प्ररणा पा रहे है । योग और जव्यात्म के संदेश एवं प्रश्ोगपात्मक जीवन-कान्ति के प्रसार-हेतु विभिन्‍न देशों से इनके लिए आमंत्रण आने शृरू हो गए है शीत्र ही भारत ही नहीं बरन्‌ अनेक वादचात्य देशवासी भी इनके व्यक्तित्त से प्रेरणा और सुजन की दिशा पा सकेंगे । २५ सित्तम्वर, १९३० को मनाली में आयोजित एक दस दिवसीय साधना- शिविर में आचायंली के फीवन का नया आयाम सामने आया । इन्होंने व नह छः कहा कि संस्यार जीवन की सर्वोच्च समुद्धि है, अतः उसे पूर्णता में सुरक्षित रुगया जाना चाहिए । उन्हें वर्हा प्रेरणा हुई कि थे संस्यास-जीवन को एक नबा मोट देने में सहयोगी हो सकेंगे और नाचते हुए, गीत गाते हुए, आनंदमग्न, समस्त जोवन को आालिगन करने वाले, सशस्त्र और स्वावलम्धी संन्यासियों के साक्षी घन सकेंगे । शिविर में तथा उच्तके बाद भी अनेक व्यक्तियों ने सीदे परमात्मा से संन्यास की दीक्षा ली । आाचायंली इस घटना के साक्षी रहे। (ग) इस “नव संन्यास अन्तर्राष्ट्रीय-संस्था (]१९०-$कगराए३४ पालिावराणाव) भ अब तक ४३२ व्यक्तियों ने संन्यात-जीवन में प्रवेश किया है। कुछ ही वर्षो में इनकी संध्या हजारों की होने वाली है । ये संनन्‍्यासी-जीवन की पूर्ण सघनता और व्यवहार में सक्रिय ,भाग लेने के साथ ही साथ विशिष्ट साधना-पद्धतियों में रत हैं। इस दिल्ञा में संन्यासियों का एक कम्यन “विश्वनीड” के नाम से पोस्ट आजोल, तालुका-वीजापुर, जिला-महेसाणा (गुजरात) में कार्यरत हो चुका है। ये संन्‍्यासी आचारय॑श्री रजनीश की नई जीवन-दृष्टि, जीवन-सजन जीवम-शिक्षा एवं प्रायोगिक धर्म-साधना के बहु-आयामों में निपुण एवं सक्षम होकर भारत तथा विद्वव के कोने-कोने में धर्म और संस्कृति के पुनरत्वान तथा “धर्म-चक्र-प्रवर्तन”' हेतु बाहर निकल रहे हें । आचार्यश्री का व्यक्तित्व अथाहु सागर-जंसा है। इनके सम्बन्ध में संकेत- सात्र हो सकते हें। जो व्यक्ति परम आनंन्‍्द, परम शांति, परम मुक्ति, परम निर्वाण को उपलब्ध होता है उसके श्वास-इवास से, रोएँ-रोएँ से, प्राणों के कण-कण से एक संगीत, एक गीत, एक नृत्य, एक आह्वाद, एक सुगंध, एक आलोक, एक अमृत की प्रतिपल वर्षा होती रहती है और समस्त अस्तित्व उससे नहा उठता है । इस संगीत, इस गीत, इस नृत्य को कोई प्रेम कहता कोई आनंद कहता है और कोई मुक्ति कहता है। लेकिन ये सब एक ही सत्य को दिए गए अलग-अलग नाम हैं । एसे ही व्यक्ति हे--आचार्य रजनीश, जो मिट गए हैं, शून्य हो गए हैं, जो आस्तित्व और अनस्तित्व के साथ एक हो गए हैँ, जिनका इ्वास- श्वास अंतरिक्ष का दवास हो गया है, जिनके हृदय की धड़कनें चाँद-तारों की धड़कनों के साथ एक हो गई हैं, जिनकी आंखों में सूरज-चाँद-सितारों को रोशनी देखी जा सकती है, जिनकी मुस्कराहटों में समस्त पृथ्वी के फूलों की सुगंध पाई जा सकती है, जिनकी वाणी में पक्षियों के प्रातः गीतों की निर्दोपता और ताजगी है और जिनका सारा व्यक्तित्व ही एक कविता, एक नृत्य और एक उत्सव हो गया है। इस नृत्यमय, संगीतमय, सुगंधमय, आलोकमय व्यक्तित्व से प्रतिपल' निकलनेवाली प्रेम की, करुणा और लहरों के साथ जब लोगों की जिज्ञासा' और मुमुक्षा का संयोग होता है तब प्रवचनों के रूप में ज्ञान-गंगा वह: उठती है। (घर. ) इनके प्रवचनों में जीवन के, जगत के, साधना के, उपासना के विविध रूपों और रंगों का स्पर्श है । इनमें पाताल की गहराइयाँ हैं और विराट अंतरिक्ष की ऊंचाइयां हैं। देश और काल की सीमाओं के अतिक्रमण के बाद जो महाशून्य और निः:शब्द की अनुभूति शेप रह जाती है उसे शब्दों में, इशारों में, मुद्राओं 'में व्यक्त करने का सफल प्रयास इनके प्रवचनों में रहता है । इनके प्रवचन सूत्रवत्‌ हैं, सीधे हैं, हृदय-स्पर्शी हैं, मीठे हैं, तीखे हैं और साथ ही पूरे व्यक्तित्व को झकज्ोरने और जगानेवाले भी हैं। इनके प्रवचनों आर ध्यान के प्रयोगों से व्यक्ति की निद्रा, प्रमाद और मूर्च्छा ट्ढती है और वह अन्त: तथा बाह्य रूपान्तरण, जागरण और क्रांति में संलग्न हो जाता है । ल्‍्प् न्ष्प शी ्य #»27१ _बंड जी ७छ ३! १44: १४ ; १व५ : १६ : >> न अन्तर्व॑स्तु मैं कौन हें ? धर्म क्‍या है ? विज्ञान की अग्नि में धर्म विद्वास मनुष्य का विज्ञान विचार के जन्म के लिए विचारों से मुक्ति जीयें और जानें शिक्षा का लक्ष्य जीवन-संपदा का अधिकार समाधि योग जीवन की क्षदृध्य जड़ें वहिसा क्‍या है ? आनन्द की दिया माँगो और मिलेगा प्रेम ही प्रभ है नीति, भय और प्रेम बहिसा का अर्थ मैं मृत्यु सिखाता हूँ ५१ 2 प्र्प के में कोन हूँ ! एक रात्रि की बात है। पृणिमा थी, मैं नदी तट पर था, अकेला आकाश को, देखता था। दुरदूर तक सच्चादा था। | फिर किद्ती के पैरों की आहट पीछे सुनाई पड़ी । लौटकर देखा, एक युवा साधु खड़े थे। उनसे बैठने को कहा | बैठे तो देखा कि वे रो रहे हैं। आँखों से क्र-झर भँयू गिर रहे हैं। उत्हें मैंने निकट से लिया। थोड़ी देर तक उनके कर्धे पर हाथ रखे में मौन बठा रहा। ने कुछ कहने को था, न कहने की स्थिति ही थी, किन्तु प्रेम से भरे मौन ने उन्हें भाश्वस्त किया । ऐसे कितदा समय वीता कुछ याद नहीं। फिर बन्ततः उन्होंने कहा: “में ईश्वर के दर्शव करता चाहता हूँ । कहिए क्या ईश्वर है था कि मैं मगतृष्णा में पढ़ा हूँ ?” में क्या कहता ? उन्हें भौर निकट ले लिया। प्रेम के अतिरिक्त तो किसी और परमात्मा को मैं जानता नहीं हूँ । प्रेम को न खोजकर जो परमात्मा को खोजता है, वहू भ्रूल में ही पड़ जाता है। प्रेम के मन्दिर को छोड़कर जो किसी और मन्दिर की खोज में जाता है, वह परमात्मा से और दूर ही निकल जाता है। किन्तु, यह सब तो मेरे मत में था । वैसे मुझे चूप देखकर उन्होंने फिर कहा : “कहिए--हुछ तो कहिए । मैं बड़ी आश्या से आपके पास आया हूँ। क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन नहीं करा सकते १” फिर भी मैं क्या कहता ? उन्हें और निकट लेकर उनकी आँथसुओं से भरी आँखें चूम लीं। उन आँसुओं में बड़ी आकांक्षा थी, बड़ी अभीष्सा थी। निश्चय ही वे आँखें परमात्मा के दर्शन के लिए बड़ी आाकुल थीं। लेकिन, परमात्मा क्या बाहर है कि उसके दर्शव किए जा सके ? परमात्मा इतता भी तो पराया नहीं है कि उसे देखा जा सके ! अन्ततः मैंने उनसे कहा : “जो तुम मुझसे पृदधते हो, वही विसी ने श्री रमण से पुछ्धा था। श्री रमण से कहा था : “ईइवर के दर्शन ? नहीं, नहीं, दर्शन पहीं हो सकते । लेकिन चाहों तो स्वयं ईप्वर अवश्य ५ झाग्य # खोज स्वयं से ४. कहीं भी री आओ - भाग्य हैं। क्योंकि जो खोज स्वयं से पलायन है, वह कहीं भी नहीं लेर जा सकती है | और दो ही विकल्प हैं: स्वयं से भागो या स्वयं में जागों । भागने के लिए बाहर लक्ष्य चाहिए और जागने के लिए बाहर के सभी लक्ष्यों की | ०8 ईटवर न्स्द्र्ल अल्ट्रा 28% तब ड्स््ट् अल्टल वतन “4 संसार 3 >> २. न ईदवर जब तक बाहर है, तव तक वह भी संसार हैं, वह भी माया है, वह [. अ ी- मूर्छा है। उसका आविप्कार भी मनुप्य ने स्वयं से बचने और भागते के मित्र, इसलिए पहली वात तो मुझे यही कहना हू क्रि ईदवर, सत्य, निर्वाण, मोक्ष----बह सब न खोजें। खोजें उसे जो सब खोज रहा हैं। उसकी वर की, सत्य की और निर्वाण की खोज सिद्ध होती है। आत्मानुसंधान के अतिरिक्त और कोई खोज धामिक खोज नहीं है । लेकिन, आत्म पान, आत्म दर्शन, आदि शब्द बढ़े श्रामक हैं। क्योंकि स्वर्थं का जान कस हो सकता है ? ज्ञान के लिए द्वेत चाहिए चाहिए। रु ० जहाँ दो नहीं हैं, वहाँ ज्ञान कैसे होगा ? दर्शन कैसे होगा ? साक्षात्‌ कैसे खोज ही अत्ततः हि होगा ? वस्तुतः ज्ञान, दर्णनादि सभी झब्द द्वत के जगत्‌ के हैं। और जहाँ अद्वैत है, जहाँ एक ही है, वहाँ वे एकदम अर्थहीन हो जाते हों तो कोई आइ्चर्य नहीं । मेरे देखे, “आत्मदर्शन” असम्मावना है| वह घब्द ही बसंगत है। मैं भी कहता हूँ : स्वयं को जानो । सुकरात ने यही कहा है। बुद्ध और महावीर ने भी बही | ऋराइस्ट और कृष्ण ने भी यही । फिर भी स्मरण रहे कि जो जाना जा सकता है, वह स्व कंसे होगा ? वह तो पर ही हो सकता है। जानना तो पर का ही हो सकता है। स्व तो बह है जो जानता है। स्च' अनिवार्य रूप से ज्ञाता हैं। उसे किसी भी उपाय सेजेय नहीं बताया जा सकता । लो फिर उसका ज्ञान कैसे होगा ? ज्ञान तो ने व का होता है। ज्ञाता का ज्ञान कैसे होगा ? जहाँ जान है, वहाँ कोई ज्ञाता है, कुछ भय है । वहाँ कुछ जाना. जाता है और कोई जानता है। अब ज्ञाता को ही जानने की नेप्टा क्या आँख 0, 2 हु को उसी भाँख से देखने के प्रयास की भाँति नहीं है ? क्या ढुत्तों को स्वयं अपनी ही पूंछ को पकड़ने की असफल चेप्टा करते आपने कभी देखा है? वे जितनी तीब्रता में झपदते हैं, पूंछ उतनी ही झीघत्रता से हट जाती है। इस प्रयास में वे पागल भी हो जायें तो भी वया उन्हें पूंछ की प्राप्ति हो सकती है ? किस्नु है छ उनसे कहा : “रिक्त रथ्ान आपके घर में पर्याप्त है। वह यहीं है, और कहीं गया नहीं, केवल सामान से आपने उसे ढाँक लिया है। कृपाकर सामान बाहर करें तो आप पायेंगे कि वह भीतर आ गया है। वह तो भीतर ही है। सामान के टर से दृुवक गया है। सामान हटा वें और वह अभी और यहीं है ।” आत्म-नान की विधि भी यही है । मैं तो निरंतर हैं। सोते-जागते, उठते-बैठते, सुख में दुख में--मे तो हूँ ही। न्लान हो, अमान हो, में तो हूँ ही। मेरा यह होना असंदिग्ध है। सब पर संदेह किया जा सके, लेकिन स्वयं पर तो संदेह नहीं किया जा सकता है। जैसा कि देकात॑ ने कहा है : “संदेह भी करूँ तो भी में हूँ, क्योंकि संदेह भी बिना उसके कौन करेगा ?” लेकिन, यह “में कौन हें ?” यह “मे! क्या है ? कैसे इसे जातूँ ? हें सो तो ठीक, लेकिन, क्या हूँ ? कौन हूँ ? में है, यह असंदिग्ध है । और क्या यह भी असंदिग्ध नहीं है कि मैं जानता हँ-पम्श्नमें ज्ञान है, चेतना है, दर्शन है ? यह हो सकता है कि जो जानूँ, वह सत्य न हो, असत्य हो, स्वप्न हो, लेकिन मेरा जानता--जानने की क्षमता--तो सत्य है । इन दो तथ्यों को देखें, विचार करें। मेरा होना--मेरा अस्तित्व और मेरी जानने की क्षमता--मुझमें जान का होना, इन दोनों के आधार पर ही मार्ग खोजा जा सकता है । मैं हैँ, लेकिन ज्ञात नही कीन हैं ? अब क्या करें ? ज्ञान जो क्रि क्षमता है, ज्ञान जो कि थक्ति है, उसमें झँकूँ और खोजूं। इमके अतिरिक्त और कोई विकल्प ही कहाँ है ? ज्ञान की थक्ति है, लेक्नि वह जय से--विपयों से--छेकी है। एक विपय हटता है, तो दूसरा आ जाता है। एक विचार जाता है तो दूसरे का आगमन हो जाता है। ज्ञान एक विपय से मुक्त होता है तो दूसरे से बंध जाता है, लिकिन रिक्त नहीं हो पाता | यदि ज्ञान विपय-रिक्‍त दो तो क्या हो ? कया उस अंतराल में, उस सितता में, उस बून्यता में ज्ञान स्वयं में ही होने के कारण रबय॑ की सत्ता का उद्घाटक नहीं बन जायगा ? क्‍या जब जानने को कोर्ट बिपय नहीं होगा तो ज्ञान स्वयं को ही नहीं जानेगा ? ज्ञान जहाँ विपय-रिकत है, वही बह स्वप्रतिष्ठ होता है। है ञ -“ “ ज्ञान जहाँ ज्ञेय से मुक्त है, वहीं वह शुद्ध है। और वह शुद्धता--शयून्यतः '--ही आत्मज्ञान है | चेतना जहाँ निविषय है, निविचार है, निविकल्प है, वहीं जो अनुभूति है, वही स्वयं का साक्षात्कार है । किन्तु, यहाँ इस साक्षात्कार में न तो कोई ज्ञाता है, न ज्ञय है। यह अनुभूति अभूतपूर्व है। उसके लिए शब्द असंभव है । लाओ से ने कहा है : "सत्य के संबंध में जो भी कहो, वह कहने से ही असत्य हो जाता है।” फिर भी सत्य के संबंध में जितना कहा गया है, उतना किस संबंध में कहा गया है ? अनिवंचनीय उसे कहें, तो भी कुछ कहते हो हैं ? उसके संबंध में मौत रहें तो भी कुछ कहते ही हैं ? ज्ञान है शब्दातीत । किन्तु प्रेम उसके आनन्द की, उसके आलोक की, उसकी मुक्ति की खबर देना चाहता है, फिर चाहे वे इंगित कितने ही अधूरे हों और कितने ही असफल वे इशारे हों । गूंगा भी गुड़ के संबंध में कुछ कहता है? वह चाहे कुछ भी न कह पाता हो लेकिन कहना चाहता है, यह तो ' कह ही देता है । किस्तु, सत्य के संबंध में किए गए अधूरे इंगितों को पकड़ लेने से बड़ी ' भ्रांति हो जाती है । आत्मज्ञान की खोज में जो व्यक्ति आत्मा को एक ज्ञेय पदार्थ की भाँति खोजने निकल पड़ता है, वह प्रथम चरण में ही गलत दिशा में चल पड़ता है। आत्मा ज्ञेय नहीं है और न ही उसे किसी आकांक्षा का लक्ष्य ही बताया जा सकता है, क्योंकि वह विषय भी नहीं है । वस्तुतः उसे खोजा भी नहीं जा सकता क्योंकि वहु खोजनेवाला का ही स्वरूप है। उस खोज में खोज और खोजी भिन्‍न नहीं है । इसलिए आत्मा ' को केवल वे ही खोज पाते हैं, जो सब खोज छोड़ देते हैं और वे ही जाव पाते हैं जो सब जानने से शून्य हो जाते हैं । खोज को---सब भाँति की खोज को---छोड़ते ही चेतना वहाँ पहुंच जाती ४ है, जहाँ वह सदा से ही है । ५ दौड़ को--सब भाँति की दोड़ को--छोड़ते ही चेतना चहीं पहुँच जाती है, जहाँ वह सर्देव से ही खड़ी हुई है । समाधि के बाद तथागत बुद्ध से किसी ने पूछा : “समाधि से आपको क्‍या १७० मिला ?” तो बुद्ध ने कहा था : “कुछ भी नहीं । खोया बहुत कुछ, पाया कुछ भी नहीं। वासना खोई, विचार खोए, सब भाँति की दौड़ और तृष्णा खोई भौर पाया वह जो सदा से ही पाया हुआ है ।” मैं जिसे नहीं खो सकता हूँ, वही तो है स्वरूप । मैं जिसे नहीं खो सकता हूँ, वही तो है परमात्मा । और सत्य क्या है ? जो सदा है, सनातन है, वही तो है सत्य । इस सत्य को, इस स्वरूप को पाने के लिए चेतना से उस सवको खोना आवश्यक है जो कि सत्य नहीं है। जिसे खोया जा सकता है, उस सबको खोकर ही वह जान लिया जाता है, जो सत्य है । स्वप्न खोते ही सत्य उपलब्ध है । मित्र, में पुनः दोहराता हूँ : स्वप्न खोते ही सत्य उपलब्ध है । स्वप्न जहाँ नहीं हैं, तव जो शेप है, वही है स्व-सत्ता, वही है सत्य, वही है स्वतंत्रता । धर्म जप में क्या है ! मैं धर्म पर क्या कहूँ ? जो कहा जा सकता है, वह धर्म नहीं होगा । जो विचार के परे है, वह वाणी के अन्तर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो हैं, वह धर्म नहीं है। शब्द ही वहाँ हैं । शब्द सत्य की ओर जाने के भले ही संकेत हों, पर वे सत्य नहीं हैं । शब्दों से संप्रदाय बनते हैं, और धरम दूर ही रह जाता है। इन शब्दों ने ही मनुष्य को तोड़ दिया है । मनुष्यों के बीच पत्थरों की नहीं, शब्दों की ही दीवारे हैं । मनुष्य और मनुष्य के बीच शब्द की दीवारें हैं। मनुष्य और सत्य के बीच भी शब्द की ही दीवार है । असल में जो सत्य से दूर किए हुए है, वही उसे सबसे दूर किए हुए है । शब्दों का एक मंत्र घेरा है और हम सब उसमें सम्मोहित हैं। शब्द हमारी निद्रा है, और शब्द के सम्मोहक्क अनुसरण में हम अपने आपसे बहुत दूर निकल गए हैं । स्वयं से जो दूर और स्वयं से जो अपरिचित है वह सत्य से निकट और सत्य से परिचित नहीं हो सकता है। यह इसलिए कि स्वयं का सत्य ही सबसे निकट का सत्य है। शेष सब दूर है। बस स्वयं ही दूर नहीं है । शब्द स्वयं को नहीं जानने देते हैं। उनकी तरंगों में वह सागर छिप ही जाता है। शब्दों का कोलाहल उस संगीत को अपने तक नहीं पहुँचने देता जो कि मैं हें। शब्द का धुआँ सत्य की अग्नि प्रकट नहीं होने देता है, और हम अपने वस्त्रों को ही जानते-जानते मिट जाते हैं और उसे नहीं मिल पाते जिसके वस्त्र थे, और जो बस्त्रों में था, लेकिन केवल वस्त्र ही नहीं था । मैं भीतर देखता हूँ | वहाँ शब्द ही शब्द दिखाई देते हैं । विचार, स्मृतियाँ, कल्पनाए” और स्वप्न, ये सब शब्द ही हैं, और मैं शब्द के पत॑-पतं घरों में बेंधा हूँ । क्या मैं इन विचारों पर ही समाप्त हूँ, याकि इनसे भिन्‍न और अतीत भी मुझमें कुछ है ? इस प्रइन के उत्तर पर ही सब कुछ निर्भर है। उत्तर विचार से आया तो मनुष्य धर्म तक नहीं पहुँच पाता, क्योंकि विचार, विचार से अतीत को नहीं जान सकता । विचार की सीमा विचार है । उसके पार की गंध भी उसे नहीं मिल सकती है । साधारणतः लोग विचार से ही वापिस लौट आते हैं। वह अदृश्य १२ दीवार उन्हें वापिस कर देती है। जैसे कोई कुआँ खोदने जाय और कंकड़- पत्थर को पाकर निराश हो रुक जाय, वैसा ही स्वयं की खुदाई में भी हो जाता है। बाब्दों के कंकड़-पत्थर ही पहले मिलते हैं और यह स्वाभाविक ही है। वे ही हमारी बाहरी पर्त हैं। जीवन-यात्रा में उवकी ही धूल हमारा आवरण बन गई है | आत्मा को पाने को सव आवरण चीर देने जरूरी हैं। बस्त्रों के पार जो नग्न सत्य है, उस पर ही रुकना है। शब्द को उस समय तक खोदे चलना है, जब तक की निःथव्द का जलम्रोत उपलब्ध नहीं हो जाय । विचार की धूल को हटाना है, जब तक कि मौन का दर्पण हाथ न था जाय । यह खुदाई कठिन है । यह बस्त्रों को उतारना ही नहीं है, अपनी चमड़ी को उतारना है । यही तप है । प्याज को छीलते हुए देखा है ? ऐसा ही अपने को छीलना है। प्याज में नो अन्त में कुछ भी नहीं बचता है, अपने में सब कुछ बच रहता है। सब छीलने पर जो बच रहता है, वही वास्तविक है। वही मेरी प्रामाणिक सत्ता है । बही मेरी आत्मा है एक-एक विचार को उठाकर दूर रखते जाना है, और जानना है कि यह मैं नहीं हट थ्छ , और इस भाँति गहरे प्रवेण करना है। थुभ या अशुभ को नहीं चुनना । वसा चुनाव वैचारिक ही है, ओर विचार के पार नहीं ले जाता । यहीं नीति और धर्म अलग रास्तों के लिए हो जाते हैं। नीति अथ्ुभ विचारों के विरोध में घुभ विचारों का चुनाव है | धर्म चुनाव नहीं है । बहु तो उसे जानना है, जो सब चुनाव करता है, और सब चुनावों के पीछे है। यह जानना भी हो सकता हैं, जब चुनाव का सब चुनाव सून्य हो और केवल वही भेष रह जाय जो हमारा चनाव नहीं है वरन हम स्वत्रयं हैं । विचार के तटस्थ, चुनावयून्य निरीक्षण से विचार-बून्यता आती है। विचार तो नहीं रह जाते, केवल विवेक रह जाता है। बिपय-वस्तु तो नहीं होती, केवल चैतन्य मात्र रह जाता है। इसी क्षण में प्रमुप्त प्रजा का विस्फोट होता है, और धर्म के द्वार सुल जाते हैं । इसी उद्घाटन के लिए मैं सबको आमंत्रित करता हें । भास्त्र जो तुम्हें नहीं दे सकते, वह स्वयं तुम्दी में है, ओर तुम्हें जो कोई भरी नहीं दे सकता, उसे तुम अभी और दसी क्षण पा सकते हो। कैवल शब्द को छोटते ही सत्य उपलब्ध होता है । विज्ञान की अग्नि में धर्म और विश्वास मैं स्मरण करता हैं मनुष्य के इतिहास की सबसे पहली घटना को । कहा जाता है कि जब आादम ओर ईव स्वर्ग के राज्य से बाहर निकाले गए तो आादम ने द्वार से निकलते हुए जो सवसे पहले शब्द ईव से कहे थे, वे थे : “हम ्<्‌ एक बहुत बड़ी क्रांति से गुजर रहे हैं ।” पता नहीं पहले आदमी ने कमी बह कहा था या नहीं, लेकिन न भी कहा हो तो भी उसके मन में तो थे भाव रहें ही होंगे। एक बिलकुल ही अज्ञात जगत्‌ में वह प्रवेश कर रहा था। जो परिचित था वह छूट रहा था, और जो विलकुल ही परिचित नहीं था, उस अनजाने और अजनवी जगत्‌ में उसे जाना पड़ रहा था। अजात सागर में नौका खोलते समय ऐसा लगना स्वाभाविक ही है । ये भाव प्रत्येक युग में आदमी को अनुभव होते रहे है, क्योंकि जीवन का विकास तो निरंतर अज्ञात से ज्ञात में द्ठी है । जो ज्ञात हो जाता है उसे छोड़ना पड़ता है, ताकि जो अज्ञात है वहू भी ज्ञात हो सके। ज्ञात की ज्योति, ज्ञात से अज्ञात में चरण रखने के साहस से ही प्रज्वलित और परिवर्तित होती है । जो नात पर रुक जाता है, वह अजात पर ही रुक जाता है। ज्ञात पर ढक जाना ज्ञान की दिशा नहीं हैं । जब तक मनुप्य पूर्ण नहीं हो जाता है तब तक निरंतर ही पुराने और परिचित को विदा देती होगी और नए तथा अपरिचित का स्वागत करना होगा । नए सूर्य के उदय के लिए रोज ही परिचित पुराने सूर्य को विदा दे देनी होती है। फिर संक्रमण की वेला में रात्रि के अंधकार से भी ग्रुजरना होता है । विकास की यह प्रक्रिया निन्‍चय ही चहुत कप्टप्रद है। लेकिन बिना प्रसव-पीड़ा के कोई जन्म भी तो नहीं होता है। हम भी इस प्रसवन्यीड़ा से गुजर रहे हैं। हम भी एक अभूतपूर्व क्रांति से गुजर रहे हैं। आायद मानवीय चेतना में इतनी आमूल क्रांति का कोई समय भी नहीं बाबा था। थोडे-बहुत वर्षो में तो परिवर्तन सदैव होता रहता है, क्योंकि परिवर्तन के अमाव में कोई जीवन ही नहीं है। लेकित परिवर्तत की णह सतत प्रक्रिया कभी-कभी वाष्पीकरण के उत्ताप-विन्दु पर भी पहुँच जाती है औरः तब आमूल क्रांति घटित हो जाती है। यह वीसबीं सदी एक ऐसे ही उत्ताप' विन्दु पर मनुष्य को ले आई है । इस क्रांति से उसकी चोतना एक बिलकुल ही' नए आयाम में गतिमय होने को तैयार हो रही है । हमारी यात्रा अब एक बहुत ही आज्ात मार्ग पर होनी संभावित है ।. जो भी ज्ञात है, वह छूट रहा है और जो भी परिचित और जाना-माना है, वह॒विलीन होता जाता है । सदा से चले आते जीवन-मूल्य खंडित हो रहे हैं और परंपरा की कड़ियाँ टूट रही हैं। निश्चित ही यह किसी बहुत बड़ी छलांग की पूर्व तैयारी है । अतीत की भूमि से उखड़ रही हमारी जड़ें किप्ती नई भूमि में स्थानान्तरित होना चाहती है और परम्पराओं के गिरते हुए पुराने भवन किन्‍्हीं नए भवनों के लिए स्थान खाली कर रहे है ? इन सब में मैं मनुष्य को जीवन के विलकुल ही “अज्ञात रहस्य-द्वारों पर चोट करते देख रहा हूँ। परिचित और चत्रीय गति से बहुत चले हुए मार्ग उजाड़ हो गए हैं और भविष्य के अत्यंत अपरिचित और अंधकारपूर्ण मार्मों को प्रकाशित करने की चेष्टा चल रही है । यह बहुत शुभ है, और मैं बहुत आशा से भरा हुआ हूँ | क्योंकि यह सव चेप्टा इस बात का सुसमाचार है कि मनुष्य की चेतना कोई नया आरोहण करना चाहती है | हम विकास के किसी सोपान' के निकट हैं। मनुष्य अब वही नहीं रहेगा जो वह था। कुछ होने को है, कुछ नया होने को है । जिनके पास दूर देखनेवाली आँखें हैं वे देख सकते हैं, और जिनके पास दूर को सुननेवाले कान हैं वे सुन सकते हैं । बीज जब टूटता है और अपने अंकुर को सूर्य की तलाश में भूमि के ऊपर भेजता है तो जैसी उधलन-पुथल उसके भीतर होती है, वैसे ही उथल-पुथल का सामना हम भी कर रहे है । इसमें घवड़ाने और चिन्तित होने का कोई भी कारण नही है | यह अराजकता संक्रमणकालीन है । इसके भय से पीछे लौटने की वृत्ति आत्मघाती है । फिर पीछे लौटना तो कभी संभव नहीं है । जीवन केवल आगे की ओर ही जाता है। जैसे सुबह होने के पूर्व अंधकार और भी घना हो जाता है, ऐसे ही नए के जन्म के पूर्व भराजकता की पीड़ा भी बहुत सघन हो जाती है । हमारी चेतना में हो रही इस सारी उथल-पुथल, अराजकता, क्रांति औरः च्फप नए के जन्म की संभावना का केन्द्र ओर आधार विज्ञान है । विज्ञान के आलोक ने हमारी आँखें खोल दी है और हमारी नींद तोड़ दी है। उसने ही हमसे हमारे बहुत से दीर्घ पोषित स्वप्न छीन लिये हैं और बहुत से वस्त्र भी और ऋहमारे स्वयं के समक्ष ही नग्न खड़ा कर दिया है, जैसे किसी ने हमें झकझो रकर अर्ध॑रात्रि में जगा दिया हो | ऐसा ही विज्ञान ने हमें जगा दिया है। विज्ञान ते मनुष्य का बचपत छीन लिया है और उसे प्रौढ़ता दे दी है। उसकी ही खोजों और निप्पत्तियों ने हमें हमारी परंपरागत और रूढ़िवद्ध 'चिन्तना से मुक्त कर दिया है, जो वस्तुत: चिन्तना नहीं, मात्र चिन्तन का 'मिथ्या आभास ही थी; क्योंकि जो विचार स्वतंत्र न हो वह विचार ही नहीं होता है | सदियों-सदियों से जो अंधविश्वास मकड़ी के जालों की भाँति हमें 'घेरे हुए थे, उसने उन्हें तोड़ दिया है, और यह संभव हो सका है कि मनुष्य का 'मन विश्वास की कारा से मुक्त होकर विवेक की ओर अग्रसर हो सके । कल तक के इतिहास को हम विश्वास-काल कह सकते हैं। आनेवाला समय विवेक का होगा । विश्वास से विवेक में आरोहण ही विज्ञान की सबसे 'बड़ी देन है। यह विश्वास का परिवर्तन मात्र ही नहीं है, वरन्‌ विश्वास से मुक्ति है। श्रद्धाएँ तो सदा बदलती रहती हैं । पुराने विश्वासों की जगह नए विश्वास लेते रहे हैं। लेकिन आज जो विज्ञान के द्वारा संभव हुआ है, वह वहुत अभिनव है। पुराने विश्वास चले गए हैं और नयों का आगमन नहीं हुआ है। पुरानी श्रद्धाएं मर गई हैं, और नई श्रद्धाओं का आविर्भाव नहीं हुआ है । यह रिक्तता अभूतपूर्व है । श्रद्धा बदली नहीं, शून्य हो गईं है। श्रद्धा-शून्य तथा विश्वास-शून्य चेतना का जन्म हुआ है । विश्वास बदल जायें तो कोई मौलिक भेद नहीं पड़ता है । एक की जगह दूसरे आ जाते हैं । अर्थी को ले जाते समय ज॑से लोग कंधा वदल लेते हैं, वैसा ही यह परिवर्तन है । विदवास की वृत्ति तो बनी ही रहती है। जवकि विश्वास की विपय-वस्तु नहीं, विश्वास की वृति ही असली वात है। विज्ञान ने विश्वास को नहीं बदला है, उसमे तो उसकी वृत्ति को ही तोड़ डाला है । विद्वास-वृत्ति ही अंधानुगमन में ले जाती है और वही पक्षपातों से चित्त को बाँधती है। जो चित्त पक्षपातों से वेंधा हो, वह सत्य को नहीं जान सकता नै । जानने के लिए निष्पक्ष होना आवश्यक है १६ जो कुछ भी मान लेता है, वह सत्य को जानने से वंचित हो जाता है।' वह मानना ही उसका बंधन बन जाता है, जबकि सत्य के साक्षात्‌ के लिए: चेतना का मुक्त होना आवश्यक है । विश्वास नहीं, विवेक ही सत्य के द्वार तकः ले जाने में समर्थ है और विवेक के जागरण में विश्वास से बड़ी और कोई बाधा नहीं है। यह स्मरणीय है कि जो व्यक्ति विश्वास कर लेता है, वह कभी खोजता नहीं । खोज तो सन्देह से होती है, श्रद्धा से नहीं । समस्त ज्ञान का जन्म संदेह से होता है। संदेह का अर्थ अविश्वास नहीं है । अविश्वास तो विश्वास का ही निपेधात्मक रूप है। खोज न तो विश्वास से होती है, न अंधविश्वास से । उसके लिए तो संदेह की स्वतंत्र चित्त-दद्ा चाहिए । संदेह केवल सत्य की खोज का पथ प्रद्ास्त करता है । विज्ञान ने जो तथाकथित ज्ञान प्रचलित और स्वीकृत था, उस पर संदेह किया ओर संदेह ने अनुसन्धान के द्वार खोल दिए। संदेह जैसे-जैसे विश्वासों या अंधविश्वासों से मुक्त हुआ वसे-वैसे विज्ञान के चरण सत्य की ओर बढ़े । विज्ञान का न तो किसी पर विश्वास है न अविश्वास, वह तो पक्षपातशून्य' अनुसन्धान है । प्रयोग-जन्य ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी मानने की वहाँ तैयारी नहीं। वह तन तो आस्तिक है, न नास्तिक | उसकी कोई पूवव मान्यता नहीं है। वह कुछ भी सिद्ध नहीं करना चाहता है। सिद्ध करने के लिए उसकी अपनी कोई धारणा नहीं है। वह तो जो सत्य है, उसे ही जानना चाहता है। यही कारण है कि विज्ञान के पंथ और संप्रदाय नहीं बने और उसकी निप्पत्तियाँ सार्वलौकिक हो सकी । जहाँ पूर्वधारणाओं और पूर्वपक्षपातों से प्रारंभ होगा वहाँ अंततः सत्य नहीं, संप्रदाय ही हाथ में रह जाते हैं। अज्ञान और अंधेपन में स्वीकृत कोई भी धारणा सावंलौकिक नहीं हो सकती । सावंलीकिक तो केवल सत्य हो सकता है। यही कारण है कि जहाँ विज्ञान एक है, वहाँ तथाकथित धर्म अनेक और परस्पर विरोधी हैं। धर्म भी जिस दिन विश्वासों पर नहीं, णुद्ध विवेक पर आधारित होगा, उस दिन अपरिहाय रूप से एक ही हो जायगा। विश्वास अनेक हो सकते हैं, पर विवेक एक ही है। असत्य अनेक हो सकते हैं, पर सत्य एक ही है । १७ धरम का प्राण श्रद्धा थी । श्रद्धा का अर्थ है विना जाने मान लेता । श्रद्धा नहीं तो धमे भी तहीं। श्रद्धा के साथ ही उसकी छाया की भाँति तथाकथित प्वर्म भी चला गया । धर्मविरोधी वास्तिकता का प्राण अश्नद्धा धी । अश्नद्धा का अर्थ है : बिता “जाने अस्वीकार कर देना । वह श्रद्धा के ही सिक्के का इसरा पहलू हैं। श्रद्धा -गई तो वह भी गई। आस्तिकता-वास्तिकता दोनों ही मृत हो गई हैं। उन दो इन्द्रों, दो अतियों के बीच ही सदा से हम डोलते रहे हैं । विज्ञान ने एक तीसरा विकल्प दिया है । यह संभव हुआ है कि कोई व्यक्ति आस्तिक नातिस्क दोनों ही न हो और वह स्वयं को किन्‍्हीं भी विद्वासों से “बाँधे । जीवन-सत्य के सम्बन्ध में वह परम्परा जौर प्रचार से अवचेतन में डाली “गई धारणाओं से अपने आप को मुक्त कर ले। समाज और संप्रदाय भ्रत्येक के चित्त की गहरी परतों में अत्यन्त जअवोध अवस्था में ही अपनी स्वीकृत मान्यताओं को प्रवजश्ञ कराने लगते हैं । हिन्दू, जैन, बोद्ध, ईसाई, या सुतललमान अपनी-अपनी सान्यताओों और विद्वासों को बच्चों के मत में डाल देते हैं । निरंतर पुलरुक्ति और प्रचार से वे चित्त की अवचेतन परतों में बद्धघूल हो जाती हैं और वैसा व्यक्ति फिर स्वतंत्र :चिन्तन के लिए करोब-करीब पंगु-ला हो जाता है| यही कम्युनिज्म या तास्तिक प्घर्मं कर रहा है। व्यक्तियों के साथ उनकी अबोध अवस्था में किया गया यह अनाचार मनुष्य के विपरीत किए जानेवाले बड़े से बड़े पापों में से एक है। चित्त इस भाँति 'परतंत्र और विश्वासों के ढाँचे में कैद हो जाता है । फिर उसकी गति पटरियों 'पर दौड़ते वाहनों की भाँति हो जाती है । पटरियाँ जहाँ से ले जाती हैं, वहीं 'वह जाता है, और उसे यही श्रम होता है कि मैं जा रहा हूँ । दूसरों से मिले विश्वास ही उसके विचारों में प्रकट या प्रच्छन्न होते हैं, लेकिन भ्रम उसे यही कहता है कि ये विचार मेरे हैं। विश्वास यांत्रिकता को जन्म देता है और चेतना के विकास के लिए यांत्रिकता से घातक और क्या हो सकता ह विश्वासों से पैदा हुई मानसिक गुलामी और जड़ता के कारण व्यक्ति की गति कोल्हू के बैल की-सी हो जाती है। वह विश्वासों की परिधि में ही घमता “रहता है और विचार कभी नहीं कर पाता पृद विचार के लिए स्वतंत्रता चाहिए। चित्त की पूर्ण स्वतंत्रता में ही प्रसुप्त विचार-शक्ति का जागरण होता है और विचार-शक्ति का पूर्ण आविर्भाव ही सत्य तक ले जाता है । विज्ञान ने मनुप्य की विद्वास-वृत्ति पर प्रहार कर बड़ा ही उपकार किया है। इस भाँति उसने मानसिक स्वतंत्रता के आधार रख दिए हैं। इससे धर्म का भी एक नया जन्म होगा । धर्म अब विश्वास पर नहीं, विवेक पर आधारित होगा । श्रद्धा नहीं, ज्ञान ही उसका प्राण होगा । धर्म भी अब वस्तुतः विज्ञान ही होगा | विज्ञान पदार्थों का विज्ञान है। धर्म चेतना का विज्ञान होगा । वस्तुत: सम्यक्‌ धर्म तो सदा से ही विज्ञान रहा है। महावीर, वृद्ध, ईसा, पातंजलि या लाओत्से की अनुभूतियाँ विद्वास पर नहीं, विवेकपूर्ण आत्मप्रयोगों पर ही निर्भर थीं । उन्होंने जो जाना था, उसे ही माना था। मानना प्रथम नहीं, अंतिम था। श्रद्धा आधार नहीं, शिखर थी । आधार तो ज्ञान था। जिन सत्यों की उन्होंने वात की है, वे मात्र उनकी 'धारणाएँ नहीं हैं, वरन्‌ स्वानुभूत प्रत्यक्ष हैं। उनकी अनुभूतियों में भेद भी नहीं है । उनके दाव्द भिन्न हैं, लेकिन सत्य भिन्न नहीं । सत्य तो भिन्न-भिन्न हो भी नहीं सकते । लेकिन ऐसा वैज्ञानिक धर्म कुछ अतिमानवीय चेतनाओं तक ही सीमित रहा है। वह लोक धर्म नहीं बना । लोक धर्म तो अंधविश्वास ही वना रहा है। विज्ञान की चोटें अंधविद्वास पर आधारित धर्म को निप्प्राण किए दे रही हैं। यह वास्तविक धर्म के हित में ही है। वित्रेक की कोई भी विजय अन्ततः वास्तविक धर्म के विरोध में नहीं हो सक्रती । विज्ञान की अग्नि में अंधविश्वासों का कूड़ा-कचरा ही जल जायगा, धर्म और भी निखर कर प्रकट होगा । धर्म का स्वर्ण विज्ञान की अग्नि में गुद्ध हो रहा है, और धर्म जब अपनी 'पूरी शुद्धि में प्रकट होगा तो मनुप्य के चेततवा-जगत्‌ में एक अत्यन्त सौभाग्यपूर्ण सूर्योदय हो जायगा । प्रजा और विवेक पर आझूढ़ धर्म निश्चय ही मनुप्य को अतिमानवीय चेतना में प्रवेश दिला सकता है। उसके अतिरिक्त मनुप्य की चेतना स्वयं का अतिक्रमण नहीं कर सक्रती, और जब मनुप्य स्वयं का अतिक्रमण ऋरता है तो प्रभु से एक हो जाता है । १६ मनुष्य का विज्ञान मैं सुनता हूँ कि मनुप्य का मार्ग खो गया है। यह सत्य है। मनुष्य का मार्ग उसी दिन खो गया, जिस दिन उसने स्वयं को खोजने से भी ज्यादा मूल्यवान किन्‍्हीं और खोजों को मान लिया । मनुष्य के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सार्थक वस्तु मनुप्य के अतिरिक्त ओर कुछ भी नहीं हैं। उसकी पहली खोज वह स्वयं ही हो सकता है । खुद को जाने विना उसका सारा जानना अन्ततः घातक ही होगा । अज्ञान के हाथों में कोई भी ज्ञान सृजनात्मक नहीं हो सकता, और ज्ञान के हाथों में अजआान भी यूजनात्मक हो जाता है । मनुप्य यदि स्वयं को जाने और जीते, तो उसकी शेप सब जीतें उसकी ओर उसके जीवन की सहयोगी होंगी | अन्यथा वह अपने ही हाथों अपनी क्र के लिए गड्ढा खोदेगा । हम ऐसा ही गड्ढा खोदने में लगे हैं । हमारा ही श्रम हमारी मृत्यु वनकर खड़ा हो गया है। पिछली सम्यताएँ वाहर के बआक्रमणों और संकटों से नष्ट हुई थीं। हमारी सम्यता पर बाहर से नहीं, भीतर से संकट है बीसवीं सदी का यह समाज यदि नप्ठ हुआ तो उसे आत्मघात कहना होगा और यह हमें ही कहना होगा क्योंकि वाद में कहने को कोई भी बचने को नहीं है । संभाव्य युद्ध इतिहास में कभी नहीं लिखा जायगा । बह घटना इतिहास के बाहर घटेगी, क्योंकि उसमें तो समस्त मानवता का अन्त होगा । पहले के लोगों ने इतिहास बनाया, हम इतिहास मिटाने को तैयार हैं । ओर इस आत्मघाती संभावना का कारण एक ही है। बह है, मनुष्य का मनुप्य को ठीक से न जानना । पदार्थ की अनन्त ज्क्ति से हम परिचत हैं-- परिचत ही नहीं, उसके हम विजेता भी हैं । पर मानवीय हृदय की गहराइयों का हमें कोई पता नहीं । उन गहराइयों में छिपे विप और अमृत का भी कोई ज्ञान नहीं है । पदार्थाणु को हम जानते हैं, पर बात्माणु को नहीं | यही हमारी विडम्बना २० है] है। ऐसे शक्ति तो भा गई है, पर शान्ति नहीं। अश्ञान्त और अप्रवुद्ध हाथों से आई हुई शक्ति से ही यह सारा उपद्रव है। अक्ञान्त और अप्रवुद्ध का वक्तिहीन होना ही शुभ होता है। शक्ति सदा शुभ नहीं । वह तो शुभ हाथों में ही घुभ होती है। हम द्क्ति को खोजते रहे, यही हमारी भूल हुई। भव अपनी ही उपलब्धि से खतरा है। सारे विश्व के विचारकों और वैज्ञानिकों को आगे स्मरण रखना चाहिए कि उनकी खोज मात्र शक्ति के ही लिए न हो। उस तरह की अंघी खोज ने ही हमें इस अंत पर लाकर खड़ा किया है । शक्ति नहीं, शान्ति लक्ष्य बने । स्वभावत: यदि शान्ति लक्ष्य होगी, तो खोज का केन्द्र प्रकृति नहीं, मनुप्य होगा । जड़ की बहुत खोज और शोध हुई । अब मनुष्य का और मन का अन्वेषण करना होगा । विजय की पताकाएँ पदार्थ पर नहीं, स्वयं पर गाड़नी होंगी । भविष्य का विज्ञान पदार्थ का नहीं, मूलतः मनुष्य का विज्ञान होगा । समय आ गया है कि यह परिवर्तन हो। अब इस दिशा में और देर करनी ठीक नहीं है । कहीं ऐसा न हो कि फिर कुछ करने को समय भी शेप न बचे । जड़ की खोज में जो वैज्ञानिक आज भी लगे हैं, वे दकियानूसी हैं, और उनके मस्तिष्क विज्ञान के आलोक से नहीं, परम्परा और रूढ़ि के अंधकार में ही दूबे कहे जावेंगे। जिन्हें थोड़ा भी बोध है और जागरूकता है, उनके अन्वेपण की दिद्या आमूल बदल जानी चाहिए। हमारी सारी शोध मनुष्य को जानने में लगे, तो कोई भी कारण नहीं है कि जो शक्ति पदार्थ और प्रकृति को जानने और जीतने में इतने अभूतपूर्व रूप से सफल हुई है, वह मनुष्य को जानने में सफल न हो सके । मनुष्य भी निश्चय ही जाना, जीता और परिवर्तित किया जा सकता है । में निराश होने का कोई भी कारण नहीं देखता । हम स्वयं को जान सकते हैं श्रौर स्वयं के ज्ञान पर हमारे जीवन और अन्तः:करण के बिलकुल ही नए आधार रखे जा सकते हैं । एक बिलकुल ही अभिनव मनुष्य को जन्म दिया जा सकता है। अतीत में विभिन्‍न धर्मो ने इस दिशा में बहुत काम किया है, लेकिन वह कार्य अपनी पूर्णता और समग्रता के लिए विज्ञान की प्रतीक्षा कर रहा है। धर्मों ने जिसका प्रारम्भ किया है, विज्ञान उसे पूर्णता तक लेजा ,, सकता है। धर्मो ने जिसके वीज वोए है, विज्ञान उसकी फसल काट सकता है । पदार्थ के सम्बन्ध में विज्ञान और धर्म के रास्ते विरोध में पढ़ गए थे, उसका कारण दकियानूसी धाभिक लोग थे । वस्तुतः धर्म पदार्थ के सम्बन्ध में कुछ भी कहने का हकदार नहीं था । वह उसकी खोज की दिशा ही नहीं थी। विज्ञान उस संघर्ष में विजय हो गया। यह अच्छा हुआ। लेकिन इस विजय से यह न समझा जाय कि धर्म के पास कुछ कहने को नहीं है । धर्म के पास कुछ कहने को है और बहुत मूल्यवान सम्पत्ति है। यदि उस सम्पत्ति से लाभ नहीं उठाया गया तो उसका कारण रुढ़िग्रस्त पुराणपंथी चैज्ञानिक होंगे । एक दिन एक दिशा में धर्म विज्ञान के समक्ष हार गया था, अब समय है कि उसे दूसरी विश्ला में विजय मिले और धर्म और विनान नसम्मलित हों । उनकी संयुक्त साधना ही मनुप्य को उसके स्वयं के हाथों से चचाने में समर्थ हो सकती है । पदार्थ को जान कर जो मिला है, आत्मज्ञान से जो मिलेगा, उसके समक्ष वह कुछ भी नहीं है । धर्मो ने वह सम्भावना बहुत थोड़े लोगों के लिए खोली है। वैज्ञानिक होकर वह द्वार सबके लिए खुल सकेगा । धर्म विज्ञान बने और विज्ञान धर्म बने, इसमें ही मनुष्य का भविप्य और हित है । मानवीय चित्त में अनन्त झक्तियाँ है और जितना उनका विकास हुआ है, “उससे बहुत ज्यादा विकास की प्रसुप्त संभावनाएं हैं। इन शक्तियों की अवस्था :और अराजकता ही हमारे दुख के कारण हैं, और जव व्यक्ति का चित्त अब्य- वस्थित और अराजक होता है तो वह अराजकता समष्टि चित्त तक पहुँचते ही अनन्तगुणा हो जाती है। समाज व्यक्तियों के ग्रुगणणफल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । वह “हमारे अंतर्से वंधों का ही फैलाव है। व्यक्ति ही फैलकर समाज बन पाता है। इसलिए स्मरण रहे कि जो व्यक्ति में घटित होता है, उसका ही वृहत् रूप समाज में प्रतिध्वनित होगा । सारे युद्ध मनुप्य के मन में लड़े गए है और सारी विकृतियों की मूल जड़ मन में ही हैं । समाज को बदलना है तो मनुष्य को बदलना होगा; और समष्टि के नए -आधार रखने हैं, तो व्यक्ति को नया जीवन देना होगा । भनुप्य के भीतर विप और अमृत दोनों हैं । शक्तियों की अराजकत्ता ही श्र विप है और शक्तियों का संयम, सामंजस्य और संगीत ही अमृत है । जीवन जिस विधि से सीन्‍न्दर्थ और संगीत वन जाता है, उसे ही मैं योग कहता हूँ । जो विचार, जो भाव औौर जो कम मेरे अंतः संगीत के विपरीत जाते हों, ही पाप हैं, और जो उसे पैदा और समृद्ध करते हों, उन्हें ही मैंने पुण्य जाना । चित्त की वह अवस्था जहाँ संगीत थून्य हो जाय और सभी स्वर पूर्ण अराजक हों, नर्क है और बह अवस्था स्वर्ग है, जहाँ संगीत पूर्ण हो । भीतर जब संगीत पूर्ण होता है तो ऊपर से पूर्ण का संगीत अवतरित होने लगता है । व्यक्ति जब संगीत हो जाता है, तो समस्त विद्व का संगीत उसकी ओर प्रवाहित होने लगता है । संगीत से भर जाओ तो संगीत आक्षष्ट होता है; विसंगीत विसंगति को आमंत्रित करेगा । हम में जो होता है, वही हम में आने भी लगता है, उसकी ही मंग्राहकता और संवेदनशीलता हम में होती है । उस विज्ञान को हमें निमित करना है, जो व्यक्ति के अंतर्जीवन को स्वास्थ्य और संगीत दे सके । यह किसी और प्रभु के राज्य के लिए नहीं, वरन्‌ इसी जगत्‌ और प्रृथ्बी के लिए है । यह जीवन ठीक हो तो किसी और जीवन की चिता अनावद्यक है | इसके ठीक न होने से ही परलोक की चिता पकड़ती है। जो इस जीवन को सम्यक रूप देने में सफल हो जाता है, वह अनायास ही समस्त भावी जीवनों को सुदृढ़ और शुभ आधार देने में भी समर्थ हो जाता है । वारतबिक धर्म का कोई संबंध परलोक से नहीं है । परलोक तो इस लोक का परिणाम है । वे है धर्मों का परलोक की चिन्ता में होना बहुत घातक और हानिकारक हुआ है। उसके ही कारण हम जीवन को शुभ और सुन्दर नहीं बना सके धर्म 'परलोक के लिए रहे और विज्ञान पदार्थ के लिए--उस भाँति मनुष्य और उसका जीवन उपेक्षित हो गया | परलोक पर थास्त्र भौर दर्णन निर्मित हुए और पदार्थ की शक्तियों पर विजय पाई गई । किन्तु जिस मनुप्य के लिए यह सब हुआ, उसे हम भूल गए। अब मनुप्य को सर्वप्रथम रखना होगा । बिन्ञान और धर्म दोनों का केन्द्र मनुप्य बनना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि विज्ञान पदार्थ का मोह छोटे और धर्म परलोक का । उन दोनों का यह मोहत्याग ही उनके सम्मिलन की भूमि बन सकेगा । विचार के जन्म के लिए : विचारों से मुक्ति विचार-यक्ति के संत्रंध में आप जानना चाहते हैं ? निश्चय ही विचार से अड़ी और कोई द्वाक्ति नहीं | विचार व्यक्तित्व का प्राण है। उसके केन्द्र पर ही जीवन का प्रवाह घूमता है । मनुष्य में वही सब्र प्रकट होता है, जिस के बीज बह विचार की भूमि में वोता है। विचार की सचेतना ही मनुष्य को अन्य पथुओं से पृथक भी करती हैं | लेकिन बह स्मरण रहे कि विचारों से घिरे होने ओर विचार को थक्ति में बढ़ा भेद है । भेद ही नहीं, विरोध भी है । विचारों से जो जितना घिरा होता है, वह विचार करने से उतना ही असमर्थ और अथक्त हो जाता है। विचारों की भीड़ चित्त को अंततः विश्षिप्त करती है। बविक्षिप्तता विचारों की अराजक भीड़ ही तो है । थायद इसीलिए जगत्‌ में जितने विचार बढ़ते जाते हैं, उतनी ही विक्षिप्तता भी अपनी णड़ें जमाती जाती है । विचारों का अच्छादन विचार-भक्ति को ढाँक लेता है और निष्प्राण कर देता है। विचार का सहज स्फ्रण विचारों के बोझ से निःसत्त्व हो जाता हैं। विचारों के बादल बिचार-शक्ति के निर्मेल आकाण को धूमिल कर देते हैं | जैसे वर्षा में आकाण में घिर आए बादलों को ही कोई आकान समझ ले, ऐसी ही भूल विचारों को ही विचार-शक्ति समझने में हो जाती है। फिर भी विचार की क्षमता और विचारों के संग्रह में ऐसी भूल सदा ही होती आई है । मनुप्य के अज्ञान की आधारभूत शिलाओं में से एक भ्राति यह भी है । विचारों का संग्रह विचारणक्ति का प्रमाण नही है। विपरीत विचार- शक्ति के अभाव को ही इस भांति विचारों से भरकर पूरा कर लिया जाता है | प्रसुप्त विचारणा को बिना जगाए ही विचार-संग्रह विचरणा के होने का श्रम देने लगता है। अन्नान में ही ज्ञान की अहं पूर्ति का इससे आसान कोई मार्ग नहीं है । स्वयं में विचार की जितनी रिक्तता भनुभव होती है, उतनी ही विचारों से उसे छिपा लेने की प्रवृत्ति होती है । विचार को जगाना तो बहुत श्रमसाध्य है। किन्तु विचारों को जोड़ लेना बहुत सरल है, क्योंकि विचार तो चारों ओर परिवेश में तैरते ही रहते है । समुद्र के किनारे जैसे सीप, थंथ २५ 5 वन सकता है। में जो वह रहा हूँ वया वह 'दो और दो चार' भी भाँति ही सुस्पष्ट नहीं है ? धन चाहते हैं या कि धनी दीखना चाहते हैं ? ज्ञान चाहते हैं या कि अज्ञानी नहीं दीखता चाहते ? सब 'भाँति संग्रह दूसरों को धोखा देने के उपाय हैं। लेकिन इस भाँति स्वयं को धोखा नहीं दिया जा सकता है। बह सत्य दीखते ही दृष्टि में एक आमूल परिवर्तन गुरू हो जाता है । अज्ञान सत्य है तो उससे भागें नहीं। पलायन से क्‍या होगा ? णास्त्रों, शब्दों और सिद्धान्तों में गरण लेने से क्या होगा ? विचारों के धुएं में स्वयं को छिपा लेने से क्‍या होगा ? उससे तो और घुटन होगी और घवड़ाहट होगी। वह उपचार नहीं, उपचार के नाम पर और वह़े रोगों को निर्मत्रण दे जाना है। अनेक वार ऐसा होता है कि वैद्य बीमारी ने भी ज्यादा घातक सिद्ध होते हैं और औपधियाँ नए रोगों की उत्पति की श्रृंखला बन जाती हैं ! ज्ञान की खोज के नाम पर विचारों के संग्रह में पड़ जाना ऐसी ही औपधि के शिकार होना है । अज्ञान से मुक्ति के लिए शास्त्रों से बेध जाना, स्वतंत्रता के नाम पर और भी गहरी परतंत्रता में पड़ जाना है । सत्य शब्दों में नहीं, स्वयं में है, और उसे पाने के लिए किसी तंत्र से वैधना नहीं, वरन्‌ सर्व तंों से मुक्त होना है। स्वतंबता में--पूर्ण स्वतन्त्रता में ही--सत्य का साक्षात्‌ है । संग्रह परतं्रता है। संग्रह का अर्थ ही है : स्वयं पर अविश्वास और जो स्वयं नहीं है उस पर विश्वास | पर श्रद्धा ही परतत्त्रता लाती है। पर श्रद्धा से जो मुक्त होता है, वह स्वतंत्र हो जाता है । शास्त्र में, शास्ता में, शासन में श्रद्धा परतंत्रता है । शब्द में, सिद्धांत में, संप्रदाय में श्रद्धा परतंत्रता है । इसलिए ही मैं कहता हूँ : पर में श्रद्धा करना परतंत्रता है । और स्व श्रद्धा है: स्वतंत्रता। स्वतंत्रता सत्य में ले जाती है । विचार की शक्ति को जगाना तो विचारों से---उधार और पराए विचारों से--स्वतंत्र होना होगा, फिर वे विचार चाहे किसी के भी हों । उनका पराया होना ही, उनसे मुक्त होने के लिए पर्याप्त कारण है । यह उचित है कि मैं जानूं कि मैं अज्ञानी हूँ और अज्ञान को शीघ्रता से भूलने का कोई ज्ञी उपाय न करूँ। भूलने की दृष्टि ही तो आत्मवंचक है । रद संपत्ति हो या सत्ता था तथाकथित ज्ञान, सभी में स्वयं की दरिद्रता, दीनता और 'अधकारपूर्ण रिक्तता को भूलने की ही तो साधना चलती है। स्वयं की वस्तु- स्थिति के विस्मरण के लिए हम सब कैसे वेचैन रहते हैं ? आत्महीनता से जो भरे हैं, वे पद, अधिकार और शक्ति के लिए पागल रहते हैं। क्‍या आपको जात नहीं कि महत्त्वाकांक्षा आत्महीनता की ही पुत्री है? आत्मदरिद्र जा स्वणमुद्राओं के ढेर इकट॒ठे करने में अपने स्वर्ण-जैसे जीवन को मिट॒दी के माल खा दते हूं । अपंग डोलियों पर पहाड़ चढ़कर दिखाना चाहते हैं कि वे अपंग नहीं है! और लूले-लँगड़े विद्यत्‌ गति से दौड़ते यानीं में वैठकर विश्वास कर लेना चाहते हैं कि वे लूले-लगड नहीं है ! तैमूर ही लंगड़ा नहीं था, सभी तैमूर लंगड़े हैं! अलैकर्जेंडर, हिटलर और शेप सभी विक्षिप्त चित्त व्यक्ति इसी निग्रम की साकार प्रतिमाएँ हैं । जो मृत्यु से जितना भयभीत होता है, चढ़ उतना ही हिसिक हो जाता है, दूसरों को मारकर वह विष्वास कर लेना चाहता है कि मैं मृत्यु के ऊपर हूँ | शोषण है, युद्ध है, क्योंकि विश्षिप्त चित्त व्यक्ति स्वयं से पलायन करने में संलग्न हैं । जीवन नागरिक हो गया है, और समाज मृत, सड़ा हआ दुर्ग'घ देता घरीर हो गया है, क्योंकि हम चित्त की बहुत सी विक्षिप्तताओं को पहचानने में समर्थ नहां हा पा रह हूँ। सत्ता की, संग्रह की, शक्ति की सभी दौोड़ें पागलपन की अवस्थाएं हैं। ये चित्त की बहुत संघातक रुग्णताए हैं । जो व्यक्ति इन दौड़ों में हैँ, वे बीमार हैं और जहाँ उनकी वीमारी है, ठीक उसकी विपरीत दिश्ा में वे अपनी बीमारी से बचने को भागे जा रहे हैं, बिना सोचे कि बीमारी बाहर नहीं है कि उससे भागा जा सके । वह भीतर है। इसलिए उससे कितना ही भागा जाय वह सदा ही साथ है। यह बोध दौड़ने की गति को तेज कर देता है बीमारी साथ है तो और तेजी से भागो | अंततः: भागना एक पागलपन हो जाता है । ओर स्वभाविक ही है, क्योंकि स्वयं से भागना संभव हो तहीं। असंभव को करने के प्रयास से ही पागलपन पैदा हो जाता है। फिर इस अश्ञांति और अति तनाव को भूलने के लिए नगे चाहिए । शरीर के नशे चाहिए और मन के नथे चाहिए; सेक्स और घराब; भजन गौर कीर्तन; प्रार्थना और पूजा । स्वयं को भूलने के लिए धन की, पद की, ज्ञान की दौड़ है । 0 वैट की भलने के लिए कोई और 'गी गहरी सादसाता आवश्यक है ऐसे व्यक्ति धर्म के तिकट भी आत्म विरमरेण के लिए आते है। धर्म भी उन एक मादक द्रव्य से ज्यादा नहीं है। तवाकवित सपूद्ष देशों में धर्म के प्रति बढ़ती उत्मवाता का कोई और कारण नटीं है । घय की दौड़ घोड़ने लगती दे तो धर्म की दौड़ शुरू हो जाती है। लेकिन दौड़ जादी रटती हैं, जबकि प्रध्गे ह528 दीट़ को बदलने का नहीं, ठहरने का है और रबये से मलायन को छोड़ने का दहें। बिचा रक विचारों के सहारे रबय॑ से भागे रहते है। कलाकार कला का सहारे; राजनीतिक सत्ता करैसहारे। घमिक धन के सहाई। त्यागी त्याग के सहारे; भक्त भगवान के सारे । लिकित जीवन-सस्य की केबल बढ़ीं जाने पाता 2, जी रबये से भागता नहीं है। पलायान अर्वान्थ्य है। रबेये से आागना असंारशथ्य है। स्वयं में ठहर जाना रवरव द्ीना £ | में जो कह रहा हैं, उस पर विचार करें । कया संग्रह की विलक्षिणना क्रिसी भी भांति के संग्रह का पलायन रखें से पलायन नहीं है ? विचार का संग्रह सवय॑ के अज्ञान से श्रर्खि मूँ दसे की विधि है। शसलिए विचार भक्ति के तो यक्ष में हूँ लेकिन विचारों के कक्ष में नहीं हूँ क्या धनादय होने से दरिद्रता मिटती है ? तो किए बियारों से अशान के मिट सकता है ? ने तो धन व्यक्तित्व के केख को सप्श करता दै और गे विवार/ दी | संपत्ति--किसी भो भाँति की सम्पत्ति--आत्मा को नहीं छू पाती है। ब्राहर और बाहर ही हो सकती है। लेकिन उससे श्रम रद हो जाता है | कल संब्या ही एक भिखारी मुझे मिला । बढ़ बोला : मैं भिखारी हूँ। उसकी बंखों में दीनता थी, बाणी में दीनता थी | लकित उसकी बाल युवकर सूर्म हंसी” आ गई ओर मैंने उससें कहां : “पागल | क्या कहता है किये दरिद्र है, लिखारी है ? तेरे पास धन नहीं है, कया इसना ही दरिट्र ढ्ीने के लिए काफी है ? में तो उन्हें भी भली भाँति जानता हैं शिनक पास बहुत धन है, लिकित से भी दर्द्रि हैं ! धन से ही तू रवर्य को दरिद्र समझता हो ती भूल है । रही दूसरी ओर गहरी दन्द्रिता की खात । यो सभी दरिद्र & और शिख्रमंगे हें | सत्य को - स्वयं के आर्थतिक सत्य की-जिसने नहीं जाना है, टरिटर है । ब्रह्न जान सै--वर्ब में अंतर्निहित जान मे “जी अपरिजित है, बह अबजान में है # जप ० और स्मरण रहे कि बस्त्रों से--समृद्ध वस्त्रों से--कोई समुद्ध नहीं होता और न ही विचारों से--उधार और पराए त्रिचारों से--कोई ज्ञान को उपलब्ध होता है ! वस्त्र दीनता को ढाँक लेते हैं और विचार अज्ञान को । लेकिन जिनके पास गहरी देखनेत्राली आँखें हैं, उनके समक्ष वस्त्र दीनता के प्रदर्शन बन जाते हैं कौर विचार अन्नान के । आप स्वयं ही देखिए । मैं कहता हूँ, इसलिए मत मान लेना । स्वयं ह्दी * सोचो | जागो और देखो । क्या हम बस्त्रों के मोह में स्वयं को ही नहीं खो रहें हैं ? और कथा विचारों के मोह में सत्य से वंचित नहीं हो गए हैं ? और क्या स्वयं को खोकर कुछ भी पाने योग्य है ? में एक महाराजा का अतिथि था । उनसे मैंते कहा “क्या आपको भी राजा होने का श्रम है?” वे चक्रित हुए और बोले : “भ्रम ? मैं राजा हूँ ।” कितनी दृढ़ता से उन्होंने यह कहा था, और मुझे कितनी दया उन पर आई थी ! पंडितों से मिलता हूँ । उन्हें भी ज्ञानी होने के भ्रम में पाता हूँ । साधुओं से मिलता हूँ । उन्हें भी त्यागी होने के भ्रम में पाता हूँ । विचारों के कारण ज्ञान का आभास होने लगता है । समृद्धि के कारण सम्राट्‌ होने का, धन को छोड़ने के कारण त्यागी होने का । धन से कोई धनी नहीं है तो धन छोड़ने से कोई त्यागी कैसे होगा ? वह तो धनी होने की भ्रांति का ही विस्तार है । संग्रह में सत्य नहीं है और न ही संग्रह के छोड़ देने में । सत्य तो उसके प्रति जागने में है, जो संग्रह और त्याग, परिग्रह और अपरिय्रह--दोनों के पोछे बैठा हुआ है । विचारों के संग्रह में ज्ञान नहीं है और न मात्र विचारों के न होने में ही जान है। ज्ञान तो वहाँ है, जहाँ वह है, जो विचारों का भी साक्षी हैं आर विचारों के अभाव का भी । विचार-संग्रह ज्ञान चहीं, स्मृति है । लेकिन स्मृति के प्रशिक्षण को ही ज्ञान समझा जाता है । विचार स्मृति के कोप में संग्रहित होते जाते हैं | बाहर ने प्रश्नों का संवेदन पाकर वे उत्तेजित हो उत्तर बन जाते हैं भर इसे ही हम विचार करना समझ लेते हैं, जबकि विचार का स्मृति से क्या संबंध ? स्मृति ३१ है अतीत--बीते हुये अनुभवों का मृत संग्रह। उसमें जीवित समस्या का समाधान कहाँ ? जीवन की समस्याएं हैं नित नूतन, और स्मृति से घिरे चित्त के समाधान हैं सदा अतीत । इसलिए ही जीवन उलझन बन जाता हैं, क्योंकि पुराने समाधान नई समस्याओं को हल करने में नितान्त असमर्थ होते हूँ। चित्त चिताओं का आवास बन जाता है, क्योंकि समस्यार एक ओर इकठ॒ठी “होती जाती हैं, और समाधान दूसरी ओर । और उनमें न कोई संगति होती है ओर न कोई संबंध । ऐसा चित्त बूढ़ा हो जाता है और जीवन से उसका संस्पर्ण बिथ्िल | स्वमाविक ही है कि अरीर के बूढ़े होने के पहले ही लोग अपने को चढ़ा पाते हैं और मरने के पहले ही मृत हो जाते है । सत्य की खोज के लिए --जीवन के रहस्य के साक्षात्‌ के लिए--य्रुवा मन चाहिए । ऐसा मन जो क्रभी बूढ़ा न हो | अतीत से बँधते ही मन अपनी हफूर्ति, 'ताजगी और बिचार-थक्ति, सभी कुछ खो देता है। फिर वह मृत में ही जीने लगता है और जीवन के प्रति उसके द्वार बंद हो जाते हैं । चित्त स्मृति से-- स्मृति रूपी तथाकथित ज्ञान से--न बेंधें, तभी उसमें निर्मलता और निष्पक्ष “विचारणा की संभावना वास्तविक बनती है । स्मृति से देखने का अर्थ है : बतीत के माध्यम से बतंमान को देखना । वर्तमान को ऐसे कैसे देखा जा सकता है ? ससम्यक्झूप से देखने के लिए तो आँखें सव भाँति खाली होनी चाहिए। स्मृति से मुक्त होते ही चित्त को सम्यक्‌ दर्शन की क्षमता उपलब्ध होती है और सम्यक्‌ दर्शन सम्पक्‌ जान में ले जाता है। दृष्टि निर्मल हो, निष्पक्ष हो तो स्वयं में अयुष्त ज्ञान की थाक्ति जाग्रत होने लगती है। स्मृति के भार से मुक्त होते ही दृष्टि अतीत से मुक्त हो, वर्तमान में गति करने लगती है, और मृत से मुक्त 'होकर बह जीवन में प्रवेश पा जाती है । जान के लिए ज्ञान का भंडार बनाना आवश्यक नहीं। वैसा दुव्यंवहार अपने साथ कभी मत करना । भूल से स्मृति को कभी ज्ञान मत्त मानना । स्मृति तो एक यांत्रिक प्रक्रिया है । वह विचार के लिए आच्छादन है । भव तो विचारों को स्मरण रखने वाले यंत्र बन गए हैं | उनके आविप्कार ने स्मृति की यांत्रिकता को भलि भाँति सिद्ध कर दिया है । फिर आप से तो भूल-चूक भी होती है, इन यंत्रों से भूल-चूक भी नहीं होती । असल में भूलचूक के लिए वहाँ गुंजाइश ही नहीं। भूल-चूक के लिए भी कुछ अयांत्रितवा आवश्यक है। ज्ञान का “मोजन देते ही थे यंत्र तत्संबंध में सारे उत्तर देने में ज्यादा कुशल और भरोसे २ के ० हल के योग्य हो जाते हैं। क्या उन बंत्रों की नाँति ही हम भी अपनी स्मृति को भोजन नहीं देते खते हैं? और फिर जो हमारे उत्तर हैँ, क्या वे नी इस भोजन की ही प्रतिब्वनियां नहीं हैं ? गीता, कुरान, वाईविल---क््या सभी को हम अपना प्लोजन नहीं दनाए हुए है ? महावीर, बुद्ध, मुहम्मद से लेकर सुबह-मुबह आनेदाले दैनिक अखबार तक क्‍या हमारी स्मृति इसी भोजन के लिए उत्सुक नहीं रहती हैं? क्या कभी आपने इस तथ्य के प्रति आँखें खोली हैं कि इस स्मृति से केवल ट्री आ्षा सकता है जो उसमें डाला गया हो ? इसलिए कहता हूँ कि स्मृति विचार: नहीं है । और जो उसे ही विचार समझ लेते हैं वे बड़ी जड़ता में पड़ जाते हैं । स्मृति की अपनी उपयोगिताएं हैं। उसे नप्ठ करने की मैं नहीं कहता हूँ कहता हूँ यह समझने को कि उसे ही विचार नहीं समझना है। विचार उससे बहुत ही भिन्न आयाम है। विचार है सदा मोलिक । स्मृति हैसदा यांत्रिक। स्मृतिजन्य विचार पुनरुक्ति मात्र है। वह न मौलिक होता है, न जीवन होता है । जान स्मृति से भिन्न है, क्योंकि वह यांत्रिक प्रक्रिया नहीं, सचेतन वोध् है ॥ ज्ञान स्मृति नहीं है । इसलिए, ऐसे यंत्र कमी विकसित नहीं हो सकते हैँ, जिनमें ज्ञान हो। जो काय॑ यांत्रिक है, केबल उसे ही यंत्रों से कराया जा सकता है, और जो यांत्रिक है, उसे ही विचार भान लेने से मनुप्य एक यंत्र-मात्र ही रह जाता है। स्मृति को ही विचार मान लेना, मनुप्य की यांत्रिकता को धोषित करना है प्रज्ञा तो यात्रिक नहीं है किन्तु पांडित्य सदा बांतिक रहा है। इसलिए तबाकथित पंडितों के मस्तिप्क से ज्यादा जड़ और विचारहीन मस्तिप्क खोजन कठिन है | समस्या के पूर्व ही उनके समाधान तैयार रहते हैं । प्रब्न ही उनके उत्तर तब हैं । उन्हें सोचना नहीं, मात्र दृहराना हैँ ऐसे ही जड़ मन्तिप्क सदा से णास्त्रों को दुहराते रहे हैं और झास्त्रों के नाम पर लट॒ते-मरते भी रहे है | इन दुहरानेवाले मस्तिप्क को विचार बिवद्रोह प्रतीत होता है। उनका आत्रह विचार के विरोध में स्देव विव्वास के लिए ६ रहा है । मस्निप्क की यात्रिकता से विचार का तो मेल नहीं बैठता, लिकिन विद्वास से उसकी पटरी सूच बैठ जाती है का अंधे से मिलन सुखद हो तो कोई आश्चर्य नहीं । न स्थृतिके पास आँखें हैं, न विध्वास के पास, इसलिए स्मति- .. ९७ “निर्भर ब्रिचारणा विश्वास का सहारा माँगती है, और विश्वास स्मृति-निर्मर 'पुनमृक्ति से परिपुष्ट होता है । आज की ही बात है । युवह-सुबह ही ऐसे एक ज्ञानी ने दर्शन दिए । गीता उन्हें कंठस्थ है । चालीस बपों से गीता का पाठ करते हैँ । अब सेवा से निवृत्त हुए हैं तो अहनिश गीता का पारायण बल रहा है। उनकी बात-बात में गीता आ जाती है। चित्त को उसके भब्दों से खुद भर लिया है| प्रसंग हो या नहीं, उन शब्दों को डृहराते रहते हैं । बहुत अश्यांत हैँ । कलहप्रिय हैं। जहां बैठते हैं बहीं विवाद कर बैठते हैं । लोग उनके ज्ञान से भय खाते हैं | उनके उपदेणों से बचते हैं । उनके हाथों में पड़ जाते हैं तो तिकल जाते हैं । उन्हें कृष्ण के वचन समझ में आते हैं, लेकिन लोगों का उनके ज्ञान के प्रति जो भय है, वह दिखाई नहीं देता । स्वयं “की अ्रांति के कारण भी दिखाई नहीं देते । - यद्यपि जगत्‌ में कैसे भांति होगी, इसके लिए रामबाण नुस्त्रे वे उँगलियोाँ पर बता देते हैं । यह है शास्त्रों को पराए विचारों की दुह्राने वाले चित्त की जड़ता। ऐसे स्वयं की तो कोई समस्या हल नहीं होती है, और फिर जब अज्ञांत चिस ब्यक्ति शास्त्रों को पकड़ लेते हैं तो थास्त्र भी संघर्ष, संगठन और हिसा के कारण बन जाते हूं । क्या यह संभव है कि बुद्ध और क्राइस्ट, महावीर और जरथुस्त्र के शब्द मनुष्य को मनुप्य से तोड़नेवाले बनें ? क्या वे हिंसा और व॑मनस्य के आधार हो सकते हूँ ? लेकिन चित्त की जड़ता उन्हें भी शोपण और संघर्ष, हिसा और युद्ध में परिणत कर लेती है । धर्मो का इतिहास मनुष्य के मन की जड़ता के अतिरिक्त और किस वात की गवाही देता है ? शास्त्रीय मप्तिप्क को मैं जड़ मस्तिष्क कह रहा हूँ ? क्‍यों ? क्योंकि जीवन की समस्याएँ नित्य वदल जाती हैं, लेकिन उसके समाधान नहीं बदलते । दुनिया 'मात्र्स पर आ जावे तो भी वह मनु पर ही वठा रहता है । फिर दुनिया माकस से जागे निकल जाती है लेकिन वह मार्क्स को ही पकड़कर बैठ जाता है । वाईविल छोड़ता है तो कैपिटल पकड़ लेता है, लेकिन बिना थास्त्र को पकड़े उसकी गति नहीं । जीवन को समझना उसे मूल्यवान नहीं मालूम होता । उस्ते तो सिद्धान्तों १. केपिट्ल--माक्स का लिखा छुआ साग्यवाद-सिद्धांत का प्रध:न श्रोत्संव ० ३४ -और दाद्दों से प्रेम होता है। यह भी इसलिए कि जीवन को समझने के लिए “विचार चाहिए जबकि शास्त्र को पकड़ने में विचार की कोई आवश्यकता नहीं। स्मृति को किसी भी चीज से भर लेना वड़ी सरल वात है किन्तु वह प्रौढ़ वृद्धि का लक्षण नहीं । प्रीढ़ता का लक्षण हैं: विचार, समस्याओं को देखने की ख्मता । शास्त्रीय बुद्धि को समस्याएँ दिखाई ही नहीं देतीं । समस्याएँ तो उन खूँटियों की भाँति होती हैं, जिन पर अपने बंँधे-तंधाए, रटे-रटाए सिद्धान्तों को ॉँगने में उसे मजा आता है। शास््रीय बुद्धि समस्या के अनुकूल समाधान नहीं, वरन्‌ अपने पूर्वनिर्धारित समाधान के अनुकूल ही समस्या को देखती है और यह न देखने से भी बदतर है। क्योंकि इस भाँति थोपे गए समाधान पुरानी समस्याओं को तो मिटाते नहीं, उल्टे और नई समस्याए खड़ी कर देते हैं । अप्रीढ़ दृष्टि उस पागल दर्जी,की ही भाँति होती है, जो बने-बदाए: कपड़ें को खींचता है और जव वे किसी के शरीर पर ठीक नहीं आते हैं तो उससे कहता है कि निदच्य ही आपके झरीर में ही कहीं कोई भूल है । पागल दर्जी के कपड़ों में कोई :मूल, कैसे हो सकती है ? पंडितों के श्ञास्त्रों में भी कोई भूल कैसे हो सकती है ? भूल है तो जरूर जीवन में है। शास्त्रों में नहीं, वबदलाहट करनी है तो जीवन में करनी है । इस जड्तापूर्ण चित्त-दशा के कारण जीवन व्यर्थ ही उलझ्ता गया है। हजारों साल के थास्त्रों और परंपराओं के बोझ के कारण हम कुछ भी हल करने में क्रमश: असमर्थ होते गए हैँ । परंपराओं ने--म्ृत परंपराओं ने--- हमारे मन को सब ओर से घेरकर बिलकुल ही पंगु कर दिया है। किसी भी समस्या का जीवन्त हुल खोजना तो दूर, उस समस्प्रा को उसके मूल और नग्न रूप में देखना ही करीच-करीव असंभव हो गया है। जीवन उलअत्ता जाता है और हम तोतों की भाँति रट हुए सूत्र दोहराते जा रहे हैं । क्या उचित नहीं है कि मनृप्य का मन मुर्दा समाधानों से मुक्त हो ? क्‍या उचित नहीं है कि हम सदा अतीत की ओर देखने की दृष्टि से सावधान हों ? और क्‍या उचित नहीं है कि हम स्मृति से ऊपर उठकर विचार को जथक्ति को पज्जगावें ? विचार-भक्ति के जागरण के लिए विचारों का भार कम से कम होना आवबद्यक है| स्मृति बोझ नहीं होनी चाहिए। जीवन जो समस्याए' खड़ी ३५ “निर्भर विचारणा विश्वास का सहारा माँगती है, और विश्वास स्मृति-निर्भर “पुनरुक्ति से परिपुष्ठ होता है। आज की ही वात है । सुबह-सुवह ही ऐसे एक ज्ञानी ने दर्शन दिए । गीता उन्हें कंठस्थ है । चालीस बपों से गीता का पाठ करते हैँ ।॥ अब सेवा से निवृत्त हुए हैँ तो अहनिश गीता का पारायण चल रहा है। उनकी बात-बात मे गीता आ जाती है । चित्त को उसके शब्दों से खुद भर लिया है। प्रसंग हो या नहीं, उन शब्दों को दृहराते रहते हैं । बहुत भथ्यांत हैं। कलहप्रिय हैं। जहाँ बैठते हैँ वहीं विवाद कर बैठते हैं । -लोग उनके ज्ञान से भय खाते हैं । उनके उपदेशों से बचते हैँ। उनके हाथों में पड़ जाते हैं तो निकल जाते हैं । उन्हें कृष्ण के बचन समझ में आते हैं, लेकिन लोगों का उनके ज्ञान के प्रति जो भय है, वह दिखाई नहीं देता । स्वयं की अग्रांति के कारण भी दिखाई नहीं देते । यद्यपि जगत्‌ में कैसे शांति होगी, इसके लिए रामवाण नुस्खे वे उंगलियों पर वता देते हैं | यह है थ्रामत्रों को पराए विचारों की दृहराने वाले चित्त की जड़ता | ऐसे स्त्र्य की तो कोई समस्या हल नहीं होती है, और फिर जब अशांत चित्त व्यक्ति शास्त्रों को पकड़ लेते हैं तो शास्त्र भी संघर्ष, संगठन और हिसा के कारण बन जाते हैं । कया यह संभव है कि बुद्ध और ऋाइस्ट, महावीर और जरथुस्त्र के शब्द मनुष्य को मनुप्य से तोड़नेवाल बनें ? क्या वे हिसा और वैमनस्य के आधार हो सकते हैं ? लेकिन चित्त की जड़ता उन्हें भी शोपण और संघर्ष, द्विता और युद्ध में 'परिणत कर लेती है । धर्मों का इतिहास मनुप्य के मन की जड़ता के अतिरिक्त और किस वात की गवाही देता है ? शास्त्रीय मप्तिष्क को मैं जड़ मस्तिष्क कह रहा हूँ ? क्‍यों ? क्योंकि जीवन की समस्याएँ नित्य बदल जाती हैं, लेकिन उसके समाधान नहीं बदलते । दुनिया मावर्स पर आ जाबे तो भी वह मनु पर ही बैठा रहता है । फिर दुनिया मार्क्स से आगे तिकल जाती है लेकिन वह मार्क्स को ही पकड़कर बैठ जाता है । वाईविल छोड़ता है तो कैपिटल पकड़ लेता है, लेकिन बिना शास्त्र को पकड़े उसकी गति नहीं । जीवन को समझना उ्ते मूल्यवान नहीं मालूम होता । उस्ते तो सिद्धान्तों १- कपिव्ल--मात्र्स का लिखा हुआ साग्यवाद-सिद्धांत का प्रध:न ओत्ंब इ४ ःऔर दाब्दों से प्रेम होता है। यह भी इसलिए कि जीवन को समझने के लिए विचार चाहिए जबकि झ्ञास्त्र को पकड़ने में विचार की कोई आवश्यकता नहीं । स्मृति को किसी भी चीज से भर लेना बड़ी सरल बात है किन्तु वह प्रौढ़ वृद्धि का लक्षण नहीं। प्रौढ़ता का लक्षण हैं : विचार, समस्याओं को देखने की क्षमता । शास्त्रीय बुद्धि को समस्याएं दिखाई ही नहीं देतीं । समस्याएँ तो उन खूंटियों की भाँति होती हैं, जिन पर अपने बँधे-बंधाए, रठे-रटाए सिद्धान्तों को टाँगने में उसे मजा आता है। शास्त्रीय बुद्धि समस्या के अनुकूल समाधान नहीं, वरन्‌ अपने पूर्व॑निर्धारित समाधान के अनुकूल ही समस्या को देखती है और यह न देखने से भी बदतर है। क्योंकि इस भाँति थ्ोपे गए समाधान पुरानी समस्याओं को तो मिटाते नहीं, 'उल्टे और नई समस्याए'" खड़ी कर देते हैं । अप्रौढ़ दृष्टि उस पागल दर्जी,की ही भाँति होती है, जो बने-बदाए कपड़े को खींचता है और जब वे किसी के शरीर पर ठीक नहीं आते हैं तो उरासे कहता है कि निदचय ही आपके शरीर में ही कहीं कोई भूल है । पागल दर्जी के 'कपड़ों में कोई :भूल, कैसे हो सकती है ? पंडितों के शास्त्रों में भी कोई भूल कैसे हो सकती है ? भूल है तो जरूर जीवन में है। शास्त्रों में नहीं, बदलाहट 'करनी है तो जीवन में करनी है । इस जड़तापूर्ण चित्त-दशा के कारण जीवन व्यर्थ ही उलझता गया है । हजारों साल के शास्त्रों और परंपराओं के बोझ के कारण हम कुछ भी हल करने में क्रशः असमर्थ होते गए हैं। परंपराओं ने--भ्ृत परंपराओं ने--- 'हमारे मन को सब ओर से घेरकर बिलकुल ही पंग्रु कर दिया है। किसी भी 'समस्या का जीवन्त हल खोजना तो दूर, उस समस्प्रा को उसके मूल और नग्न 'रूप में देखना ही करीब-करीब असंभव हो गया है। जीवन उलझता जाता है और हम तोततों की भांति रटे हुए सूत्र दोहराते जा रहे है । क्या उचित नहीं है कि मनुष्य का मन सुर्दा समाधानों से मुक्त हो ? क्‍या उचित नहीं है कि हम सदा अतीत की ओर देखने की दृष्टि रो सावधान हों ? और क्या उचित नहीं है कि हम स्मृति से ऊपर उठकर विचार की शक्ति को जगावें ? विचार-शक्ति के जागरण के लिए बिचारों फा भार कम से कम होना आवश्यक है | स्मृति बोस नहीं होनी चाहिए। जीवन जो समस्याएं यद्डी ३५ करे, उन्हें स्मृति के माध्मम से नहीं, सीधे और वर्तमान में देखना चाहिए + शास्त्रों में देखने की वृत्ति छोड़नी चाहिए । जीवन भर स्वयं के बीच श्षास्त्रों को लाना अनावश्यक ही नहीं, घातक भी है। स्वयं का संगर्क समस्या से जितना सीधा होता है, उतना ही ज्यादा हम उस समस्या को समझने में समर्य हो जाते हैं ओर वह्‌ समझ ही अंततः उस समस्या का समाधान बनती है । समस्या के समाधान के लिए समस्या को उसकी समग्रता में जानना और जीना पड़ता है । फिर चाहे वह समस्या किसी भी तल पर क्यों न हो । उसके विरोध में कोई सिद्धान्त खड़ा कर के कभी भी कोई सुलझाव नहीं लाया जा सकता, वल्कि व्यक्ति और भी इन्द्र में पड़ता हे। वस्तुतः समस्या में ही समाधान भी छिपा होता है । यदि हम शांत भौर निष्पक्ष मन से समस्या में खोजेंगे तो अवश्य ही उसे पा सकते हैं । विचार-शक्ति पराए विचारों से मुक्त होते ही जागने लगती है। जब तक पराए विचारों से काम चलाने की वृत्ति होती है तव तक स्वयं की शक्ति के जागरण का कोई हेतु ही नहीं होता । विचारों की वैश्ञाखियाँ छोड़ते ही स्वय॑ के पैरों से चलने के अतिरिक्त और कोई विकल्प न होने से मृत पड़े पैरों में भनायास ही रकतत-संचार होने लगता है। फिर चलने से ही चलना आता है। विचारों से मुक्त हों और देखें । क्या देखेंगे ? देखेंगे कि स्वयं की अंतः सत्ता से कोई नई ही शक्ति जाग रही है । किसी अभिनव और अपरिचित ऊर्जा का आविर्भाव हो रहा है। जैसे चक्षहीन को अनायास ही चक्षु मिल गए हों, ऐसा ही लगेगा, या जैसे अंधेरे गृह में अचानक ही दीया जल गया हो, ऐसा लगेगा। विचार की शक्ति जागती है तो अंतहं दय आलोक से भर जाता है । विचार-शक्ति का उद्मव होता है, तो जीवन में आँखें मिल जाती हैं। और जहाँ आलोक है, वहाँ आनन्द है और जहां आँख है, वहाँ मार्ग निप्कंटक है। जो जीवन अविचार में दुख हो जाता है वही जीवन विचार के आलोक में संगीत बन जाता है । रद जीयें और जानें मैं मनुप्य को जड़ता में डूबा हुआ देखता हूँ। उसका जीवन बिलकुल यांत्रिक बन गया है। ग्रुरजिस्फ ने ठीक ही उसके लिए मानव यंत्र का प्रयोग किया है । हम जो भी कर रहे हैं, वह कर नहीं रहे हैं, हमसे हो रहा है। हमारे कर्म सचेतन और सजग नहीं हैं | वे कर्म न होकर केवल प्रतिक्रियाएं हैं। भनुप्य से प्रेम होता है, कोध होता है, वासनाएँ प्रवाहित होती हैं। पर थे सब उसके कर्म नहीं हैं, अचेतन और यांत्रिक प्रवाह हैं। वह इन्हें करता नहीं है, थे उससे होते हैं। बह इनका कर्चा नहीं है, वरन्‌ उसके द्वारा किया जाना है । इस स्थिति में मनृप्य केवल एक अवसर है, जिसके द्वारा प्रकृति अपने कार्य करती है । बहू केवल एक उपकरण मात्र है। उसकी अपनी कोई सत्ता, अपना कोई होना नहीं है । वह सचेतन जीवन नहीं, केवल अचेतन यांत्रिकता है यह यांत्रिक जीवन मृत्यु-तुल्य है । जड़ता और यांत्रिकता से ऊपर उठने से ही वास्तविक जीवन प्रारंभ होता है । एक युवक कल मिलने आए थे । वे पूछते थ्रे कि जीवन का किस दिया में उपयोग करूँ कि बाद में पछताना न पड़े । मैंने कहा : “जीवन का एक ही उप- योग है कि वास्तविक जीवन प्राप्त हो । अभी आप जिसे जीवन जान रहे हैं, वह जीवन नहीं है ।” ह जिसे अभी जीवन मिला नहीं, उसके सामने उपयोग का प्रश्न ही नहीं उठता। सत्य-जीवत की उपलब्धि न होना ही जीवन का दुरुपयोग है । उसकी उपलब्धि ही सदुपयोग है । उसका अभाव ही पछताना है । उसका होना ही आनन्द है । जो रवय॑ ही अस्तित्व में न हो, वह कर भी क्या सकता है? जिसकी सत्ता अभी प्रसुप्त है, उससे हो भी क्या सकता है ? ह जो सोया हुआ है, उसमें एकता नहीं, अनेकता है । महावीर ने कहा है: ३७ “ग्रह मनुष्य वहुचित्तवान है ।” सच ही हममें एक व्यक्ति नहीं, अनेक व्यक्तियों का आवास है। हम व्यक्ति नहीं, एक भीड़ है । और, भीड़ तो कुछ भी निश्चय नहीं कर सकती । क्योंकि बह निर्णय और संकल्प नहीं कर सकती । इसके पूर्व हम कुछ कर सकें, हमारी सत्ता का जागरण, हमारी आत्मा, हमारे व्यक्ति का होथ में आना आवध्यक है। व्यक्तियों की अराजक भीड़ की जगह व्यक्ति द्वो, वहुचित्तता की जगह चैतन्य हो, तो हममें प्रतिकर्म की जगह कर्म का जन्म हो सकता है। जुंग ने टसे ही व्यक्ति-केद्र-ठपलव्धि कहा है । सजग व्यक्ति के अभाव में जीवन के समस्त प्रयास व्यर्थ हो जाते है, वयोंकि न तो उनमें एकसूत्रता होती है और न एक दिया होती है, उल्टे वे स्व-विरोधी होते हैं । जो एक निर्मित करता है, उसे दूसरा नप्ट कर देता है । वह स्थिति री है जैसे किसी ने एक ही बैलगाड़ी में चारों ओर बैल जोत लिये हों और चालक सोया है, फिर भी कहीं पहुँचने की आया करता है । मनुप्य का साधा- “रण जीवन ऐसा ही है। उसमें लगता है कि गति हो रही है, लेकिन कोई गति नहीं होती। सब प्रग्मास निद्धित है और इसलिए थक्ति के अपव्यय से अधिक कुछ हीं है । मनुप्य कहीं पहुँच तो नहीं पाता पर केवल झक्ति-रिक्‍्त होते जाता है, और जिमे जीवन समझा था वह केवल एक क्रमिक और धीमा आत्मघात सिद्ध द्वोता है । शत 2 /2 जिस दिन जन्म होता है, उस दिन ही मृत्यु प्रारम्भ हो जाती है। वह आकस्मिक नहीं आती है । वह जन्म का ही विकास है। जो वास्तविक जीवन की प्राप्ति में नहीं लगे हैं, उन्हें जानना चाहिए कि बे केवल मर रहे हैं। जिन्होंने सत्य-जीवन की ओर अपने को गतिवान नहीं किया है, मृत्यु के अतिरिक्त उनका भविष्य और क्या हो सकता है । जीवन के दो अंत हो सकते हैं : जीवन या मृत्यु । या तो हम और वृहत्तर तथा विराट जीवन में पहुँच सकते हे या समाप्त हो सकते हैं । स्मरण रहे कि जो अंत हो सकता है, वह आरम्भ से ही मौजूद होता है। आरम्भ में जो नहीं है, बह अंत में भी नहीं हो सकता। आंत प्रकट हाकर बही है, जो कि प्रकट होकर आरम्भ था। और, तब यदि जीबन के दो अन्त हो सकते है, तो उसमें निश्चय ही प्रारम्भ से ही दो दिशाएँ और सम्भावनाएँ वर्तमान होती चाहिए ।, उसमें ३८ जीवन और मृत्यु दोनों सबन्निहित हैं । जड़ता मृत्यु का बीज है। चैतन्य जीवन "का मनुष्य इनका दंत है । मनुष्य जीवन भौर मृत्यु का मिलन है। मनुष्य चेतना और जड़ता का 'संगम है । मनुष्य यंत्र भी है, पर उसमें कुछ ऐसा है, जो यंत्र नहीं है। उसमें अयांन्रिकता भी है। वह तत्त्व जो जड़ता और यांचिकता को समझ पाता है, और उसके प्रति सजग और जागरूक हो पाता है वही तत्त्व उसकी अयांतजिकता है । इस अयांतन्रिक दिशा को पकड़ कर ही जीवन तक पहुँचा जाता है। मैं जो अपने में चेतना पा रहा हूँ, यह वोध पा रहा हूँ कि 'मैं हूँ', यह बोधकिरण ही मुझे सत्ता में ले जाने का मार्ग बत सकती है। साधारणतः यह किरण बहुत धूमिल और अस्पप्ट है। पर वह अवध्य है और उसका होना ही महत्त्वपूर्ण है। अँधेरे में वह धूमिल किरण ही प्रकाश तक पहुँच सकने की क्षमता की यूचना और संकेत है । उसका होना ही निकट ही प्रकाश-स्रोत के होने का सुसमाचार है। मैं तो एक किरण के होने से ही सूरज के होने के विश्वास से भर जाता हूँ । उसे जानकर ही क्‍या सूरज को नहीं जान लिया जाता ? मनुप्य में जो बोधकिरण है वह उसके वुद्धत्व का इंगित है । मनुष्य में जो होश का मेदा-सा आभास है, वह उसकी सबसे बड़ी संभावना “है, वहु उसकी सबसे बड़ी संपत्ति है। उससे बहुमूल्य उसमें कुछ भी नहीं है। उसके आधार पर चलकर वह स्वयं तक और सत्ता तक पहुँच सकता है। वह जीवन, बृहत्तर जीवन और ब्रह्म की दिशा है । जो उस पर नहीं हैं, वे उसके विपरीत हैं, क्योंकि तीसरी कोई दिशा ही नहीं है। उस पर या उसके विपरीत दो ही विकल्प हैं। अभी जो आभास है, उसे या तो विनाश की ओर ले जाया जा सकता है या विकास की ओर। या 'तो बोध से वोधि में जाया जा सकता है या फिर और मूर्च्छा में । सामान्य जीवन का यांतिक वृत्त अपने आप सम्बोध के प्रकाश-शिखरों पर नहीं ले जाता । यह शाश्वत नियम है कि कुछ न करें तो नीचे आना अपने आप हो जाता है, लेकिन ऊपर जाना अपने आप नहीं होता । पतन न कुछ करने से ही हो जाता है, लेकिन उन्नयन नहीं होता । जड़ता अपने आप आ प्जाती है, जीवन अपने आप नहीं आता । मृत्यु बिना बुलाए आ जाती है, पर ३९ शिक्षा का लक्ष्य मैं आपकी आँखों में देखता हूँ और उनमें घिरे विषाद और निराशा को देखकर मेरा हृदय रोबे लगता है। मनुष्य ने स्वयं अपने साथ यह क्या कर लिया है ? वह कया होने की क्षमता लेकर पैदा होता है और क्या होकर समाप्त हो जाता है! जिसकी अन्तरात्मा दिव्यता की उंचाइयाँ छती, उसे पशुता की घाटियों में भटकते देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी फूलों के पौधे में फूल न लगकर पत्थर लग गए हों और जैसे किसी दीए से प्रकाश की जगह अंधकार निकलता हो | ऐसा ही हुआ है मनुष्य के साथ । इसके कारण ही हम उस सात्विक प्रफुल्लता का अनुभव नहीं करते हैं जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, और हमारे प्राण तमस के भार से भारी हो गए हैं । मनुष्य का विषाद, वह जो हो सकता है, उस विकास के अभाव का परिणाम है । शिक्षा मानवात्मा में जो अन्तनिहित है उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम और उपाय है। कभी सुकरात ने कहा था : “मैं एक दाई की भाँति हूँ । जो तुममें अप्रकट है, मैं उसे प्रकट कर दूँगा।” यह वचन शिक्षा की भी परिभाषा है । लेकिन मनुष्य में शुभ और अशुभ दोनों ही छिपे हैं। विष और अमृत दोनों ही उसके भीतर हैं ॥ पश्ुु और परमात्मा दोनों का ही उसके अंदर वास है। यही उसकी स्वतंत्रता और मौलिक गरिमा भी है। वह अपने होने को चुनने में स्वतंत्र है । इसलिए सम्यक_ शिक्षा वह है जो उसे प्रभु होने की ओर मार्ग-दर्शन दे सके । यह भी स्मरणीय है कि मनुष्य यदि अपने साथ कुछ भी न करे तो वह सहज ही पशु से भी पतित हो जाता है। पशु को चुनना हो तो स्वयं को जैसा . जन्म से पाया है, वैसा ही छोड़ देना पर्याप्त है। उसके लिए कुछ और विशेष ४१ करने को आवध्यक्रता नहों है।. वह उपलब्धि सहज और सुगम &ै। सोचे उतरना हमेशा ही सुगम होता हूं किलु ऊार उठता श्रम शोर साथना है। वह अध्यवसाय ओर पुरुषाव है। बढ संभावना, सेकल्य छोर सतत चस्ला स हा कली मत है। ऊयार उद्धनो एक कला है। हवन वय सब्रस बड़ा केला बढ़ा हू । मल हश् कल प्रम होते की इस कला को सिखाना शिक्षा का लेब्य है । 82 रू क्ाजीविका उन चजरकल: पड बते+ अथ नहीं रयाती धआईीबिका का सन्य है। आजीविका अपने आय में नो काट अब नहा ह। पर साधन ही, अज्ानत्रण अनेक बार, साध्य बत जाते हू । ऐसा ही शिक्षा कि नी [ 2:20 न्‍्ज प्ाओ 2» ५७: क्र और > क्षेः डल क्या में कहों छि आज की शिक्षा को टस भूल के अतिरिक्त और कोड भू दर रद >> मी आर भर # हि... कथा, नहों है ? देकिन यह भूल बड़त बड़ी है । यह भूल बसा हो हूं, झस काई हमारी शिक्षा अमी ऐसा ही झदीर है, जिसमें प्राण नहीं है, वयोंकि मात्र मर > आजीबिा ही नहीं, जीवन को भी होगी, जब वह आजी बिका ही नहों, जीवन का भा यदि स्व्॒व॑ की ही सत्ता से अपरिचित हे, तो 45 । बढ जानना बच्तुत: जानता नहीं है । ऐसे आन का क्या मूल्य जिसके केन्द्र पर हो, तो सारे जगत में भरे प्रकाश का भी हम ज्ञान का पहला चदण स्व-जान की ही दिया में उदना चाहिए बयोंकि जान और, व्यक्ति किस माता में स्व-जान को जानने लगता है, उसी मात्रा में पु विसजित होता है, ओर प्रभु की ओर उसके प्राण प्रभावित होते हैं । बात्म-नान की पृर्णता ही उसे परमात्मा में प्रतिप्दा देती और, वही प्रतिप्ठा आनन्द और अमृत है । प्राकर पका बुक ७ हद ही यावकता और हि र्‌ कृतार्थता है। मनुप्य उस परम विकास'ओर पूर्णता के बीज ही अपने में लि हुए है। जब तक वे वीज विकास को न पा लें, तव तक एक वेचैनी और प्यास उ्सेः पीड़ित करेगी ही । जैसे हम भूमि में कोई वीज वोते हैं, तो जब तक वे अंकुरित होकर सूर्य के प्रकाश को नहीं पा लेते हैं, तव तक उनके प्राण गहन प्रसव-पीड़ा से गुजरते हैं, वैसे ही मनुप्य भी भूमि के अंधकार में ढवा हुआ एक वीज है, और जब तक वह भी प्रकाश को उपलब्ध न हो पावे, तव तक उसे भी शांति नहीं है। और यह थबांति थुभ ही है, क्योंकि इससे गुजर कर ही वह शांति के लोक में प्रवेश पायगा । शिक्षा की यह अबगांति तीब्र करनी चाहिए, और श्ञांति का मार्ग और विज्ञान देना चाहिए तभी वह पूर्ण होगी और एक नए मनुप्य का और नई मानवता का जन्म होगा। हमारा सारा भविष्य इसी वात पर निर्भर है । शिक्षा के हाथ में ही मनुप्य का भाग्य है। मनुप्य को यदि मनुप्य के ही हाथों बचाना है तो मनुप्य का पुन्निर्माण अत्यन्त आवश्यक है। अन्यथा मनुप्य कः पद्मु तो मनुप्य को ही विनप्ट कर देगा । मनुष्य की प्रभु में प्रतिष्ठा हो एक- मात्र बचाव है । धिकार + 8. जावन-सपदा का श्र ्भ मम पु टटृ गा 5 हि आम ७ ॥ छह + का 4 *+ है का कु व *-7४ | फ पे: प़ पफ। पं ४ आए जप वध टि | ही गज हछ हि. आप एछि भाए पैड का है (८ ज-, 5 ए ५४ भैंठ | 6 भ८७ ६ अप ए ७४ ड्ि हि पर ह ह. 65 [६ [ह॥त छः _ +# >+ मि वगा ० फि की, ॥ 55 223 वैर ४ प्रा | (ए गैए हद * आहट, क्न्टि भा ५ (षि हि #णू / 75 (७ |ह 0 कमला लि कि एिक टिक 77. ०2 गा मत 2 ५ ्ि प्र ट्ि ९ बाण ० * ठिवरएि ता (9 हूं 9 पा ग्ि नए एए 00 82 लय झा हि र्टिफ नी 4५ भाए ॥ केए७ है -+ गए छठ » पै+ ए (७ ०८ ॥02 हु ॥ : ॥ए (9 २५: पा पेपर 224 प न. नर +० ता हर तक 00 (5 बा छ %? 00 हि । धिफ पन हे श पि प्रजा पैर 24 रु 0 वा? िः प्र + ध्तु 0. ७४ गिर बंछ ० 0 पक न कर पद ० पट हा ७ छि हु री +< ८ ि रप्दि ५ ० ४४८ [एफ [ट, प्ि तंए. हे तछ हे ५ हि हि एफ हे जाए पूछ है ॥ज पे 0 ४ ।> ० ७० 5 (0३ ५ पए ५. पैंट ९ | ि श्ि पड अं [ छा +। ++ पाए गा 3 # आए * अंक) | हम कक | पा श ड जय कि ि ४6 पा 09 हि हा ।6 ७ दि प0 नाओं की (> | का 8 ७ गीग ० फेर पं [९ | बाण एड 2 हि जि न+ए भाए | न ४, ० प्र ५७ च् प्‌ ७४५ पु गौ! वि मे रु । प्र पा ि ५ पक ++ दा टट ४ हड व ९ भेंट ७ ८ है हे 5 डा न हक हा - गा 0.5 #& ॥7 6 5 न भा । कक. ए 7 (5० कि वह एज - पर ह आग तन हि ये की ।छ क है हे ओएए “0 कल कल हि कम एि ५7 भर एिा. गीए छत के टू हि ॥ह | के ही आए हि हि मे ध् 9१ ए (0० ६- छः (_ श् बट ॥ा 0 (- & पक ले | प्‌ | >्क यह ॥ 0० लो ँ $' कम (3 | 37 ध् न 0५ * 7 है लि । ल्ट आर गा हि ४ 7 .- 0 5 ६ हे 9. ६57 हे एि बए! ॥७४ कि | गहि, भाणए हि हु ॥७ [0 है 0 हि 5 5: ४ एि हज हर आए [तो भा पं प्री एम | ५ णे [- कफ पड़ - ््ि ॥ 9 के कफ 6 न, मे हि | हि कर “- ऐए-+-. छत थ:, फि 0७) ५ हज 2 - बाएं पृत कण # +ए ७८ [0७ ० आए 47. हक ही कण की (टी. के कै कि ट 5. ।] पूजा प्‌ एछि पी० फकूण कि & ३ 5५, जि (7 [४४ ०४८: 0 /॥-/ ०. ७० पी७ फृए 9ि. न्‍ि जो० के के हि हि पु हि ट, प्ि सबमें | एक व सच तट झडच दिखाई देते |] एक बात द्व हक कि 5 कि बन प्ता 5 नर्हीं ० (६ है ५) | ॥ * ८)| जि[* /0)| | भा] | या ५] रा, कक | है ' हि ह श्र] 22 श्र 3 ०; 9 ->+े ऐसी दर अति ० >> 5 क्या के । क्या ऐसी ही स्थिति आपकी है ? क्या आप भी अपने भीतर घवबड़ा देने- चाली बटन का्‌ नहीं करते हैं? क्‍या आपकी वर्दन को भी चिन्ताएं डे कीजा वतन का अचुमव नहां करत हूं : क्या आपका बदन का भा चिन्ताए न्मंहीं े तीज | >> क्ष्या आपके डाड्सः जे ॥त5 है प्रवेश नहीं नस, पट्टा दवा रहा हूं आर कया आपक रक्त म भा उनका दिय प्रवश नहां कर जया 3] है चया हू : अर्थह्ीनता "डर पटयनएत.गटफनन- किए हुए न ् नस अक अन अप 2५ और सुलबनन+ अमर ४: अवद्दातता वर किए हुए हैं । ऊबव स सब दव हूं जार टूट रह हूँ । क्या करा जी तार >> 7 >>-++ आप इससे ने आप और >> - यह /4। जज जे यहां जीवन है ? क्या आप इससे ही तृप्त और संतुप्ट हैं ? बदि यही जीवन है > फिर मत्य होगी ब्् मित्र असजकर जीवन दम नहीं ५ जनक [5 ५ तो फिर मृत्यु क्या होगी ? मित्र, यह जीवन नहीं है । वस्तुतः यही मृत्यु है । व जीवन से सब परिचित नहीं हैं। जीवन सर्वथा भिन्न अनुभव है। जानक $ डी यह मैं कह रहा हैँ । कभी इस तथाकथित जीवन को ही जीवन मानने की भूल मैंने भी की थी | वह भूल स्वाभाविक है । जब और किसी भाँति के जीवन को व्यक्ति जानता ही नहीं, तो जो उपलब्ध होता है, उसे ही जीवन मान लेता है । यह मानना भी सचेतन नहीं होता । सचेतन होते ही तो मानना कठिन हो जाता है। वस्तुतः अविचार में ही, अवोध में ही, वैसी भूल होती है । स्वयं के प्रति थोड़ा-सा भी विचार उस भूल को तोड़ देता है । जों उपलब्ध है, स्वीकार नहीं, विचार करें | स्वीकार अचेतन है। वह अंधविश्वास है । विचार सचेतन है । उसके द्वारा ही भ्रम-भंग होना प्रारंभ होता है ६: विचार विश्वास से बिलकुल विरोधी घटना है। विश्वास अचेतन है। उससे जो चलता है वह मात्र जीता ही है, जीवन को उपलब्ध नहीं होता । जीवन को उपलब्ध करने के लिए विश्वास की नहीं, विचार और विवेक की दिशा पकड़नी होती है। विश्वास यानी मानना । विचार यानी खोजना। जानने के लिए मानना घातक है | खोज के लिए विश्वास बाधा है। जो मान लेते हैं, वे जानने की दिश्ञा में चलते ही नहीं । चलने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। जानने का काम मानना ही कर देता है। इस भाँति कागज के फूल ही असली फलों का धोखा दे देते हैं और झूठे काल्पनिक पानी से ही प्यास बुझने को मान लिया जाता है ७: ज्ञान के मार्ग में विश्वास की वृत्ति सबसे वड़ा अवरोध है। विचार की मुक्ति में विश्वास की ही अड़चन है । विश्वास की जंजीरें ही स्वयं की विचार- शक्ति को जीवन की यात्रा नहीं करने देतीं और उनमें रुका व्यक्ति पानी के घिरे डबरों की भाँति हो जाता है। फिर वह सड़ता है और नष्ट होता है, है3. दिखाई देता है। हवाओं का--जीवनदायी हवाओं का--तो कोई पता ही नहीं है । क्‍या ऐसी ही स्थिति आपकी है ? क्या आप भी अपने भीतर घबड़ा देने- वाली घुटन का अनुभव नहीं करते हैं ? क्या आपकी गर्दन को भी चिन्ताएँ' नहीं दबा रही हैं और क्या आपके रक्त में भी उनका विप प्रवेश नहीं कर गया है ? ४: अर्थहीनता घर किए हुए है । ऊब से सब दवे हैं और टूट रहें हैं । क्या यही जीवन है ? क्या आप इससे ही तृप्त और संतुष्ट हैं ? यदि यही जीवन है तो फिर भृत्यु क्‍या होगी ? मित्र, यह जीवन नहीं है । वस्तुतः यही मृत्यु है । जीवन से सब परिचित नहीं हैं। जीवन सर्वेथा भिन्न अनुभव है। जानकर ही यह मैं कह रहा हू । कभी इस तथाकथित जीवन को ही जीवन मानने की भूल मैंने भी की श्री । वह भूल स्वाभाविक है । जब और किसी भाँति के जीवन को व्यक्ति जानता ही नहीं, तो जो उपलब्ध होता है, उसे ही जीवन मान लेता है। यह मानना भी सचेतन नहीं होता । संचेतन होते हो तो मानना कठिन हो जाता है। बस्तुत: अविचार में ही, अवोध में ही, वैसी भूल होती है । स्वयं के प्रति थोड़ा-सा भी विचार उस भूल को तोड़ देता है। जो उपलब्ध है, उसे स्वीकार नहीं, विचार करें | स्वीकार अचेतन है। वह अंधविश्वास है । विचार संचेतन है । उसके द्वारा ही भ्रम-भंग होना प्रारंभ होता है । ६: विचार विश्वास से विलकुल विरोधी धटना है। विश्वास अवेतन है। उससे जो चलता है वह मात्र जीता ही है, जीवन को उपलब्ध नही होता। जीवन को उपलब्ध करने के लिए विश्वास की नहीं, विचार और विवेक कौ दिज्ला पकड़नी होती है। विश्वास यानी भानना । विचार यानी खोजना। जातने के लिए मानना घातक है । खोज के लिए विश्वास बाधा है। जो मात लेते हैं, वे जानने की दिद्या में चलते ही नहीं । चलने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। जानने का काम मानना ही कर देता है। इस भाँति कागज के फूच ही असली फूलों का धोखा दे देते हैं और झूठे काल्पनिक पानी से ही प्यास चुझने को मात लिया जाता है। ७: ज्ञान के मार्य में विद्वास की वुत्ति सबसे बड़ा अबरोध है। विचार की मुक्ति में विश्वास की ही अड़चन है | विश्वास की जंजीरें ही स्वयं की विचार- शक्ति को जीवन की यात्रा नहीं करने देतों और उनमें रुका व्यक्ति पानी के घिरे डबरों की भांति हो जाता है। फिर वह सड़ता है भोर नष्ट होता है, लेकिन सागर की ओर दौइना उसे संभव नहीं रह जाता | बँधो नहीं, स्वयं को वाँधों नहीं | खोजो, खोजने में ही सत्य-जीवन की प्राप्ति है । ८: जीवन जैसा मिला है, उसपर विद्वास मत कर लेना---उससे संतुप्ट मतः हो जाना। बह जीवन नहीं, वल्कि जीवन के विकास और वनुभव की एक संभावना मात्र ही है । एक कहानी मैंने युनी है । किसी वृद्ध व्यक्ति ने अपने दो पुत्रों की परीक्षा लेनी चाही | मरने के पूर्व वह अपनी संपत्ति का उत्तरा- धिकारी चुनना चाहता था । उसने गेहूँ के कुछ बीज दोनों को दिए और कहा कि मैं अनिद्चिवत समय के लिए तीर्थयात्रा पर जा रहा हूँ, ठुम इन बीजों को सँभाल कर रखना। पहले पुत्र ने उन्हें जमीन में गाड़कर रख दिया । दूसरे ने झनहीं खेती की और उन्हें बढ़ाया । कुछ वर्षो के वाद जब बुद्ध लौटा तो पहले के बीज सड़कर नप्ट हो गए थे और दूसरे ने उन्हें हजारों गुना बढ़ाकर संपदा में परिणत कर लिया श्रा । यही स्थिति जीवन की भी है | जो जीवन हमें मिला है, वह वोजों की भांति है। उससे ही तृप्त नहीं हो जाना है। बीज तो संभावनाएँ, हैं। उन्हें जो वास्तविकताओं में परिवर्तित कर लेता है, वही उनमें छिपी संपदा का मालिक होता है । 5: हम सब जो हूँ, वहीं नहीं रुक रहना है, वस्तुत: जो हो सकते हैं, वहाँ तक पहुँचना है । वहीं पहुँचना हमारा वास्तविक होना भी है । फूलों को कभी देखा है ? कभी उनके आनन्द को, कभी उनकी अभिव्यक्ति को विचारा है ? सुबह हम फूलों की एक सुन्दर वगिया में थे। जो मित्र साथ थे, उनसे मैंने कहा : “फूल सुन्दर हैं। स्वस्थ हैं, और सुवास से भरे हैं क्योंकि वे जो हो सकते श्र, वी हो गए हैँ । उन्होंने अपनी बिकास की पूर्णता को पा लिया हैं । जब तक मनुप्य भी ऐसा ही न हो जाय तव तक उसका जीवन भी सुवास से नहीं भरता है ।” ४८६ समाधि योग १: सत्य की खोज की दो दिशाएं हैं । एक विचार की, एक दर्शन की ४? विचार का मार्ग चक्नीय है। उसमें गति तो बहुत होती है, पर गन्तब्य कभी भी नहीं आता । वह दिशा भ्रामक और मिथ्या है | जो उसमें पड़ते हैं, वे मतों में ही उलझकर रह जाते हैं। मत और सत्य भिन्न बातें हैं । मत वौद्धिक धारणा है, जबकि सत्य समग्र प्राणों की अनुभूति में बदल जाते हैं | ताकिक हवाओं के रुख पर उनकी स्थिति निर्भर करती है, उनमें कोई थिरता नहीं होती । सत्य' परिवर्तित नहीं होता है। उसकी उपलब्धि शाइवत और सनातन में प्रतिष्ठा देती है । २: विचार का मार्ग उधार है। दूसरों के विचारों को ही उसमें निज की संपत्ति मानकर चलना होता है | उनके ही ऊहापोह और नए-नए संयोगों को मिलाकर मौलिकता की आात्मवंचना पैदा की जाती है, जबकि विचार कभी भी मौलिक नहीं हो सकते हैं । दर्शन ही मौलिक होता है, क्योंकि उसका जन्म स्वयं की अंतद्‌ ष्टि से होता है । ३: जो भी ज्ञात है, वह भज्ञात में नहीं ले जाता है। सत्य भज्ञात है तो ज्ञात विचार उस तक पहुँचने की सीढ़ियाँ नहीं बन सकते हैं । उनके परित्याग से ही सत्य में प्रवेश होता है। निविचार चैतन्य के आकाश में ही सत्य के सूर्य के दर्शन होते हैं । ४: मनुष्य चित्त ऐंद्रिक अनुभवों को संग्रहित कर लेता है। ये सभी अनु- भव वाद्य जगत्‌ के होते हैं, क्‍योंकि इंद्रियाँ केवल उसे ही जानने में समर्थ हैं जो" बाहर है। स्वयं के भीतर जो है, वहाँ तक इंद्रियों की कोई पहुँच नहीं है । इन अनुभवों की सूद्ष्म तरंगें ही विचार की जन्मदात्री हैं। इसलिए विचार, विज्ञान की खोज में तो सहयोगी हो सकता है, किन्तु परम सत्य के अनुसधानः में नहीं । स्वयं के आंतरिक केन्द्र पर जो चेतना है, विचार के द्वारा उसे स्पर्श नहीं किया जा सकता हैं, क्योंकि वह तो इंद्वियों के सदा पादव॑ में ही है । ४: यह स्मरण रखना आवदयक है कि विचारों का आगमन वाहर से होतए डछ है। वे विजातीय तत्त्व हैं। उनसे स्वयं की सत्ता उद्वादित नहीं, वरन्‌ और आच्छादित ही होती है। उनकी धृंध जीौर धुआँ जितना गहरा होता है, उतना ही स्व-सत्ता में प्रवेश कठिन और दुर्गम हो जाता है। जो स्वयं को नहीं जानता है, वह सत्य को कैसे जान सकता है ? सस्य को जानने का द्वार स्वयं से होकर ही आता है, और कोई दूसरा द्वार भी नहीं है । ६: सत्य की बौद्धिक विचार-धारणाओं में पड़े रहता ऐसे ही है, जैसे क्रोई अंधा व्यक्ति प्रकाण का चिन्तन करता रहे । उसका सारा चिन्तन व्यर्थ ही होगा, क्योंकि प्रकाश सोचा नहीं, देखा जाता है । उसके लिए विचार नहीं, आँखों का उपचार आवदध्यक है। उस दिया में किसी विचारक की नहीं, चिक्रित्सक की सलाहें ही उपादेय हो सकती हैं | ७: विचार चिन्तन है, दर्शन चिकित्सा है। प्रव्न प्रकाश का नहीं, सदा ही आँखों का है। यहीं तत्त्व चिन्तन और योग विभिन्न दिनाओं के यात्री हो जाते हैं। तत्त्व चिन्तन अंध्रों द्वारा प्रकाश का विचार और विवेचता है, जबकि योग आँखें देता है और सत्य के दर्णन की सामर्थ्य और पात्रता उत्पन्न करता है। ८: योग समाधि का विज्ञान है | चित्त की घून्य और पूर्ण जाग्रत अवस्था को मैं समाधि कहता हूँ। विपयों की दृष्टि से चित्त जब बून्य होता है और विपयी की दृष्टि से पूर्ण जाग्रत, तव समाधि उपलब्ध होती है। समाधि सत्य के लिए चल्नु है । ९: हमारा चित्त साधारणत:ः विपयों, विचारों और उनके प्रति सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं से आच्द्धव्न रहता है। इन अगान्त लहरों की क्रमण: एक मोदी दीवार बन जाती है । बरही दीवार हमें स्वयं के बाहर रखती है । सूर्य जैसे सागर पर अपनी उत्तप्त किरणें फेंककर ऐसे बादल पैदा कर लेता है, जो उसे ढाँकने ओर वावृत्त करने में समर्थ हो जाते हैं, वैसे ही मनुष्य-चेतता भी “विपयों के संसर्ग में से विचार प्रतिक्रियाओं को उत्पन्न कर लेती है और फिर उन्हीं में भटक जाती है । अपने ही बन्द करने के लिए मनुष्य स्वतंत्र है । था से अपनी सत्ता तक पहुचन क॑ द्वार १०: क्रिन्तु जो अपने पैरों में अयने हाथ से बेट्रियाँ डालने में समर्य होता है, बह उन्हें तोड़ने की लमता भी अवशध्य ही रखता है | स्वतंत्रता हमेगा दोहरी होती है। बनाने की थक्ति में मिटाने की शक्ति भी अवश्य ही अन्तनिदहि होती है । इस सच्चाई को व्यान में रखना बहुत आवश्यक है । ध्व्द १९: स्वयं को या सत्य को पाने जो चलता है, उसे विजातीय प्रभावों को दूर करने के लिए उनकी दीवार पर दो विन्दुओं से आक्रमण करना होता है।' एक को में जागरुकता के लिए आक्रमण कहता हूँ, और दूसरे को शून्यता के लिए। इलन दोनों की जहाँ पूर्णता होती है और संगम होता है फलित होती है । १२: जागरुकता के लिए कार्यो या विचारों में अपनी मूरच्छा और प्रमत्तता को छोड़ना पड़ता है। कोई भी कर्म या कोई भी विचार सोई-सी अवस्था से नहीं, परिपृर्ण सजगता से होना चाहिए | सतत ऐसी धारणा करने पर स्वयं में साक्षी का जन्म होता है। जागरुकता के लिए निरंतर सचेत रहने और अपनी अधंनिदठ्र-्सी चित्त-दक्षा पर आबात करने से स्वभावतः वहाँ समाधि ही प्रसुप्त प्रजा में जागरण प्रारम्भ हो जाता है, फिर धीरे-धीरे एक बोध-चेतना सहज ही साथ रहने लगती है। पहला आक्रमण है १६: दूसरा सहयोगी आक्रमण शून्यता के लिए करना होता है। यह स्मरण रखना है कि चित्त जितना कम स्पंदित और आन्दोलित हो, उतना ही' बच्छा दै। ऐसे विचारों और भावों में स्वयं को पड़ने से रोकना पड़ता है, जिनका परिणाम चित्त को अर्शात करता है । चित्त की शांति को वैसे ही ममालना पड़ता है, जैसे कोई पशथ्चिक रात्रि के अंधकार में आँधियों से अपने दीए को बचाकर चलता हो । ऐसे कर्म, ऐसे विचार बा ऐसी वाणी के प्रति सचेत होना होता है, जो चित्त की झील पर लहरें पैदा करें और जिससे विक्षोभ यहाँ तक कि निद्रा में भी उसका साथ नहीं छूटता है | यह उत्पन्न होता हो । १४ दोनों आक्रमण सहयोगी आक्रमण हैं और एक के साधने से दूसरे में सहायता मिलती है । जागरुकता साधने से घत्यता आती है और शन्यता साधने में जागदकता आती है । उन दोनों में कौत महत्त्वपूर्ण है, यह कहना कठिन है । उनका संबंध मुर्गी-अंड के सम्बन्ध-जैसा है । १५: झृन्बता और जागरुकता जब पूर्ण हो जाती है तो चित्त एक ऐसी कान्ति से गुजरता है जिसकी साधारणतः हमें कोई कल्पना भी नहीं हो सकती शी। उस पसिवर्ततन से बढ़ा कोई परिवर्तन मनप्य-जीवन में नहीं है । क्रांति आयल हे और उसके द्वारा सारा ही जीवन रूपांतरित हो जाता है। यंत्र को अनावास आँख मिल जाने के प्रतीक से ही उस्ते समझाया जा सकता है | बह्‌ ४ छ ० १६: इस क्रांति के द्वारा व्यक्ति स्वयं में प्रतिष्ठित होता है और अनिर्बचनीय आलोक का अनुभव करता है। इस बालोक में वहु अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को जानता है। मृत्यु मिद जाती है और भमृत के दर्शन होते हैं। अंधकार विलीन हो जाता है ओर सत्य से मिलन होता है। वास्तविक जीवन की थरुरुआत इस अनुभूति के बाद ही होती है। उसके पूर्व हम मृतकों के ही समान हैं। जीवन-सत्य को जो नहीं जानता है, उसे जीवित कहना बहुत अधूरे कर्थो में ही सत्य होता है । जीवन की श्रदृश्य जड़ें १: किस संबंध में आपसे वातें करँ ? जीवन के सर्वेध में ? शायद अही उचित होगा, क्‍योंकि जीवित होते हुए भी जीवन से हमारा संबंध नहीं है। बह तथ्य कितना विरोधाभासी है ? क्‍या जीवित होते हुए भी यह हो सकता है कि जीवन से हमारा संबंध न हो ? यह हो सकता है। न केवल हो ही सकता है बल्कि ऐसा ही है भी । जीवित होते हुए भी, जीवन भूला हुआ है। घायद हम जीने में इतने व्यस्त हैं कि जीवन का विस्मरण ही हो गया है। २: वक्षों की देखता हूँ तो विचार आता है कि क्या उन्हें अपनी णड़ों का पता होगा ? पर वृक्ष तो वक्ष हैं, मनुष्य को ही अपनी जड़ों का पता नहीं । जड़ों का ही पता न हो तो जीवन से सम्बन्ध कैसे होगा ? जीवन तो जड़ों में है--अदुद्य जड़ों में । दृश्य के प्राण अदृइ्य में होते हैं । जो दिखाई पड़ता है, उसका जीवन-ख्रोत उनमें होता है जो दिखाई नहीं पड़ता है। दृश्य को अदृव्य धारण किए हुए है। जब तक यह अनुभव न हो तब तक जीवित होते हुए भी जीवन से संबंध नहीं होता है । ३: जीवन से संबंधित होने के लिए जीवन मिलन जाना ही पर्याप्त नहीं । वह भूमिका तो है, किन्तु वही सब कुछ नहीं । उसमें संभावनाएँ तो हैं, लेकिन वही पूर्णता नहीं है। उससे यात्रा तो शूरू हो सकती है, लेकिन उस पर ही ठहरा नहीं जा सकता है । पर कितने ही लोग हैं जो प्रस्थान बिन्दु को ही “गन्तव्य मानकर रुक जाते हैं । शायद अधिकांशत: यही होता है । बहुत कम ही व्यक्ति हैं जो प्रस्थान बिन्दु में, और पहुंचने की मंजिल में भेद करते हों और उस भेद को जीते हों । कुछ लोग शायद भेद कर लेते हैं, पर उस भेद को जीते नहीं । उसका भेद, मात्र बौद्धिक होता हैं और स्मरण रहे कि बौद्धिक समझ कोई समझ नहीं । समझ जीवन के अस्तित्व के अनुभव से आवे तभी परिणामकारी होती है । हृदय की गहराई से मौर अनुभव की तीत्रता से ही वह ज्ञान आता है जो व्यक्ति 'को बदलता है, नया करता है । | बुद्धि तो उधार विचारों को ही अपना समझने की श्रांति में पड़ जाती है बद्धि की संवेदना है ही वहत सतही, जैसे सागर की सतह पर उठी लहरों का न तो कोई स्थायित्व होता है जौर न कोई दुढ़ता होती है । उनका बनना- मिठना चलता ही रहता है! सागर का अंत्तस्थल न तो उससे प्रभ्नावित होता है और न ही परिवर्तित होता है। ऐसी ही स्थिति बुद्धि की भी है । ४: बुद्धि से नहीं, अनुभव से, अस्तित्व से तथा स्वयं की सत्ता से यह बोध आना चाहिए कि जन्म बौर जीवन में भेद है। चलने और पहुँचने में अन्तर है | जन्म प्रारंभ है, अंत नहीं । यह दृष्टि न जग्रे तो जत्म को ही जीवन मान लिया जाता है। फिर जो जन्म को ही जीवन जानता और मानता हैं, अनिवायंत: उस्ते मृत्यु को ही अन्त और पूर्णता भी माननी पड़ती है ! जन्म को' जीवन मानते की भूल से ही मृत्यु को स्वयं की परिसमाप्ति मानने की श्रांति' का भी जन्म होता है। वह पहली भूल की ही सहज निप्पत्ति है। वह उसका ही विकास और निष्कर्ष है। जन्म से जो बाँध हैं, वे मृत्यु से भी भयभीत होंगे" ही। मृत्यु-मय जन्म से वँधे होने की ही दूरगामी प्रतिध्वनि है। ५ : वस्तुतः, हम जिसे जीवन कहते हैं, वह जीवन कम और जीवित मृत्यु ही ज्यादा है। शरीर से ऊपर और शरीर से भिन्‍त जिसने स्वयं को नहीं जानता, वह कहने मात्र को ही जीवित है । जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात्‌ जिसे स्वयं का होना अनुभव नहीं होता, वह जीवित नहीं है। उसे जन्म के: बाद ओर मृत्यु के पूर्व भी जीवत का जनुभव नहीं होगा, क्योंकि जीवन का बनुनव दो अखंड और अविच्छिन्त है। ऐसे व्यक्ति ने जन्म ही को जीवन माव' लिया है। सत्र तो यही है कि उत्तने अभी जन्म ही पाया है, जीवन नहीं ।' जन्म वाह्य घटना है, जीवन आंतरिक। जन्म संसार है, जीवन परमात्मा ।' जन्म जीवन तो नहीं है लेकिन जीवन में वह गति का द्वार हो सकता है।' लेकिन साधारणत: तो बह मृत्यु का ही द्वार सिद्ध होता है। उस पर ही छोड़ देने से ऐसा होता हैं| साधना जन्म को जीवन वना सकती है । मृत्यु विकसित हुआ जन्म ही है। अचेतन और मूच्छित जीना मृत्यु में ले जायगा--सचेतन ओर असमृच्छित जीना जीवन में । जमूच्छित जीवन को ही मैं साधना कहता । साधना से जीवन उपलब्ध होता है| वही धर्म है । ६: द्प्टि 206 नमः 222 | / ७; |, को देखता हूँ और बच्चों को देखता हूँ तो मुझे जन्म तथा मृत्यु तो उनमें भेद दिखाई पड़ता है लेकिन जीवन की दणष्टि से नहीं ६४ 2) डी धर 2 ग्र मृत्योन्मुख स्थिति को भी स्पप्ट कर देते हैं । स्वयं की इस संकट की स्थिति में घिरा जानकर ही जीवन को पाने की आकांक्षा का उद्भव होता है। जैसे कोई जाने कि वह जिस घर में बैठा है उसमें भाग लगी हुई है और फिर उस घर के बाहर भागे, वैसे ही स्वयं के गृह को मृत्यु की लपटों से घिरा जान हमारे भीतर भी जीवन को पाने की तीज और उत्कट अभीष्सा पैदा होती है । इस अभीष्सा से बड़ा और कोई सौभाग्य नहीं, क्योंकि वही जीवन के उत्तरोत्तर गहरे स्तरों में प्रवेश दिलाती है । ९; क्या आपके भीतर ऐसी कोई प्यास है ? क्या आप के प्राण ज्ञात के झछपर अज्ञात को पाने को आकुल हुए हैं ? यदि नहीं त्तो समझें क्रि आपकी जाँखें बंद हैं और आप अंध बने हुए हैं | यह अंधापन मृत्यु के भतिरिक्त और कहीं नहीं ले जा सकता है। जीवन तक पहुँचने के लिए आँखें चाहिए । उमंग रहते चेत जाना आवश्यक हैं। फिर पीछे पछताने से कुछ भी नहीं होता है । शाँखें खोलें और देखें तो चारों ओर मृत्यु दिखाई पड़ेगी । समय में, संसार में मृत्यु ही है। लेकिन समय के--संसार के---वाहर स्वयं में अमृत भी है। तथाकथित जीवन को जो मृत्यु की भाँति जान लेता है, उसकी दृष्टि सहज ही स्वयं में छिपे अमृत की ओर उठने लगती है । जो उस अमृत को पा लेता है, पी लेता है, जी लेता है, उसे फिर कहीं भी मृत्यु नहीं रह जाती है। फिर घाहर भी मृत्यु नहीं है | मृत्यु श्रम है और जीवन सत्य है । ग्हिसा क्‍या हैं ? मैं अहिसा पर बहुत विचार करता था । जो कुछ उस सम्बन्ध में चुनता आ, उससे तृप्ति नहीं होती थी । वे बातें बहुत ऊपरी मालूम होती थीं । बुद्धि सो उनसे प्रभावित होती थी, पर थन्तः अछुता रह जाता था । धीरे-धीरे इसका कारण भी दीखा । जिस अहिसा के सम्बन्ध में सुतता था, वह नकारात्मक थी। नकार बुद्धि से ज्यादा गहरे नहीं जा सकता है। जीवन को छूने के लिए कुछ विधायक चाहिए। अहिसा, हिंसा का छोड़ना ही हो, तो बह जीवनःम्पर्णी नहीं हो सकती है । वह किसी का छोड़ना नहीं, किसी की उपलब्धि होनी चाहिए । बह त्याग नहीं, प्राप्ति हो, तभी सार्थक है । अहिसा शब्द की नकारात्मकता ने बहुत श्रांति को जन्म दिया है। वह शब्द तो नकारात्मक है, पर अनुभूति नकारात्मक नहीं है। वह अनुभूति शुद्ध प्रेम की है। प्रेम राग हो तो अचुद्ध है, प्रेम राग न हो तो घुद्ध है । रागयुक्त प्रेम क्रिसी के प्रति होता है, राग-मुक्त प्रेम सब के प्रति होता है । कि वह किसी के प्रति नहीं होता है। वस, केवल होता है । हूँ। प्रेम सम्बन्ध हो तो राग होता है । सच यह है प्रेम के दो रूप प्रेम स्वभाव हो, स्थिति हो, तो वीतराग होता है । यह वीतराग प्रेम ही आहिसा है । प्रेम के सम्बन्ध से स्वभाव में परिवर्तत अहिसा की साधना है। वह हिंसा का त्याग नहीं, प्रेम का स्फुरण है। इस स्फुरण में हिंसा तो अपने आप छूट जाती है, उसे छोड़ने के लिए अलग से कोई आयोजन नहीं करना पड़ता है। जिस साधना में हिसा को भी छोड़ने की चेप्ठा करनी पड़े बह साधना सत्य नहीं है। प्रकाण के आते ही अँधेरा चता जात। है । यदि प्रकातण के आने पर भी उसे अलग करने की योजना करती पड़े तो जानना चर हिए कि जो आया? है, बह और कुछ भी हो, पर द म-से-फम प्रकाण तो नही ही है । हैं। उसका होना ही, हिसा का न होना है । प्रेम क्या है ? प्रेम पर्याप्त साध रगतः जिसे प्रेम करके जाना जाता है, वह राग है और अपने आपको भुलाने का उपाय है। मतुप्य दुख में है जौर अपने आपको ५ भूलना चाहता है। तवाकथित प्रेम के माध्यम से वह स्वयं से दूर चला जाता है। वह किसी और में अपने को भूला देता है। प्रेम मादक द्रव्यों का काम कर देता है। वह दूख से मुक्ति नहीं लाता, केवल ढुखों के प्रति मूच्छी ला देता है। इसे मैं प्रेम का सम्बन्ध-हप कहता हूँ । वह बस्तुतः प्रेम नहीं, प्रेम का श्रम ही है। प्रेम का यह श्रम-रूप दुख से उत्पल होता है। दुंखानुभव व्यक्ति चेतना को दो दियाओं में ले जा सकता है । एक दिक्षा हैं उसे भूलने की, और एक दिया है उसे विमजित करने की । जो दुख विस्मृत्ति की दिज्ञा पंकड़ता है वह जाते-अतजाने किसी न क्रिसी प्रकार की मादकता गौर मूर्च्छा की खोज करता है। दुष-विध्मरण में आनन्द्र का आभास ही हो सकता है, क्योंकि जो 2 श्र है. उसे बहुत देर तक भूलना असम्भव होता है। यह आभास ही सुख है। निश्चय ही यह सुख बहुत क्षणिक है। साधारण रूप से प्रेम नाम से जानेवाले प्रेम ऐसे ही मूच्छी और विस्मरण की चित्त-स्थिति है। वह दुख से उत्पन्न होता है, और दुख को भुलाने के उपाय से वह ज्यादा नही है । मैं जिस प्रेम को अहिसा कहता हूँ वह आनन्द का परिणाम है। उससे दुख-विस्मरण नहीं होता है, वरन्‌ उसकी अशिव्यक्ति ही दुख-मुक्ति पर होती हैं। वह मादकता नहीं, परिपूर्ण जागरण है। जो चेतना दुख-विस्मरण नही, दुख-विसर्जन की दिखा में चलती है, वह उस सम्पदा की मालिक वतती हैं, जिसे प्रेम कहते हैं। भीतर आनन्द हो तो बाहर प्रेम फलित होता है । चस्वुत: जो भीतर आनन्द है, वही बाहर प्रेम है। वे दोनों दो नहीं हैं, बरन्‌ एक ही अनुभूति की दो प्रतीतियाँ है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू है। बानत्द स्वयं को अनुभव होता है। प्रेम जो निकट भाते है, उन्हें अनुभव होता है। आनन्द केन्र है, तो प्रेम परिधि है। ऐसा प्रेम सम्बन्ध नहीं, स्वभाव है। जैसे थूरज से अकराण मिसृत होता है, ऐसे ही वह स्वयं से मिसृत होता है। प्रेम के इस स्वभाव और रूप में कोई बाह्य आकर्षण नहीं, आन्तरिक प्रवाह है। उसका बाहर से न कोई सम्बन्ध है, न कोई अपेक्षा है। वह बाहर से मुक्त बौर स्वतन्त्र है। इस प्रेम को मैं अहिसा कहता हूँ । में यदि दुख में हूँ तो हिया में हूँ । में यदि आनन्द में हो जाऊँ तो अश्िया में हो जाऊंगा । इसलिए स्मरणीय हैं कि अहिसा की नहीं जाती है। बह क्रिया नही, सत्ता है। उसका सम्बन्ध कुछ करने से वही, कुछ होने से है। वह आचार-परिवर्तन नही, आत्म क्रान्ति है। दुख से जो प्रवाहित होता है, वह + ५ हसा है। आनन्द से जो प्रवाहित होता है, तह हिंसा निरोध है। में क्‍या करता हूं, बह सवाल नहीं है। में क्या हूँ, यह सवाल है। में दुख हे वा आनन्द हूँ, यह प्रत्येक को अपने से पूछना है। उस तर पर ही सब कुछ निर्मर करता है । तथाकथित थानेन्‍्द के पीछे आँकना है, भुलाबों और कत्मवंचनाओं के आवरणों को उधारकर देखता है। उसे जो बस्तुतः है, जानने को स्वयं के समक्ष नग्न होना जरूरी है। आवरणों के हटते 2 9 कि र्् ही दुख की अतल गहराइयाँ अनुमव होती हैं। घने अँधेरे ओर सन्ताप का दुख दनु मव होता है। भय लगता है, वापिस अपने आवरण को ओढ़ लेने का मन होता है। इस भांति भयभीत होकर जो अपने दुख को ढाँक लेते हैं हैं, वे कभी आनन्द को उपलब्ध नहीं होते हैं। दुख को ढाँकना नहीं, मिटाना है और उसे मिटाने के लिए उसका साक्षात्‌ करना होता है। यह साक्षात्‌ ही तप है । 32]/ दुख का विस्मरण संसार में ले जाता है। दुख का साक्षात्‌ स्वयं में टू । जो उससे भागता है और उसे भूलना चाहता है, वह मूर्च्छा को आमंत्रण देता है। वह स्वयं ही मृर्च्छा की खोज करता है। साधारणत: जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मूच्छा के अतिरिक्त और क्या है ? और जिसे हम गी ते हैं, वह सफलता पा लेने के सिवा और व्या है ? जीवन में धन की, या बद्य की, या काम की मादकता में भूलने में सफल मालूम होते हैं उन्हें हम सफल कहते हैं। पर सत्य कुछ अन्यथा ही है । ऐसे लोग जीवन को पाने में नहीं, गँवाने में सफल हो गए हैं। उन्होंने दुख को मुलाकर आत्मधात ही कर लिया हैं। दुख के प्रति जागरण आनन्द को आत्मा में प्रतिष्ठित कर देता है । हैं, सन्निदित दुख को जो दुख साक्षात्‌ अमूर्जल्डा लाता है। उससे निद्रा दूट्ती है। जो व्यक्ति था संताप से घबराकर पलायन नहीं करता है, और किन्‍्हीं स्वप्नों में स्वयं को नहीं खो लेता है, वह अपने भीतर एक अभूतपूर्व चेतन्य को जागृत करता 0घ॥ | रे के । बढ़ एक क्रांति का साक्षी बनता है । चैतन्य का यह जागरण उसे आमूल परिवर्तित कर देता है । वह अपने भीतर अंधेरे को टूटले हुए देखता है और देखता है कि उसकी चेतना के रंद्ध-रंत्र से प्रकाश परिव्याप्त हो रहा है। इस प्रकाश में पहली वार बह स्वयं को जानता है । पहली वार उसे दीखता है कि बह कौन है । दुख साक्षात्‌ के दबाव में ही आत्म-जागरण होता है। बान्तरिक पीड़ा मर का आत्यंत्तिक बोध अपनी चरम स्थिति पर विस्फोट बन जाता है। जो इस सीमा तक पीड़ा से गुजरने को राजी होते हैं, वे पीड़ा के वाहर पहुँच जाते हैं । जो इतना साहस करता है, उसके लिए सत्य अपना द्वार खोल देता है । में कौन हूँ, यह जान लेना ही सत्य को जान लेना है। इस बोझ के साथ ही दुख विसजित हो जाता है। दुख स्व- अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। में अपने को जानते ही आनन्द का अधिकारी हो जाता हूँ। वह जो प्रत्येक के भीतर है, सच्चिदानंद है। उस ब्रह्म की अनुभूति आनन्द है। बह्म को, आत्मा को जानना सत्य को जानना है। सत्य को जानना आनन्द को पा लेना है। सत्य पाया जाता है। आनन्द और प्रेम उसमें फलित होते हैं। जो अंतस्‌ में आनन्द होता है, वही आचरण में अहिंसा होकर दीखता है। अहिंसा सत्यानुभूति का परिणाम है। वह सत्य के दीए का प्रकाश है। समाधि के पौधे में सत्य के फूल लगते हैं और अहिंसा की सुगन्ध आकाक्ष में परिव्याप्त हो जाती है। श्ष ग्रानन्द की दिशा यह क्या हो गया है ? मनुष्य को यह क्या हो गया हैं ? में आदइचर्य में हूँ कि इतनी आत्म विपन्नता, इतनी अर्थद्वीनता और इतनी घनी ऊब के बावजूद भी हम कैसे जी रहे हैं ? में मनुष्य की आत्मा को खोजता हूँ तो केवल अंधकार ही हाथ थाता है और मनुष्य के जीवन में झाँकता हूँ तो सिवा मृत्यु के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है । जीवन है, लेकिन जीने का भाव नहीं । जीवन है, लेकिन एक बोझ की भाँति। वह सौन्दर्य, समृद्धि और शांति नहीं है। और आनन्द न हो, आलोक न हो तो निश्चय ही जीवन नाम-मात्र को ही जीवन रह जाता है। बया हम जीवन को जीना ही तो नहीं भूल गए हैं ? पशु, पक्षी और पौधे भी हमसे ज्यादा सघनता, समृद्धि और संगीत में जीते हुए मालूम होते हैँ । लेकिन शायद कोई कहे कि मनुष्य की समृद्धि तो दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है, फिर भी आप यह क्‍या कह रहे हैं ? उत्तर में मैं कहूँगा : “परमात्मा मनुप्य को उसकी तथाकथित समृद्धि से बचाये। वह समृद्धि नहीं, वस केवल दरिद्रता और दीनता को भुलाने का उपाय है। यह्‌ समृद्धि, शक्ति और प्राप्ति सब स्वयं से पलायन है।” मैं, समृद्धि के वस्त्रों को उतारकर, जब मनुष्य को देखता हूँ तो उसकी आन्तरिक दरिद्रता को देखकर हृदय बहुत विपाद से भर जाता है। क्या इस दरिद्रता को छिपाने और विस्मरण करने के लिए ही हम समृद्धि को नहीं ओढ़े हुए हैं ? जो थोड़ा-सा भी विचार करेगा, वह सहज ही इस सत्य से परिचित हो जायगा। आत्महीनता से पीड़ित व्यक्ति पद को खोंजते हैं, और आत्म-दरिद्गता से ग्रसित घन ओर संपदा को । भीतर जो है, उससे पलायन करने को उसके विपरीत ही हम वाहर स्वयं को निर्मित करने लगते हैं। अहंकारी विनीत बन जाते हैं और अतिकामी ब्रह्मचर्य और साधुता में स्वयं को भूला लेना चाहते हैं ५ ९ मनुष्य जो भीतर होता है, साधारणतः ठीक उसके विपरीत ही वह बाई: स्वय॑ को प्रकट करता है। इसलिए ही दरिद्व संपदा को खोजतिे हैं और जो संपदाशाली हैं, वे दरिद्रता को वरण कर लेते हैं | क्या आपने दरिद्रों को सम्राद और सम्राटों को दरिद्व होते नहीं देखा है ? हे इसलिए यह न कहें कि मनुष्य की समृद्धि बढ़ गई है । वस्तु की समृद्धि लो बढ़ी है पर मनुप्य की समृद्धि नहीं । वह्‌ और भी दरिद्ध हो गया है | स्मरण रहे कि बाह्य समुद्धि को वढ़ाने की पागल-दौड़ में वह निरल्तर और भी दरिद्र ही होता जायगा । क्योंकि इस दौड़ में वह यह भूलता ही जा रहा है कि एक और प्रकार की समृद्धि भी है, जो बाहर नहीं, स्वयं के भीतर ही उपलब्ध की जाती है। वस्तुओं का बढ़ता जाना ही एकमात्र विकास नहीं है। एक और विकास भी है जिसमें स्वयं मनुप्य भी बढ़ता है। निश्चय ही वहीं विकास वास्तविक है जिसमें मानवीय चेतना ऊध्वेंगमन करती है और प्रगाढ़ता, सौन्दर्य, संगीत और सत्य को उपलब्ध होती है । मेँ आप से ही पूछना चाहता हूँ कि क्या आप वस्तुओं के संग्रह से ही संतुप्ट होना चाहते हैं, या कि चेतना के विकास की भी प्यास आप के भीतर है ? जो मात्र वस्तुओं में ही संतुष्टि सोचता है वह अंततः असंतोष के और कुछ भी नहीं पाता है, क्योंकि वस्तुएँ तो केवल सुविधा ही दे सकती हैं, और निरचय ही सुविधा और संतोष में बहुत भेद है। सुविधा कष्ट का अभाव है, संतोष आनन्द की उपलब्धि है । आपका हृदय क्‍या चाहता है ? आपके प्राणों की प्यास क्या है ? आपके स्वासों की तलाश क्या है ? क्या कभी आपने अपने आपसे ये प्रदन पूछे हैं ? यदि नहीं, तो मुझे पूछने दें। यदि आप मुझसे पूर्छे तो मैं कहुँगा : “उसे पाना चाहता हूँ जिसे पाकर फिर कुछ और पाने को नहीं रह जाता ।” कया मेरा ही उत्तर आपकी अंतरात्माओं में भी नहीं उठता है ? यह में आपसे ही नहीं पूछ रहा हूँ, जौर भी हजारों लोगों से पूछता हूँ और पाता हूँ कि सभी मानव-हृदय समान हैं और उनकी जात्यंतिक चाह भी समान ही है। आत्मा आनन्द चाहती है--पूर्ण आनन्द, क्योंकि तभी सभी चाहों का विशाम आ सकता है। जहाँ चाह है, वहाँ दुख है क्योंकि वहाँ अभाव है । आत्मा सव अभावों का अभाव चाहती है । अभाव का पूर्ण अभाव ही ६० आनन्द हे और वही स्वतंत्रता भी है, मुक्ति भी, क्योंकि जहाँ कोई भी अभाव है, वहीं बंधन है, सीमा है और परतंत्रता है। अभाव जहाँ नहीं है, वहीं 'परममुक्ति में प्रवेद् है । आनन्द मोक्ष हूँ और मुक्ति आनन्द है। निश्चय ही जो परम आकांक्षा है, वह वीजरूप में प्रत्येक में प्रसुप्त होनी ही चाहिए; क्योंकि, जिस बीज में चुक्ष न छिपा हो, उसमें अंकुर भी नहीं आ सकता है। हमारी जो चरम कामना है, बही हमारा आत्यंतिक स्वरूप भी है; क्योंकि स्वरूप ही अपने पूर्णविकास में आनन्द और स्वतंत्रता में परिणत हो सकता हैँ। स्वरूप ही सत्य है और उसकी पूर्ण उपलब्धि ही संतीप बनती है। स्वरूप की संपदा को जो नहीं खोजता है, वहु विषदाओं को ही संपदाएंँ समझता रहता है | निश्चय ही बाहर की कोई भी उपलब्धि अभावों का अभाव नहीं ला सकती है, क्योंकि बाहर की कोई भी संपत्ति भीतर के अभाव को कैसे भर सकेगी ? अभाव आंतरिक है, तो बाहर की किसी भी विजय से उसका 'भराव नहीं होता है। इसलिए बाहर सब पाकर भी कुछ भी पाया-सा प्रतीत नहीं होता है, और वाहर सब होकर भी व्यक्ति भीतर रिक्त ही बना रहता है । बुद्ध ने कहा है : “तृष्णा दुष्प्र है|” कंसा आइचय है कि चाहे हम कुछ भी पा लें, फिर भी पाने पर जो प्रतीत होता है, वह उतना ही रहता है जितना पाने के पूर्व था। इसलिए ही सम्राटों और भिखारियों का अभाव समान ही होता है। उस तल पर उनमें कोई भी भेद नहीं है। फिर, वाह्म संगीत की दिल्या में जो मिला हुआ भी मालूम द्वोता है, उसकी भी कोई सुरक्षा नहीं है, क्योंकि किसी भी क्षण वह छिन सकता या नष्ट हो सकता है| अंततः प्रृत्यु तो उसे छीन ही लेती है। जो छीना जा सकता है, उसे हमारे भंतहं दय कभी भी अपना न मान पाते हों तो आइचयें ही क्‍या। इसलिए ही संपत्ति सुरक्षा नहीं देती है, हालाँकि हम उसे सुरक्षा के लिए ही खोजते है ! उल्टे हमें ही उसकी सुरक्षा करनी होती है । यह ठीक से समझ लें कि वाह्म संपत्ति, सुविधाओं और शक्तियों से न अभाव मिटता है, न असुरक्षा मिटती है, न भय मिठता है। उनके मिथ्या आश्वासन में ज्यादा से ज्यादा व्यक्ति उन्हें भूला भर रह सकता है। इसलिए ही संपत्ति को मंद कहा है | उसकी मादकता में जीवन की वास्तविक ध्थिति के दर्शन नहीं 5१ हो पाते हैं और क्षमाव का इस भाँति विस्मरण अभाव से भी बुरा है, क्योंकि उसके कारण अभाव को मिटाने की वास्तविक दिज्ञा में दृष्टि नहीं उठ पाती है। जीवन में जो अभाव है, वह किसी वस्तु, शक्ति या संपदा के स होने के कारण नहीं है, क्योंकि उन सबोंके मिल जाने पर भी उसे मिट्ते नहीं देखा जाता हैं। जिनके पास सब कुछ है, क्या उनकी दरिद्वता से आप परिचित नहीं हैं ? आपके पास जो कुछ है, क्या उससे जरा भी आपकी दरिद्रता और दीनता मिटी है ? संपत्ति में और संपत्ति के होने के प्रम में बहुत भेद है । वाहर की संपत्ति- शक्ति, सुरक्षा--सन्नी उस वास्तविक संपत्ति की छायाएँ भर हैं जोः भीतर है । अभावों का मूल कारण बाहर की किसी उपलब्धि का होना नहीं, वरन्‌: स्वयं की दृष्टि का बाहर होना है । इसलिए जो अभाव कुछ भी पाकर नहीं मिटते हैं, वे ही दृष्टि के भीतर मुड़ने पर पाए ही नहीं जाते हैं । जात्मा का स्वरूप ही आनन्द है, बह उसका कोई गुण नहीं, वरतू उसका स्वरूप ही है। आत्मा का आनन्द से कोई संबंध नहीं है, वल्तुत: आत्मा ही आनन्द है। वे दोनों एक ही सत्य के नाम हैं। सत्ता की दृष्टि से जो आत्मा है, अनुभूति की दृष्टि से वही आनन्द है। लेकिन, उस आनन्द को आत्मा मत समझ लेना जिसे साधारणत: आनन्द कहा जाता है। वह 'वानन्द' आनन्द नहीं है, क्योंक्रि आतत्द के मिलते ही फिर आनन्द की सब खाज बंद हो जाती है। जिसके मिलने से खोज और वढ़ती है, जिसके पाने से तृष्णा और प्रवल होती है, जिसे पाकर जिसके खोने का भय पीड़ित करता है, वह बानन्द का मिथ्या आभास है, आनन्द नहीं । निश्चय ही वह जल, जल नहीं है, जिससे प्यास और भी बढ़ जाती हो । क्राइस्ट का बचत है : 'आओ, मैं उस कुएं का पानी तुम्हें दूं, जिसे पीने से प्यास सदा को मिट जाती है ।! हम सूख को ही आनन्द समझ्न लेते हैं जबकि सुख आनन्द का आभास-मात्र' है, छाया और परछाई है। इस आभास और श्रम में ही अधिक लोग” जीवन को गंवा देते हैं और अंततः अतुप्ति और असंतोष के और कुछ भी उल्हें हाथ नहीं लगता है । निश्चय ही यदि कोई मनुष्य ज्ील के पानी में चाँद के प्रतिचिम्व को देख उसे खोजने को निकल पड़े तो अंततः बह क्या पा सकेगा ? ६२ कप न बस्तुत: उसकी खोज उसे जितना ज्यादा झील की गहराई में ड्वाएगी' उतना ही ज्यादा वह वास्तविक चाँद से दूर निकलता जायगा। सूख की खोज में ऐसे ही व्यक्ति जानन्‍्द से दूर निकल जाते हैं। सुख को खोजते-खोजते जो मिलता है, वह सुख नहीं, दुख ही होता है। क्‍या जो मैं कह रहा हूँ उस्रकी सच्चाई आपको दिखाई नहीं पड़ती है ? क्या आपका स्वयं का जीवन-अनुभवः इस सत्य की गवाही नहीं है कि सुख की खोज अंततः: दुख के तट पर ले जाती है ? यही स्वाभाविक भी है, क्योंकि कोई भी परछाई या प्रतिविम्ब केवल अपने बाह्य रूप में ही मूल के समान होता है। वस्वुतः जो उसमें दिखाई पड़ता है उससे बिलकुल भिन्न ही उसमें पाया जाता है। प्रत्येक सूख, आनन्द का आइवासन और आकर्षण देता है, क्योंकि वह आनन्द की छाया है। लेकिन उसके पीछे जाने पर कुछ भी नहीं मिलता हैं,. सिवा असफलता, विपाद और दुख के; क्योंकि आपकी छाया को पकड़कर भी में आपको कैसे पा सकता हूँ ? और फिर, यदि आपकी छाया को पकड़ भी लूँ तो भी मेरी मुट्ठी में क्या कुछ हो सकता है ? यह भी स्मरण दिला दूं कि प्रतिविम्व सदा ही विरोश्री दिशा में बनते हैं । में एक दर्पण के सामने खड़ा हो जाऊँ तो दर्पण में जहाँ में दिखाई पड़ रहा हूँ वह ठीक उस जगह से विपरीत है जहाँ में हूँ। ऐसा ही सुख भी है। वह अपने में मूलतः दुख है क्योंकि वह आनन्द का प्रतिविम्ब है, आनन्द तो भीतर है इसलिए, सुख बाहर मालूम होता है ! आनन्द आनन्द है, इसीलिए सुख वस्तुत: दुख है । में जो कह रहा हूँ, उसे किसी भी सुख का पीछा जान लो | प्रत्येक सुख अनिवायंत: अंत में दुख में परिणत हो जाता है और जो अंत में जैसा है, वह बस्तुत: आरम्भ में भी बसा होता है । हमारे पास आँखें गहरी नहीं होती हैं, इसीलिए जिसके दर्शन प्रारंभ में होने थे, उसके दर्शन अंत में हो पाते हैं। यह असंभव है कि जो अंत में प्रकट हो, वह आरम्म से ही उपस्थित न रहा हो। आंत तो आरम्भ का ही विकास है। आरम्भ में जो अप्रकट था, वही अंत में प्रकट हो जाता है। पर न केवल हमारी आँखें उथला देखती हैँ वरन्‌ अधिकांशत: तो वे देखती ही नहीं हैं । हम हक अक्सर उन्हीं रास्तों पर वार-वार चले जाते हैं, जिनपर बहुत बार पूर्व में जाकर धरे भी दुख, पीड़ा और अवसाद को झेल चुके होते हैं । जहाँ दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया, उसी ओर फिर-फिर जाते हैं। क्‍यों? क्योंकि शायद उसके अतिरिक्त जौर कोई मार्ग हमें दिखाई ही नहीं पड़ता है। इसलिए मैने कहा कि हम न केवल धुँधला और उथला देखते हैं बल्कि हम देखते ही नहीं हैं ॥ वहुत कम लोग हैं जो जीवन में आँखों का उपयोग करते हों । आँखें सबके पास हैं, लेकिन आँखों के होते हुए भी अधिकांश भंधे बने रहते हैँ। जिसने स्वयं के भीतर नहीं देखा है, उसने कभी अपनी आँखों का उपयोग ही नहीं किया है । केवल वही कह सकता है कि "में आँख वाला हूँ जिसने स्वयं को देखा है; क्योंकि जो स्व को ही नहीं देखता है, वह और क्या देखेगा ? बाँखों की शुरुआत स्वयं को ही देखने से होती है और जो स्वयं को देखता दूसरे देखते हैं कि उसके चरण सुख की दिश्ञा में नहीं जा रहे हैं। वह व्यक्ति आनन्द की दिशा में चलना प्रारम्भ कर देता है। सूख की दिया स्वर्थ से संसार की ओर है; आनन्द की दिद्या संसार से स्वयं की ओर रथ! १0१५ माँगो और मिलेगा मैं यह क्या देख रहा हूँ ? यह कैसी निराशा तुम्हारी आँखों मे है ? और क्या तुम्हे ज्ञात नही है कि जब आँखे निराण होती हे, तव हृदय की वह्‌ अग्नि बुझ जातो है और वे सारी अभिष्साएँ सो जाती है, जिनके कारण मनुप्य मनुष्य है । निराशा पाप है क्योकि जीवन उसकी धारा में निश्चय ही ऊर्ष्वगमत खो देता है । निराशा पाप ही नही, आत्मघात भी है क्योकि जो श्रेष्ठतर जीवन को पाने में संलग्न नहीं है, उसके चरण अनायास ही मृत्यु की ओर बढ़ जाते हे । यह ज्ञाइवत नियम है कि जो ऊपर नही उठता, वह नीचे गिर जाता है और जो आगे नही बढता, वह पीछे ढकेल दिया जाता है । मै जब किसी को पतन मे जाते देखता हूँ तो जानता हूँ कि उसने पर्व॑त- शिखरों की ओर उठना बन्द कर दिया होगा। पतन की प्रक्रिया विधेयात्मक नही है। धारियों में जाना, पव॑तों पर न जाने का ही दूसरा पहल हैं। वह उसकी ही निषेध छाया हैं । और जब तुम्हारी आँखों में मै निराशा देखता हूँ तो स्वाभाविक ही है कि मेरा हृदय प्रेम, पीड़ा और करुणा से भर जाय, क्योकि निराशा मृत्यु की घादियो में उतरने का प्रारम्भ है । आज्ञा सूर्यमुखी के फूलों की भाँति सूर्य की ओर देखती है, और निराशा ? वह अधकार से एक हो जाती है । जो निराश हो जाता है, वहू अपनी भंत- निहित विराट शक्ति के प्रति सो जाता है, और उसे विस्मृत कर देता है जो वह है, और जो वह हो सकता है। बीज जैसे भूल जाय कि उसे क्‍या होना है और मिद्‌टी के साथ ही एक होकर पड़ा रह जाय, ऐसा ही वह मनुष्य है जो निराशा में टूब जाता है । और भाज तो सभी निराज्ा में डूबे हुए है। नीत्से ने कहा है : “वरमात्मा मर गया है ।” यह समाचार उतना दुखद नही है जितना कि आशा का मर जाना, क्योंकि आशा हो तो परमात्मा को पा लेना कठिन नहीं है और यदि आशा न हो तो परमात्मा के होने से कोई भेद नहीं पड़ता । आशा का आकषंण ही मनुष्य को अज्ञात की यात्रा पर ले जाग है। आशा ही प्रेरणा है जो उसकी सोई शक्तियों को जगाती है और उसकी निष्क्रिय चेतना को सक्रिय करती है | क्या मैं कहूँ कि आशा की भावदशा ही आस्तिकता है ? और यह भी कि आज्ञा ही समस्त जीवन-आरोहण का मूल उत्स और प्राण है ? पर आश्ञा कहाँ है ? मैं तुम्हारे प्राणों में खोजता हूँ तो वहाँ निराशा की राख के सिवा और कुछ भी नहीं मिलता । आशा के अंगारे न हों तो तुम जीओगे कैसे ? निश्चय ही तुम्हारा यह्‌ जीवन इतना बुझा हुआ है कि मैं इसे जीवन भी कहने में असमर्य हूँ ! मुजे आज्ञा दो कि मैं कहूँ कि तुम मर गए हो ! असल में तुम कभी जिये ही नहीं, तुम्हारा जन्म तो जरूर हुआ था लेकिन वह जीवन तक नहीं पहुँच सका ! जन्म ही जीवत नहीं है। जन्म मिलता है। जीवन पाना होता है। इसलिए जन्म मृत्यु में ही छीन भी लिया जाता है । लेकिन जीवन को कोई भी मृत्यु नहीं छीन पाती है। जीवन जन्म नहीं है और इसलिए जीवन मृत्यु भी नहीं है। जीवन जन्म के भी पूर्व है और मृत्यु के भी अतीत है। जो उसे जानता है वही केवल भ्यों और दुखों के ऊपर उठ पाता है । किन्तु, जो निरागा से घिरे है, वे उस्ते कैसे जानेंगे ? वे तो जन्म और मृत्यु के तनाव में ही समाप्त हो जाते हैँ ! जीवन एक संभावना है और उसे सत्य में परिणित करने के लिए साधना चाहिए। निराज्षा में साधना का जन्म नहीं होता क्योंकि निराशा तो बाँझ है और उसमें कभी भी किसी का जन्म नहीं होता है। इसीलिए मैंने कहा कि निराक्षा आत्मवाती है क्योंकि उससे किसी भी भाँति की सूजनात्मक शक्ति का आविर्भाव नहीं होता है । हि में कहता हूँ : उठो और निराशा को फेंक दो । उसे तुम अपने ही हाथों से ओढ़े वेंठे हो। उसे फेंकने के लिए और कुछ भी नहीं करना है सिवा इसके कि उस उसे फेंकने को राजी हो जाओ | तुम्हारे अतिरिक और कोई उसके लिए 4६ पजम्मेदार नहीं है । मनुप्य जैसा भाव करता है, वैसा ही हो जाता है। उसके ही भाव उसका सृजन करते हैं। वही अपना भाग्य-विधाता है । विचार--विचार-विचार, और उनका सतत्‌ आवत्तंन ही अंततः वस्तुओं ओर स्थितियों में घनीभूत हो जाता है । स्मरण रहे कि तुम जो भी हो वह तुमने ही अनन्त बार चाहा है, विचारा 'है और उसकी भावना की है | देखो, स्मृति में खोजो तो निश्चय ही जो मैं कह रहा हूँ उस सत्य के तुम्हें दर्शन होंगे। और जब यह सत्य तुम्हें दीखेगा तो तुम स्वयं के आत्मपरिवर्तन की कु जी को पा जाओगे । अपने ही द्वारा ओढ़े भावों और विचारों को उत्तारकर अलग कर' देना कठिन नहीं होता है । वस्त्रों को उतारने में भी जितनी कठिनता होती है उतनी भी उन्हें उतारने में नहीं होती है, क्योंकि बे तो हैं भी नहीं--सिवा तुम्हारे ख्याल के उनकी कहीं भी कोई सत्ता नहीं है । हम अपने ही भावों में, अपने ही हाथों से कद हो जाते हैँ, अन्यथा वह जो हमारे भीतर है, सदा, सदैव ही स्वतंत्र है । क्या निराशा से बड़ी और कोई कद है ? नहीं । क्योंकि पत्थरों की दीवारें जो नहीं कर सकतीं, वह निराशा करती है। दीवारों को तोड़ना संभव है, लेकिन निराश्षा तो मुक्त होने की भाकांक्षा को ही खो देती है । निराशा से मजबूत जंजीरें भी नहीं हैं, क्योंकि लोहे की जंजीरें तो मात्र दइरीर को ही बाँधती हैं, निराशा तो आत्मा को भी ब'ध लेती है। निराक्षा की इन जंजीरों को तोड़ दो । उन्हें तोड़ा जा सकता है, इसीलिए ही मैं तोड़ने को कह रहा हूँ। उनकी सत्ता स्वप्न-पत्ता-मात्र है। उन्‍हें तोड़ने के संकल्प मात्र से ही वे टूट जायगी। जैसे दीए के जलते ही अंधकार टूट जाता है, वैसे ही संकल्प के जागते ही स्वप्न टूट जाते हैं । और, फिर निराशा के खंडित होते ही जो आलोक चेतना को घेर लेता हैं, उसका ही नाम आशा है | निराशा स्वयं आरोपित दशा है । आशा स्वभाव है, स्वरूप है। निराणा मानसिक आवरण है। थ्यत्रा आत्मिक आधिर्भाव | मैं कह रहा हैं कि आशा स्वभाव है। क्‍यों ? वयोंकि यदि ऐसा न हो तो जीवन-विकास की ओर सतत गति भर आरोहण की कोई संभावना न रह जाय। वीज अंकुर ६७ बनने को तड़पता है, क्योंकि कहीं उसके प्राणों के किसी अंतरस्थ केन्र पर आशा का आवास है। सभी प्राण अंकुरित होना चाहते हैं और जो भी है वह विकसित और पूर्ण होना चाहता है। आपूर्ण को पूर्ण के लिए अभीष्सा आशा के अभाव में कैसे हो सकती है और पदार्थ की परमात्मा की ओर यात्रा क्या आशा के विना संभव है ? में नदियों को सागर की ओर दौड़ते देखता हूँ तो मुझे उनके प्राणों में आज्ञा का संचार दिखाई पड़ता है। और, जब मैं अग्नि को सूर्य की ओर उठते” देखता हूँ तव भी उन लपटों में छिपी आशा के मुझे दर्शन होते हैं । और क्या यह ज्ञात नहीं है कि छोटे-छोटे बच्चों की आँखों में भद्या के दीप जलते हैं ? और पशुओं की आँखों में भी और पक्षियों के गीतों में भी ? जो भी जीवित है, वह आज्ञा से जीवित है और जो भी मृत है वह निराशा से मृत है । यदि हम छोटे वच्चों को देखें जिन्हें अभी समाज, शिक्षा और सम्यता ने विकृत नहीं किया है, तो बहुत से जीवन-सूत्र हमें दिखाई पड़ेंगे । सबसे पहली बात दिखाई पड़ेगी : आाज्ञा, दूसरी वात : जिनासा, और तीसरी बात : श्षद्धा । निश्चय ही ये गुण स्वाभाविक हैं । उन्हें अजित नहीं करना होता है। हाँ हम चाहें तो उन्हें खो अवश्य सकते हैं। फिर भी हम उन्हें विलकुल ही नहीं खो सकते हैं क्योंकि जो स्वभाव है वह नष्ट नहीं होता । स्वभाव केवल आच्छादित ही हो सकता हैं, विनष्ट नहीं । और जो स्वभाव नहीं है, वह भी केवल वस्त्र ही वन सकता है, अंतस्‌ कभी नहीं। इसलिए मैं कहता हूँ कि वस्त्रों को अलग करो और उसे देखो जो तुम स्वयं हो । सब वस्त्र वंधव हैं और निश्चय ही परमात्मा निवेस्त्र हैँ क्या अच्छा न हो कि तुम भी निर्वस्त्र हो जाओ ? मैं उन बस्त्रों की वात नहीं कर रहा हूँ, जो कपास के धागों से बनते हैं। उन्हें छोड़कर तो बहुत से व्यक्ति निर्वस्त्र हो जाते हैं और फिर भी बही बने रहते हैं जो वें बच््रों में थे--कपास में थरे। कपास के कमजोर धागे नहीं, निषेधात्मक भावनाओं को लौह श्ंखलाएँ तुम्हारे वंधन हैं। उन्हें जो छोड़ता है वही उस निर्दोप नग्नता को उपलब्ध होता हैं जिसकी ओर महावीर ने इशारा किया है । सत्य को पाने को, स्वयं को जानने को, स्वरूप में प्रतिष्ठि होने को--सब ध्प वस्त्रों को छोड़ नग्न हो जाना आवश्यक है । और निराशा के वस्त्र सबसे पहले छोड़ने होंगे क्योंकि उसके वाद हींः दूसरे वस्त्र छोड जा सकते हैं। परमात्मा की उपलब्धि के पूर्व यदि तुम्हारे चरण कहीं भी रुकें तो जावता कि निराशा का विप कहीं न कहीं तुम्हारे भीतर वना ही हुआ है। उससे ही प्रमाद और आलस्य उत्पन्न होता है ५ ण्पिः संसार में विश्वाम के स्थलों को ही प्रभाववश गन्तव्य समझने की भूल हो जाती है। परमात्मा के पूर्व और परमात्मा के अतिरिक्त और कोई गन्तव्य नहीं हैं। इसे अपनी समग्र आत्मा को कहने दो । कहने दो कि परमात्मा के अतिरिक्त और कोई चरम विश्वाम नहीं, क्योंकि परमात्मा में ही पूर्णता है । परमात्मा के पूर्व जो रुकता है, वह स्वयं का अपमान करता है क्योंकि बह जो हो सकता था, उसके पूर्व ही ठहर गया होता है । संकल्प और साध्य जितना ऊँचा हो, उतनी ही गहराई तक स्वयं की सोई दक्तियाँ जागती हैं, साध्य की ऊँचाई ही तुम्हारी शक्ति का परिणाम है। आकाश को छ]ते वुक्षीं को देखो । उनकी जड़ें अवश्य ही पताल को छूती होंगी। तुम भी यदि आकाश छने की आशा और आकांक्षा से आंदोलित हो जाओगे तो निश्चय ही जानो कि तुम्हारे गहरे से गहरे प्राणों में सोई शक्तियाँ जाग जायँगी । जितनी तुम्हारी अभीष्सा की ऊँचाई होती है, उतनी: दही तुम्हारी शक्ति की गहराई भी होती है क्षुद्र की आकांक्षा, चेतना को क्षुद्र बनाती है, तव यदि माँगना ही है तेः परमात्मा को माँगो । वह जो अंततः तुम होता चाहोगे, प्रारंभ से ही उसकी ही तुम्हारी माँग होनी चाहिए। क्योंकि, प्रथम ही अंततः अंतिम उपलब्धि: बनता है । मैं जानता हूँ कि तुम ऐसी परिस्थितियों में निरन्तर ही घिरे हो, जोः प्रतिकूल हैं और परमात्मा की ओर उठने से रोकती हैं । लेकिन व्यान में रखता कि जो परमात्मा की ओर उठे, वे भी कभी ऐसी ही परिस्थितियों से धिरे थे + परिस्थितियों का बहाना मत लेना । परिस्थितियाँ नहीं, वह बहाना ही असली अवरोध बन जाता है। परिस्थितियाँ कितनी ही प्रतिकून हों, वे इतनी प्रतिकल कभी भी नहीं हो सकती हैं कि परमात्मा के मार्ग में वाधा वन जायें | बैसा होना असंभव है । वह तो वैसा ही होगा जैसे कि कोई कहे कि अंधे रा, इतना घना है कि प्रकाश के जलाने में बाधा वन गया है) अंधेरा कभी इतना घना नहीं होता और न ही परिस्थितियाँ इतनी प्रतिकूल होती हैं कि वे प्रकाश के आगमन में बाधा वन सकें । तुम्हारी निराशा के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है । वस्तृतः तुम्हारे अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है । उसे बहुत मूल्य कभी मत दो जो आज है और कल नहीं होगा। जिसमें पल-पल परिवर्तत्त है, उसका मूल्य ही क्या ? परिस्थितियों का प्रवाह तो नदी की भाँति है। उसे देखो, उस पर ध्यान दो जो नदी की धार में भी अडिग चढ्टान की भाँति स्थिर है । वह कौन है ? वह तुम्हारी चेतना है, वह तुम्हारी आत्मा है, वह तुम अपने वास्तविक स्वरूप में स्वयं हो । सब बदल जाता है--वस वही अपरिवर्तित है। उस ध्वूव विन्दु को पकड़ो “और उस पर ठहरो । लेकिन तुम तो आंधियों के साथ काँप रहे हो और लहरों “के साथ थरथरा रहे हो । क्या वह शांत और भडिग चट्टान तुम्हें नहीं दिखाई पड़ती है जिस पर तुम खड़े हो और जो तुम हो ? उसकी स्मृति को लाओ । “उसकी ओर आँखें उठते ही निराशा आज्ञा में परिणत हो जाती है और अंधकार आलोक बन जाता है। स्मरण रखना कि जो समग्र हृदय से, आशा और आइवासन से, शक्ति और “संकल्प से, प्रेम और प्रार्थंवा से, स्वयं की सत्ता का द्वार खटखटाता है, वह कभी 'भी असफल नहीं लौदता है, क्योंकि प्रभु के मार्ग पर असफलता है ही नहीं । "पाप के मार्ग पर सफलता असंभव और प्रभु के मार्ग पर असफलता असंभव । 'पाप के मार्ग पर सफलता हो तो समझना कि भ्रम है और प्रभु के मागे पर असफलता हो तो समझना कि परीक्षा है । बस्तुतः प्रभु की उपलब्धि का द्वार कभी बंद ही नहीं है । हम अपनी ही निराशा में अपनी ही आँख बन्द कर लेते हैं, यह वात दूसरी है। निराशा को हटाओ और देखों--वह कौन सामने खड़ा है ? क्‍या यही वह यूर्य नहीं है जिसकी जोज थी, क्‍या यही वह प्रिय नहीं है, जिसकी प्यास थी ? क्राइस्ट ने कहा है, माँगो और मिलेगा। खटखटाओ और द्वार खुल जायेगे! वही मैं पुनः कहता हूँ । वही ऋाइस्ट के पहले कहा गया था, वही मेरे वाद भी कहा जायग्रा | धन्य हैं वे लोग जो द्वार खटखटाते हैं और आदइचर्य है उन लोगों पर जो प्रभु के द्वार पर हो खड़े हैं और आँख बंद किए हैं ओर रो रहे हैं। 2६, श वे अम हा अभ ह में मनुप्य को रोज बिक्रति से विक्ृोति की ओर जाते देख रहा हैँ, उसके भीतर कोई आधार दृद गया है । कोई बहुत अनिवार्य जीवन स्नायु जैसे सप्ट दी गए हूँ और हम संस्कृति में नहीं, विक्वति में जी रहे हैं इस विक्रोति और विवदन के परिणाम व्यक्ति से समप्टि तक फैल गए हें, परि- वार से लेकर पृथ्वी की समग्र परिधि तक उसकी ब्रैसुरी प्रतिध्वनियाँ सुवार्ट बढ रही हैं। जिये हम संस्कति कहें, वह संगीत कहीं भी सनाई नहीं द्र्। अनृस्य के अन्तस्‌ के तार सुव्यवस्थित हो तो वह संगीत भी हो सकता है । अन्यथा उससे वेसुरा कोई वाद्य नहीं है । फिर जैसे झील में एक जगह प्रत्थर के गिरने से लहर-बुन द्वर कल किनारों लक फैल जाते हैं, बसे ही मनुप्य के चित्त में उठी ह: लि या बिकति की बहरें भी सारी मनुस्यता के अन्तस्थल में आन्‍्टोलन उत्पत्त करनी मनुष्य, जो व्यक्ति मालूम होता है, एकदम व्यक्ति ही नहीं हे, उसकी जे समप्टि नसक फीली हुई हैं इसलिए उसका रोग या स्वास्थ्य बहन संक्रामक होता है । हमारी सदी किस रोग से पीड़ित हैं ? बहुत से रोग गिनाए जाते £। में भी एक रोग की ओर इशारा करना चाहता ढ्ें, ओर मेरी दृष्टि # कप सारे रोगों की जड़ में वही रोग शेप रोग उस एक मृद् शेग के ही परिणाम 6 । मनुष्य जब भी इस मृल रोग से ग्रसित होता हैं, तमी बे आत्मघात और बिनाश में लग जाता हैं । उस मूल रोग को में क्या नाम दूँ ? उसे नाम देखा आसान नहीं है। कि भी में कहना चाहूँँगा कि वह दाग ई-मनृष्य के हद में वा जाना | हम प्रेम के अमाब से पीड़ित है । हमार हि प्र हक ३ ह व कक हो व तों में हृदय नहीं प्रेम के अभाव से बड़ी दुर्घटना और दुर्भाग्य मना. प्र है, वब्योकि बह जीता है किन्तु कक नि प्रेम हमे समग्र से जोड़ता है, प्रेम के अभाव में हम से कल «7 बसा से ञञं हो जाते है प्रथम औ आज का मनुष्य अपने को अकेला और अजनबी अनुभव करता है । वह प्रेम के विना निदजय ही अकेला है। प्रेम के अभाव में प्रत्येक स्वयं में बन्द भणु है, जिससे दूसरे तक न कोई द्वार है, न सेतु है। आज ऐसा ही हुआ हैं । हम सब अपने में बन्द हैं । यह अपने में बन्द होना अपनी बढ्रों में होने से भिन्न नहीं है और हम जीते जी मुद्दे हो गए हैं। कया जो में कह रहा हूँ, उसका सत्य आपको दिखाई नहीं पड़ता है ? क्या आप जीवित हैं और अपने भीतर प्रेम की शक्ति का प्रवाह आपको' अनुभव होता है ? यदि वह प्रवाह आपके रक्त में नहीं है और उसकी धड़कन हृदय में शून्य हो गई हैं, तो समझें कि आप जीवित्त नहीं हैं | प्रेम ही जीवन है और प्रेम के अतिरिक्त और कोई जीवन नहीं है । मैं एक यात्रा में था | वहां किसी ने पूछा था : मनुष्य की भाषा में सबसे मूल्यवान शब्द कौन-सा है। मैने कहा था: 'प्रेम' । तो पूछनेवाले मित्र चौंके थे । उन्होंने सोचा होगा कि में कहुँगा: आत्मा या परमात्मा' । उनकी अपेक्षा भी स्वाभाविक ही थी किन्तु उनकी उलक्षन को देखकर मुझे बहुत हँसी आ गई थी और मेने कहा था: प्रेम ही प्रभु है ।' निश्चय ही इस प्रृथ्वी पर जो किरण शरीर और मन के पार से आती है, वह किरण प्रेम की है । प्रम संसार में अकेली ही अपाथिव घटना है | वह अद्वितीय है। मनुष्य का सारा दर्शन, सारा काव्य, सारा धर्म उससे ही अनुप्रेरित है। मानवीय जीवन में जो श्रेष्ठ और सुन्दर है, वह सब प्रेम से ही जन्म और जीवन पाता है । इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम ही प्रभु है | प्रेम की आश्वा-किरण के सहारे ही प्रभु के आलोकित लोक तक पहुँच जाता है । प्रभु को सत्य कहने से भी ज्यादा प्रीतिकर उसे प्रेम कहना है । प्रेम में जो रस, जो जीवन्तता, संगीत और सौन्दर्य है वह सत्य में नहीं है। सत्य में बह निकटता नहीं है, जो प्रेम में है। सत्य जानने की ही वात है, प्रेम होने की भी । प्रेम का ब्रिकास और पूर्णता ही अन्ततः प्रभु-प्रवेश में परिणत हो जाता है । मैंने सुना है कि आचाय॑ रामानुज से किसी व्यक्ति ने धर्म-जीवन में दीक्षित किए जाने की प्रार्थना की थी | उन्होंने उस से पूछा था 'मित्र, क्या तुम किसी को प्रेम करते ही ?” वह बोला था : "नहीं, मेरा तो किसी पै प्रेम तहीं है । छ्र मैं तो प्रभु को पाना चाहता हूँ ।” यह सुतकर रामानुज ने दुखी हो उससे कहा आए “फिर मैं असमर्थ हूँ । में तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सकता हूं । प्रेम तुम्हारे भीतर होता तो उसे परिशुद्ध कर प्रभु की ओर ले जाया जा सकता प्या | लिकिन तुम तो कहते हो कि बह तुममें हैं ही नहीं !' प्रेम का असाव सबसे बड़ी दरिद्रता है । जिसके भीतर प्रेम नहीं है, वह दीन है। वैसा व्यक्ति अपने हाथों नरक में है । श्वास-इवास का, प्रेम से परि- पूरित हो जाना ही मैंने स्वर्ग जाना है । वैसा व्यक्ति जहाँ होता है, वह स्वर्ग होता है । मनुप्य अद्भुत पौधा है। उसमें विप और अमृत दोनों के फूल लगने की संभावना हैं| वह स्वयं के चित्त को यदि घृणा और अप्रेम से परिपोषित करे तो बिप के फूलों को उपलब्ध हो जाता है और वह चाहे तो प्रेम को स्वयं में जगाकर अमृत के फूलों को पा सकता है। में सबकी सत्ता से स्वयं को पृथक और विरोधी मानकर अपने जीवन को ढालूँ तो परिणाम में अप्रेम फलित होगा । ऐसा जीवन ही अधा्िक जीवन है। वह असत्य भी है। क्योंकि बस्तुतः हमारा होना सागर पर लहरों के होने से भिन्न नहीं है। विश्व-सत्ता से कोई सत्तावान पृथक नहीं है । सबके प्राणों का आदियखोत उसी केन्द्र में है। उसे चाहें तो हम किसी नाम से पुकारें। नामों से कोई भेद नहीं पड़ता । सत्ता एक और अद्वय है । और यदि में अपने जीवन को सर्व के विरोध में नहीं, वरन्‌ सब के स्वीकार और सहयोग में ढालूँ तो परिणाम में प्रेम फलित होता है । प्रेम इस बोध का परिणाम है कि में सर्व सत्ता से परथक और अन्य नहीं हूँ । मैं उसमें हु' और बह मुझ में हूँ । ऐसा जीवन धामिक जीवन है । एक सूफी कथा मुझे स्मरण आती है । किसी प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार को खटखठाया । भीतर से पूछा गया, “कौन हैं ?” उसने कहा “में हूँ तुम्दारा प्रेमी! । प्रत्युत्तर में उसे सुन पड़ा: 'इस घर में दो के लायक स्थान नहीं हैं ।! बहुत दिनों बाद बह पुनः उसी द्वार प्र लौटा । उसने फिर द्वार खटखटाया । फिर बद्दी प्रघनन कि कौन ? इस वार उसने कहा : 'तू ही है ।' और वे बन्द द्वार उसके लिए खुल गए थे । प्रेम के द्वार केवल उसके लिए ही खुलते हैँ जो अपने 'में' को छोड़ने को तैयार हो जाता हैं। किसी एक व्यक्ति के प्रति यदि कोई अपने “मैं” को छोड़ छ३ रू वे के प्रति अपने “में के छोड़ देता हैँ, तो वही प्र म॒ वन जाता हूँ । वसा प्रेम ही भक्ति हैं । प्रेम काम नहीं है । जो काम को ही प्रेम समझ लेते हैं, वे प्रेम से वंचित खतार 2 2 /7॥9 £॥ दो ञः दा 5१ ध्यः न्‍य थे 4, /22॥ 5 /भ ही श्र मम 6 244 | 2 ] । उस सम्मोहन के यांतिक माध्यम से प्रकृति संतति-उत्पादन का जपना व्यापार चलाती है । प्रेम का जायाम उससे बहुत भिन्न और बहुत ऊपर हूं। स्वुतः प्रेम जितना विकसित होता है, काम उतना ही विलीन होता है । वह चल न्यो> ष्ः है) काम में प्रकट होती हैं, उसका संपरिवतंन प्रेम में हो जाता है । प्रेम बक्ति का ही सुजनात्मक ऊर्ध्वीकरण हैँ, और इसलिए जब प्रेम पूर्ण होता ता कामचून्यता जनायास ही फलित हो जाती है। प्रेम के ऐसे जीवच का नाम ही इह्मचर्य है। काम से जिसे मुक्त होना हो, उत्ते प्रेम को विकसित करना चाहिए। काम के दमन से कभी कोई काम से मुक्त नहीं होता । उससे हा 0 8 | मुक्ति तो केवल प्रेम में ही द्वे । ४] अंतिम सत्य है । जब यह भी कहने दें कि अम पौरवार हूँ। यह प्रश्मम सीढ़ी है । जौर स्मरण रहे कि प्रथम के अभाव में अम से परिवार बनता है और प्रेम के विकास से परिवार बड़ा होता जाता हैं । फिर जब उस परिवार के वाहर कुछ भी नहीं रह जाता है, तो वही ट | 2 ५ हि ब्ल्च / तः गरः मनुप्य निपट निजता में रह जाता है । उसका कोई सव॒रह जाता हूं जार पर से उत्तका कोई श्तु मिक्त मत्य है, क्योंकि पारस्परिकता में है. जीवन कक के जावन ता पारस्पारकता म हूं, जावन दास मेंद्े पद्म हू प्रेम में स्व और 'पर' का जे #ज्न्प्धाः डे जय मे सर तार पर का जातक्रमग हैं और जहाँ न स्व है, न पर है वहाँ सत्य हु । सत्च के लिए जो प्याडऊे के ->-5 0 बना ० स्स् तक जब तक पर्व के (के जा पास हू उन्हे प्रम साधना होगा । उस क्षण तक जब तक कि प्रेमी कौर प्रिय न मिठ जायें जोर केवल प्रेम है ् जल अब ने लिन जाय वार कवल प्रम ही शेप न रह जाय। प्रेम को ज्योति जब विपय और विपयी के धर से मक्त री लि दिवते जाए वपया के ध्ुए स मुक्त हो निर्धूम जलता हू, तमा मान हू। तनी निर्दाप है । 5 ब्य आमान्रत्त करता | नीति, भय ओर प्रेम में सोचता हू कि क्या बोलूँ ? मनुप्य के संबंध में विचार करते ही मुझे उन हार आँखों का स्मरण थाता है, जिन्हें देखने और जिनमें झॉँकने का मुझे मौका मिवा है । उतकी स्मृति आते ही में दुब्वी हो जाता है । जो उनमें देखा है, वह हृदय में कॉँटों की भाँति चुभता है । क्या देखना चाहता था और क्या देखने को मिला ! आतत्द को खोजता था, पाया बियाद । आलोक की खोजता था, पाद्रा अंधकार | प्रभू को खोजता था, पाया पाप । मतुप्य को यद्द क्या हो गया है ? उसका जीवत जीवन भी तो नहीं मालूम होता । जहाँ शॉति न हो, संगीत ने हो, बक्ति न हो, आनन्द न हों--बरढ़ाँ जीवन भी क्या होगा? आनन्‍च्दरिक्त, अर्थयूत्य अराजकता को जीवन कस कहें ? जीवन नहीं, बस एक दुख-स्वप्न ही उमर कहा जा सकता है--एक मृचछाी, एक बहोनी और पीढ़ाओं की एक लम्बी शखतला | निश्लय ही यह जीवन नहीं । बस एक लम्बी बीमारी है जिसकी परि- समात्ति मृत्यु में हो जाती है । हम जी भी नहीं वात, और मर जाते हैं। जन्म पा लैना एक बात है, जीवन को पा लेने का सौभाग्य बहुत क्रम मनुष्यों को उपलब्ध हो पाता है जीवन की क्रेवल वे दी उपलब्ध होते हैं, जो स्वयं के और सबव के भीतर परमात्मा को अनुमब कर लेते हैँ । इस अभाव में हम केवल मरीर मात्र हैं और शरीर जड़ है, जीवन नहीं | स्वर्य की धरीर मात्र ही जानता है, बह जीवित होकर भी जीवन को नहीं जानता ह£ । जीवन की अनादि अनन्त धारा से अभी उसका परिचय नहीं हुआ, और उस परिचय के अभाव में जीवन आनन्द नहीं हो पाता है। ९ ही रख 2 ही दुख है। बात्म अजान आत्म ज्ञान हा तो मनुस्य का हृदय आलोक बन जाता है, और बह ने हो तो उसका पथ अश्रकारपूर्ण होगा ढी । बह उस में हो तो वह दिव्य दी जाता है, और बढ़ ने हो तो बढ़ पयुश्नों से भी बदतर पन्न है सरीर के अतिरिक्त और बरीर की अतिक्रमण करता इआ अपने भीतर जो' किमी भी सत्य का अनुभत्र नहीं कर पाते हैँ उनके जीवन परणु-जीवन से ऊपर 5५ नहीं उठ सकते । दरीर के मृत्तिका घेरे से ऊपर उठती हुई जीवन-ज्योति जब अनुभव में थाती है तभी ऊरब्बंगमन प्रारम्भ होता है। उसके पूर्व जो प्रकृति प्रतीत होती थी, वही उसके वाद परमात्मा में परिणत हो जाती है। फिर जब स्वर्य के भीतर अगान्ति हो, दुख हो, संताप हो, अंधकार और जड़ता हो तो स्वभावत: उनके ही कीटाणु हमसे बाहर भी त्रिस्तीर्ण होने लगते है। भीतर जो हो वह बाहर भी फैलने लगता है | अंतस्‌ ही तो आचरण बवता है। थाचरण में हम उसी को बाँटते हैं, जिसे अन्तस्‌ में पाते हैँ। अन्तम्‌ द्वी अन्तत:ः आचरण है। हम जो भीतर हैं, वही हमारे अच्तसंम्बन्धों में बाहर परिव्याप्त हो जाता है। प्रत्येक प्रतिक्षण स्वयं को उलीच रहा है। बिचार में, वाणी में, व्यवहार में हम स्वयं को ही दान कर रहे है । इस भाँति व्यक्तियों के हृदय में जो उठता है, वही समाज बन जाता हैं। समाज में विप हो तो उसके बीज व्यक्तियों में छिप होंगे और समाज को अमुत की चाह हो तो उसे व्यक्तियों में ही बोता होगा । व्यक्तियों के हृदय आनन्द से भरे हों तो उनके थन्तर्सम्बन्धी कमंणा, मैत्री और प्रीति से भर जाते हैं और दुख में भरे हों तो हिसा, बिद्वेप ओर घृणा से । उनके भीतर जीवन-संगीत बजता हो तो उनके बाहर भी संगीत और सुगंध फैलती है, और उनके भीतर दुख और सनन्‍्ताप और रुदन हो तो उन्हीं की प्रति- व्वनियाँ उनके विचार ओर आचार में भी सुनी जाती है। यह स्वाभाविक दी है। आनन्द को उपलब्ध व्यक्ति का जीवन ही प्रेम वन सकता है । प्रेम ही नीति है, अप्रेम अनीति है । प्रेम में जो जितना गहरा प्रविष्ट होना है बह प्रभु में उतना ही ऊपर उठ जाता है, और जो प्रेम में जितना विपरीत होता है वह पथु में उतना ही पत्ित | प्रेम पवित्र जीवन का--वैतिक जीवन का -मूलाधार है । क्राइरट का बचन है : प्रेम ही प्रभु है।' सन्त अगस्ताइन से किसी ने पूछा "में क्या करूँ, केसे जीऊें कि मुझसे पाए न हो ?! तो उन्होंने कहा था ; “प्रेम करो, और फिर तुम जो भी करोगे वह सब ठीक होगा, शुभ होगा ।” प्रेम---दस एक बब्द में बह सच अणु छिपा है जो मनुप्य को पशु से प्रभु तक ले जाता है। लेकिन स्मरण रहे कि प्रेम केवल तभी सम्भव है जब भीतर आनन्द हो। प्रेम को ऊपर से आरोपित नहीं क्रिया जा सकता । वह क्र्ट्र पद काई वस्त्र नहीं है जिसे हम ऊपर से ओढ़ सकें । बह तो हमारी जात्मा है। उसका तो आविष्कार करना होता है। उसे ओढ़ना नहीं, उधाड़ना होता है । उसका बारोपण नहीं, आविभवि होता है । प्रेम किया नहीं जाता है। वह तो एक चेतना अवस्था है जिसमें हुआ जाता है। प्रेम कर्म नहीं है, स्वमाव हो तभी सत्य होता है। और तभी बह दिव्य जीवन का आधार भी बनता है। यह भी स्मरण रहे कि सहज स्फुरित स्वभाव-हूप प्रेम के अमाव में जो नैतिक जीवन होता है वह दिव्यता की ओर ले जाने में असमर्थ है, क्योंकि वस्सुत: वह सत्य नहीं है। उसके आधार किसी न किसी रूप में भय और प्रतोभन पर रखे होते हैं। फिर चाहे वे भय या प्रलोभन लौकिक हों था 'पारतलीकिक । स्वर्ग के प्रलोभन था नर्क के भय से यदि कोई नैतिक और पवित्र है तो उसे न तो मैं नैतिक कहता हूँ और न हो पवित्र | वह सौदे में हो सकता है, लेकिन सत्य में नहीं। नैतिक जीवन तो बेशत जीवन है। उसमें पाने का 'कोई प्रदन ही नहीं है । वह तो आनन्द और प्रेम से स्फुरित सहचर्या है। उसकी उपलब्धि तो उसमें ही है, उसके बाहर नहीं । सूर्य से जैसे प्रकाश झ्वरता है, वैसे ही आनन्द से पत्रित्रता और पुण्य प्रवाहित होते हैं । एक अद्भुत दृश्य मुझे याद आ रहा है। सन्त राविया किसी वाजार से दौडी जा रही थी। उसके एक हाथ में जलती हुई मशाल थी और दूसरे में पानी से भरा हुआ घड़ा । लोगों ते उप्ते रोका और पूछा : यह घड़ा और मशाल किसलिए है और तुम कहाँ दीड़ी जा रही हो ”' राविया ने कहा था: “मैं स्वर्ग को जलाने और नर्क को डुबाने जा रही हू ताकि तुम्हारे धामिक होने के मार्ग की ब्राधाए नष्ट हो जायें ।” में भी राविया से सहमत हैं और स्वयं को जलाना और नर्क को डुवाना चाहता हु'। वस्तुतः: भय और प्रलोभन पर कोई वास्तविक नैतिक जीवन न॑ कभी भी खड़ा हुआ है और न हो सकता है। उस भाँति तो वैतिक जीवन का केबल एक मिथ्या आभास ही पैदा हो जाता है और उससे बात्मविकास नहीं, आत्मबंचना ही होती है । इस तरह के मिथ्या च॑तिक जीवन के आधार को मनुप्य के ज्ञान के विकास + बा ने नाट कर दिए हैं और परिणाम में अनीति नग्य और स्पथ्ट हो गई है । स्वर्ग और नर्क की मान्यताएँ थोथी मालूम होने लगी हैं ओर परिणामतः उनका प्रलोभन और भय भी घून्य हो गया है । आज की अनैतिकता और बराजकता का मूल कारण यही हई । नीति नहीं, नीति का आभास टूट गया है और यह शुभ ही है कि हम एक भ्रम से बाहर हो गए हूं। लेकिन एक बड़ा उत्तरदायित्व भी आ गया है। वह है सम्यक्‌ चैतिक जीवन के लिए नया आधार खोजने का । वह आधार भी यदा से है । महावीर, बुद्ध, काइस्ट या कृष्ण की अन्तद प्टियाँ सिथ्या नैतिक आभासों पर नहीं खड़ी हैं। भय या प्रलोभन पर नहीं, प्रेम ज्ञान और आन हैं उमप्तका नींव रखी गई हैं। प्रेमाधारित चीति का पुनरुद्धार करता है। उसके अभाव मे मनुष्य के सेतिक जीवन का अब कोई भविष्य नहीं है । भय पर आधारित नीति मर गई है। प्रेम पर आधारित नीति का जन्म न हो दो हमारे सामने अरनैतिक होने के अतिरिक्त और विकल्य नहीं रह जाता । जबरदस्ती मनुप्य को नैतिक नहीं बनाया जा सकता है | उसकी बौद्धिक प्रौद़ता अन्धविश्वासों को अंगीकार नहीं कर सकती में प्रेम में द्वार देखता हूं । का पुनर्जन्म हो सकता है। उस द्वार से व्वस्त हुईं पवित्रता और नैतिकता लेकिन मनुष्य में सर्व के प्रति प्रेम का जन्म तमी होता है जब स्वयं में उानन्द का जन्म हो। इसलिए असली प्रदन आनन्दानुभूति अंतर में आनन्द हा तो आत्मानुभृति से प्रेम उपजता है । जा स्वय का आत्यंतिक सत्ता से अपरिच्रित है, वह कभी भी आनन्द को उसलत्य नहीं ही सकता है। स्वरूप-प्रतिप्ठा ही आनन्द है और इसीलिए * हे जानना वस्चुतः नैतिक और जुभ होते का मार्ग है। स्वयं को जानते हा आनस्द का संग्रीव बजने लगता है ओर जान का आलोक फैल जाता है और फिर जिसके दर्णन स्वय के भीतर द्ोते हैं, उसके ही दर्शन समस्त में होते स्वयं के अश को दी सब समस्त सत्ता जान ली जाती है। स्वय॑ को ही सबमें पाकर प्रेम का जन्म होता है। प्रेम से बड़ी और कोई ऋन्ति और न उससे बड़ी काई पवित्रता है और न उपलब्धि है । जो उसे पा जीवन को पा सेता +॥ श्र्थ ५ हसा का 5 हु ह्‌ श्र | गौ की त। रै ४ 220 “यो हि ४ पर" ;- [४ पे नए. नह पैड ४ 2 फ हि के एके. ८] पाई [५७ अब प्ध छः शः डॉ एऐछः बनाए घर पु जी रे. न की ् 2] की > एज +- [5 ई रु फल पर 3 ता “ ि &छ | ए ९ जा स्ि कि ५ ध्य पु . छः छा . पु है पर [ औए डे 2 ॥३० +र. ७ 7 नए 004 घट धर कप का हि हो कि ह कं 0 नं [फिकमी ि >> ४- पट 0४ न 5 ड़ कथा प्‌ एः ँए ४ हा कि या कह हा आए (हि पर हि ब्व्दू । नि पा ऊः ४ *- ए छि० ४5 कक प्र ४ (दे (५ त न ज़ पं. एछ ९ ॥६ ५. छा ॑+ पट छा पए कब फ- फएि हा ५ 3 75: रु: के हि ए कि 5 ते पे हट फर पे हे कक ० | >> हर छा त्ज ए (ए * भरा. ॥ ४ 0 ध पा पि > ए पअकीप कण ्‌ > दर छू है पर म के र्न्‌ड भाण फ र नर ध ि् 0 टी हु कि $े | न का >बर क्षय | पं 2 एप पा छः हज यु आओ एा भर ए फ् च छ्े शक ॥0२ चएए >। ष्छि [ता रद बदौरए! ऐड है 5॥ 3 4 ए पा छ 3 क पे. पा व न का 5 स हि, कफ ++ ग्पए 3 कर + ्ख ए. एट & के ना यह या के का पर] जाल, लत भ ज> 5१ च ८ कै 0 अनद- % ड पे | एज 5 (5 लय छ छ धि लए । ४४ कफ लक 7 कि न ५ हे के पं पी के हि ४ कर हि पर उ> जा फेज, एाझ ४. श्र्य - पा छे दट ४ छि बजा. ३-5 ए )--. पर ७ हू भ- 5 पर ४! | रु कल ५3५- ५ कं डरा के रा हि का >> कक सन्य फि आज एि स स्ि प्‌ पल र ६६ ७ हे हे हे पैक की पट फी >> 5 2 लि 7 5 2 दा र 0 हू ४ नह या जि पिन फू से +- पर परम 05 हे ए 5 ४ ... हैं पे न लि +, चोर 0 मम ० भी: हक हि? ७ की पे न पर हि कप कर शक, ली गए हि हे | पे यु _ भए 5 + छउ रफ्ी ््य भर फ रे हि वाई प न्‍] घन तैए बै: 2! डा भए फिः [छा जा सिर पर के । ब्रा छा ध्ए कया पा ः र् ्मि ५ 9 फ तले हि की ७ भर 7: पए ८ भर पेट फेज ही नौए मो कह | --+ पिंक की ० ही कि का ु किन 5 8, फ ५5 ५-- । हे ५ फेर थे मे पं कि के पे 0 , के मओि ओ फि य द ए | सडक झा फएी > पति 3 भेक 3 न नी की (६ हि ४ ४ $% + ४ जि छू 5 च्फ्ू [ध बा ि+ अ्ज प+े ६६ नो ह एफ रे पु गण के पं जप जिला (२4 छा ्ि रे र पेज १६ नर ४ नि | प्र ४० 326 ४ यु - थे है ः छः छि 9 सकी $ए .. प्रए े है एए 7 एफ कि के 5 ही % पु >>. भीए हे फि पी ८ पता पच्छैक पथ के |$ 7 |+ट ७ भफ थे भंज् लौट? ५... फ ५8 एज प अर सि फि ५ 5 नं ए्ा डे (बन न्ज्् धर - ु . प्रा डा कक दी कि पी एफ के के दैट जि पे कि एज था ५ के की नर __ छिए ३5 ; फिणज फपैज. धन न | 2५ | सन्‍म छि ह फहा ४ आरि2 ऊन डा ५ न जज अन्ड प्र ५ गत ह>हि।एि हि आह ही है. कं #० आकर | है | प्रजा क्र हु ण्राम है /] परि बढ तो ।८ १. श्र ता ८. से प्र का आप बात ट नजर ॥ ट पाया जाता 4] रू शग ते प्रबाद ही, तो ्> #5 ५4५ 4 थाई: ८ ग्याःः ४0 रा व27 प्रयस साधा ने संग कार र प्र रु रु ह 2 य्रागा जल मर नेक पृम्बस्ध 22 गं दर | को उपलब्ध करो, तो प्रेम पारिश्रमिक में मिल जाता है। बस्ती दात है पा उसका दीया जलेगा, तो प्रेम का प्रकाश मिलेगा ही। प्रन्ना हो और प्रेम न हे यह असंभव है । ज्ञान हो और अहिसा न हो, वह कैसे हो चकता है ? इसलिए 'ही अहिसा को सत्य-ज्ञान की परीक्षा माना गया है। वह परम पर्न है, हयो यह आत्यंतिक कसौटी है। उसके निप्कर्प पर खरा उत्तरकर ही घने झूरा साबित होता है। प्रजा कैसे उपलब्ध हो, यह विचारणीब है। धर्म की मूल जिज्ञासा भी यही है। हम में जो ज्ञान चक्ति है, वह विषय- अक्क हो तो प्रज्ञा वन जाती है। विपय के अभाव में ज्ञात स्वयं को ही जानता ५ / . क्षे द्वारा स्वयं का ज्ञान ही प्रज्ञा है। उस बोध में न कोई जाता हे ।३ ज्ञेय, मात्र ज्ञान की शुद्ध शक्ति ही गेप रह जाती हैं। उसका स्व का प्रकाशित होना प्रज्ञा है। ज्ञान का यह स्वयं पर लौट आना मलुप्व- * की सबसे बड़ी क्रांति है। इस क्रांति से ही मनुप्य स्वयं से सम्बन्धित रा 4, भ्प हे ॥" है। ऐसी क्रांति समाधि से उपलब्ध होती है। प्रजा का साधन समाधि है । साधन है; प्रज्ञा साध्य है, प्रेम उस सिद्धि का परिणाम है मनुष्य-वित्त सतत विपय-प्रवाह से भरा है। कोई न कोई ञ य हमार जान को परे हुए है | ज्ञय से ज्ञान को मुक्त करना है । उस खूटी से मुक्त हीकर हूँ 'उराकी स्वयं में स्थिरता और प्रतिष्ठा होगी । समाधि इस मुक्ति का उपाय हैं। सुपुष्ति में भी मुक्ति होती है, लेकिन वह अवस्था मूच्छित है । सपत्ति में मन स्वयं में लीन हो जाता है ! यह स्थिति उसका अपना सवह्य । इससे ही कहते हैं : 'स्वप्ति' (सोता है)। स्व का अथ है अपने आप, और अभी ति का बर्ष है “प्रवेश कर जाना” । अपने आप में प्रवेश कर जीना ह्दी सूपृष्ति है समाधि और सूपृुप्ति केवल एक बात को छोड़कर बिलकुल समात तू अभेतत शौर सूर्छित अवरधा है, समाधि पूर्ण चेतन और भप्रकट । सघाएतल | सिए सूघृ प्ति भें हम जगत्‌ के साथ एक हो गए मालूम होते है और समाद्रि ॥ /जप लिए रशर् से समाधि सुघृष्ति नहीं है । अनेक मनस्तत्ववेत्ताओ को उपलब्ध करो, तो प्रेम पारिश्रमिक में मिल जाता हैं। असली वात है प्रज्ञा । उसका दीया जलेगा, तो प्रेम का प्रकाश मिलेगा ही | प्रजा हो और प्रेम न हो, यह असंभव है | ज्ञान हो और अहिसा न हो, यह कैसे हो सकता हैं ? इसलिए वही अहिंसा को सत्य-जान की परीक्षा माना गया है। वह परम धर्म है, क्योंकि वह आत्यंतिक कसौटी है। उसके निष्कर्ष पर खरा उतरकर ही धर्म खरा साबित होता है। प्रजा कैसे उपलब्ध हो, यह विचारणीय है । धर्म की मूल जिज्ञासा भी यही है। हम में जो ज्ञान झक्ति है, वह विपय- मुक्त हो तो प्रना वव जाती है। वियय के अभाव में ज्ञान स्वयं को ही जानता हे । स्वयं के द्वारा स्वयं का ज्ञान ही प्रज्ञा है। उस बोध में न कोई ज्ञाता होता है, न कोई जय, मात्र ज्ञान की शुद्ध शक्ति ही शेप रह जाती है। उसका स्वयं से स्वयं का प्रकाशित होना प्रजा है। ज्ञान का यह स्वयं पर लौट आना मनुप्य- चेतना की सबसे बड़ी क्रांति है। इस कऋांति से ही मनुप्य स्वयं से सम्बन्धित होता है और जीवन के प्रयोजव और बर्थवत्ता का उसके समक्ष उद्घाटन होता है । ऐसी क्रांति समाधि से उपलब्ध होती है। प्रजा का साधन समाधि है। समाधि साधन हैं; प्रज्ञा साथ्य है, प्रेम उस सिद्धि का परिणाम है । मनुष्यनवित्त सतत विपय-प्रवाह से भरा है । कोई न कोई नो ये हमारे ज्ञान को बेरे हुए है | ज्ञेय से ज्ञान को मुक्त करना है । उस खूँठी से मुक्त होकर ही 'उम्रकी स्वयं में स्थिरता और प्रतिप्ठा होगी । समाधि इस मृक्ति का उपाय है। नुपृस्ति में भी मृक्ति होती है, लेकिन वह अवस्था मृच्छित है । सुपृष्ति में मन स्त्रयं में लीन हो जाता है | यह स्थिति उसका अपना स्वरूप है। इससे ही कहते हैं : स्वष्ति” (सोता है) । स्व का बर्थ है अपने आप, और अपीति का अर्थ है “प्रवेश कर जाना” । अपने आप में प्रवेश कर जाना हो नुपुप्ति है। समाध्रि और सुपुष्ति केवल एक बात को छोड़कर बिलकुल समान हैं । सुपूष्चि अचेतन और मूच्छित अवस्था है, समाधि पूर्ण चेतन और अपग्रकट । ॥]क्‍ /07 (0 इसीलिए सुपुप्ति में हम जगत्‌ के साथ एक हो गए मालूम होते हैँ, और समाधि मं परम चेतना के साथ | इसीलिए स्मरण रहें कि समाधि सुपुप्ति नहीं है । अनेक मनस्तत्ववेत्ताओं छ0 का ख्याल है कि चेतना जब निविपय होगी, तो निद्रा आ जायगी । यह क्रांति विना प्रयोग किए सोचने से पैदा हुई हैं। चेतना सो जाय तो निविपय हो जाती है। लेकिन इससे यह फलित नहीं होता है कि वह निविपय होगी तो सो जायगी।, उसे निविपय बनाना ही इतने श्रम और सचेष्ट जागरुकता से होता है कि उसकी उपलब्धि पर सो जाना असंभव है | उसकी उपलब्धि पर तो शूद्ध बुद्धता ही थाप रह जाती है। समाधि-साधना के तीन अंग हैं : १ चित्त-विपयों के प्रति अनासक्ति ॥ २ चित्त-वृत्तियों के प्रति जागरकता और ३ चित्त-साक्षी की स्मृति । चित्त-विपयों के प्रति अनासक्ति से उनके संस्कार बनने वन्द होते हैं, और चित्तवृत्तियों के प्रति जागरुकत। से उन वृत्तियों का क्रमश: विसर्जन प्रारम्भ होता 5 है, और चित्तसाक्षी की स्मृति से स्वयं प्रवेश का द्वार खुलता है । जो वस्तु जहाँ उद्गम पाती है, उससे ही अन्ततः लीन भी होती है।, उद्गम बिन्दु ही लय बिन्दु भी होता है । और जो उद्गम है, जो लय है, वही स्व-स्वहूप भी है। समाधि चित्त की लयावस्था है, जैसे सागर की लहरें सागर में ही अन्ततः लय को प्राप्त हो जाती हैं, वैसे ही चित्त भी, समाधि अवस्था में अपनी समस्त वृत्ति त्रंगों को शून्य कर परम चेनना में लय होता है। चित्त और चित्तवृत्तियों के समग्र संस्थान का केन्द्र अहंकार हैं। उनके विलीन होने से वह भी विसर्जित हो जाता है। तव जो शेप रहता है, और जिसकी अनुभूति होती है, वही भात्मा है । अहिंसा क्‍या है ? यह तो रोज ही मुझसे पूछा जाता है। मैं कहता हू आत्मा को जान लेना अहिसा है । मैं यदि स्वयं को जानने में समर्थ हो जाऊँ, तो साथ ही सबके भीतर जिसका वास है, उसे भी जान लूँगा। इस बोध से प्रेम उत्पन्न होता है, और प्रेम के लिए किसी को भी दुःख देना असंभव है। किसी को दुख देने की यह असंभावना ही अहिसा है । आत्म वज्ञान का केन्द्रीय लक्षण अहं है। उससे ही समस्त हिसा उत्पन्न होती है । “मं” सब कुछ हू और शेप जगत्‌ मेरे लिए है। “मै” समस्त सत्ता का केन्द्र और लक्ष्य हें--- इस “मैं” भाव से पैदा हुआ शोपण ही हिसा है) आत्म ज्ञान का केन्द्रीय लक्षण प्रेम है । ८१ जहाँ अहं शून्य होता है, वहीं प्रेम पूर्ण होता है। जगत्‌ में दो दी अकार की चेतना-स्थितियाँ है: अहूं की और प्रेम की। अहं संकीर्ण और 'अणुस्थिति है, प्रेम विराट बौर ब्रह्म । अहं का केच्ध “मैं” है, प्रेम का कोई केन्द्र नहीं है, या 'सर्व' ही उसका केन्द्र है। अहूँ अपने लिए जीता है, प्रेम सबके लिए जीता है। »हँ शोपण है, प्रेम सेवा है। प्रेम से सहज प्रवाहित सेवा ही अहिसा है। समाधि को स्राथो, ताकि तुम्हारा जीवन प्रज्ञा के प्रकाश से भर जाय। जब भीतर प्रकाश होगा, तभी बाहर प्रेम बहेगा । प्रेम आत्मिक उत्कर्प और उपलब्धि का श्रेप्ठतम फल है। जो उसे पाए बिना समाप्त हो जाते हैं, वे ज्जीवन को बिता जाते ही समाप्त हो जाते हैं । प्रेम को नहीं जाना तो कुछ नी नहीं जाता, क्योंकि प्रेम ही प्रभू है। मैं मृत्यु सिखाता हूँ म॑ प्रकाश की वात नहीं करता हूँ, वह कोई प्रच्न ही नही है। प्रध्न चस्तुतः आँख का है। वह है, तो प्रकाथ है। वह नहीं है, तो प्रकाश नही है । -क्या है वह, हम नहीं जानते हैं। जो हम जान सकते है, वही हम जानते है । इसलिए विचारणीय सत्ता तही, विचारणीय ज्ञान की क्षमता है। सत्ता उतनी ही ज्ञात होती है, जितना ज्ञान जागृत होता है । कोई पूछता था : आत्मा है या नही है ? मेने कहा : आपके पास उसे देखने की आँख है, तो है, अन्यथा नहीं ही है। साधारणतः हम केवल पदार्थ को ही देखते है । इंद्रियों मे केवल वही ग्रहण होता है। देह के माध्यम से जो भी जाना जाता है वह देह से अन्य हो भी कैसे सकता है । देह, देह को ही देखती है और देख सकती हैं। बदेही उससे अस्पर्शित रह जाता है। आत्मा उसकी अहण-सीमा में नहीं जाती है । वह पदार्थ से अन्य है। इसलिए उसे जानने का मार्ग भी पदार्थ से अन्य ही हो सकता है । आत्मा को जानने का मार्ग धर्म है। धर्म उपदेण नहीं, वह उपचार है वह उस आतरिक चल्षु की चिकित्सा है जिससे जो पदार्थ के अतिरिक है और 'पदार्थ का अतिक्रमण करता है, उसे जाना जाता हैं । वह कोई विचारणा नहीं, साधना है। विचारणा एऐंद्रिक है। क्योकि सब विचार इंद्रियों से ही ग्रहण होते है और इसलिए विचारणा कभी ऐद्रिक का अतिक्रमण नही कर पाती है । विचार अंतत्‌ में जागते नही, वाहर से आते ब्रे अंतस्‌ नहीं, अतिथि है । वे स्वयं नही, पर है । इसलिए विचार अपनी चरम परिणति मे विज्ञान वनकर अनिवायंत: पदार्थ- बन्द्रित हो जाता है और जो विचार का 'उसके ताकिक अन्त तक अनुगमन करेगा बह पायगा कि पदार्थ के अतिरिक्त जगत्‌ में और कुछ भी नही है । विचार स्वन्पत: आत्मा के निषेध के लिए आवद्ध है, क्योंकि उसका जन्म और ग्रहण उन्द्रियों से होता है और जो इन्द्रियों के अतीत है, वह उसकी सीमा नही । इसलिए आत्मा को प्रकट करनेवाले सब विचार असगत भर तकंमून्य है । न्प््ठे मालूम होते हैं। यह स्वाभाविक ही है। धर्म अतवर्य है, क्योंकि धर्म कोई बिचार नहीं है। वह असंगन्न भी है 8 क्योंकि इंद्रिय-न्ान से उसकी कोई संगति संभव नहीं है, और वह इच्धियों से नहीं बरत्‌ किसी वहुत ही अन्य और भिन्न मार्ग से उपलब्ध होता है। धर्म विचार की अनुभूति नहीं, निव्रिचार चैतन्य में हुआ बोध है। विचार: इंद्रियजन्य है। निविचार चैतन्य अतीन्द्रिय है। विचार की चरम निष्पत्तिः पदार्थ है । निविचार चँतन्य का चरम साक्षात्‌ आत्मा है। इसल्निए जो विचारणा' आत्मा के संबंध में है, वह व्यर्थ है। वह साधना सार्थक है जो निविचारणा की ओर है । विचार के पीछे भी कोई है, वही बोध है, विवेक है, वृद्धि है। विचार में' ग्रस्त और व्यस्त उसे नहीं जान पाता है । विचार धुएँ की भाँति उस अग्नि को' ढांके रहते हैँ । उनमें होकर सारा जीवव ही घुआँ हो जाता है और व्यक्ति उस' ज्ञानाग्नि से अपरिचित ही रह जाता है जो उसका वास्तविक होना है । विचार पराए हैं। वह अग्नि ही अपनी है | विचार ज्ञान नहीं है। वही चक्ष है, जिससे सत्य जाना जाता है। वह नहीं है, तो हम अंधे हैं, और बंधेपन में प्रकाश तो क्या, बँधेरा भी नहीं जाना जा सकता । एक बार एक साधु के पास कुछ लोग अपने अंधे मित्र को लाए थे । उन्होंने उसे बहुत समझाया था कि प्रकाक्ष है, पर वह मानने को राजी नहीं हुआ था। उसका ने मानना ठीक भी था। मानना ही गलत हुआ होता, यही विचार-संगत था । जो नहीं दीख रहा था, वह नहीं था । हममें से अधिक का तर्क भी यही' है। वह अंधा भी विचारक था और विचार के नियमों के अनुकूल ही उसका बह व्यवहार था। उसके मित्र ही गलत थे। साधु ने यही कहा था। उसने कहा था : मेरे पास क्यों लाए हो ? किसी वैद्य के पास ले जाओ | तुम्हारे मित्र को प्रकाश समझाने की नहीं, चिकित्सा की आवश्यकता दयकता है । मे भी यही कहता हूं । आँख है तो प्रकाश है और जो प्रकाशन के लिए सच है वही आत्मा के लिए भी सच ध सत्य वहा है जी प्रत्यक्ष हो । यद्यपि जो प्रत्यक्ष है, केवल वही सत्य नहीं है। सत्य अनन्त हैं। अनत्त प्रत्यक्ष भी हो सकता है । विचार हमारी सीमा पं है, इंद्रियाँ हमारी सीमा हैं। इसलिए उनसे जो जाना जाता है वह वही है जिसकी सीमा है । असीम को, अनन्त को, उनसे ऊपर उठकर जानना होता है। इंद्रियों के पीछे विचार-शुत्य चित्त की स्थिति में जिसका साक्षात्‌ होता है, वही अनन्त, असीम, अनादि आत्मा है। आत्मा को जानने की आँख शुन्य है। उसे ही समाधि कहा है। यह योग है। चित्त की वृत्तियों के विसर्जन से बन्द आँखें खुलती हैं और सारा जीवन अमृत-प्रकाश रो आलोकित और रूपांतरित हो जाता है। वहाँ पुनः पुछना नहीं होता कि आत्मा है यानहीं है। वहाँ जाना जाता है। वहाँ दर्शन है। विचार, वृत्तियाँ, चित्त जहाँ नहीं हैं--- वहाँ दर्शन है । शुन्य से पूर्ण का दर्शन होता है और शून्य आता है विचार-प्रक्रिया के तट्स्थ चुनाव रहित साक्षीभाव से । विचार में शुभाशुभ का निर्णय नहीं करना है। वह निर्णय राग या विराग लाता है। किसी को रोक रखना और किसी को परित्याग करने का भाव उससे पैदा होता है। वह भाव ही विचार-बंधन है। वह भाव ही चित्त का जीवन और प्राण है। उस भाव के आधार पर ही विचार की श्वखला अनवरत चलतीः चली जाती है। विचार के प्रति कोई भी भाव हमें विचार से बाँध देता है । उसके तटस्थ साक्षी का अर्थ है निर्भाव। विचार को निर्भाव के बिन्दु से देखना ध्यान है । बस देखना है, और चुनाव नहीं करना है, और निर्णय नहीं लेना है। यह देखना बहुत श्रमसाध्य है । यद्यत्रि कुछ करना नहीं है पर कुछ न कुछ करते रहने की हमारी इतनी आदत बनी है कि कुछ न करने जैसा सरल और सहज कार्य भी बहुत कठिन हो गया है । बस, देखते मात्र के विन्‍्दु पर थिर होने से क्रश: विचार चिलीन होने लगते हैं, वैसे ही जैसे प्रभात में सूर्य के उत्ताप में दूब पर जमे ओसकण वाप्पी- भूत हो जाते हैं । बस, देखने का उत्ताप विचारों के वाप्पीभूत हो जाने के लिए पर्याप्त हैं। वह राह है जहाँ से शून्य उद्घाटित होता है और मनुष्य को आंख मिलती है और आत्मा मिलती है । में एक अँधेरी रात में अकेला बैठा था। बाहर भी भकेला था, भीतर थी अकेला था। बाहर किसी की उपरिथति नही थी और भीतर बिसी बए घर झ विश 'किचार नहीं था । कोई क्रिया भी नहीं थी। वह देखता था, कुछ देखता था ऐसा नहीं, वस देखता ही था। उस देखने का कोई विपय नहीं था । वह देखना निविपय और आधारशून्य था । वह किसी का देखना नहीं, वस मात्र देखता ही था। किसी ने आकर पूछा था कि कया कर रहे हैं ? अब मैं क्या कहता ? कुछ कर तो रहा ही नहीं था । मैने कहा : में कुछ नहीं कर रहा हूँ । में वस हूँ, यह मात्र होना ही शून्य है। यही वह बिन्दु है जहाँ पदार्थ का अतिक्रमण “और परमात्मा का आरम्भ होता है। मैं शून्य सिखाता हूँ । मैं यह मिटना ही सिखाता हूँ। में यह मृत्यु ही “ंसखाता हूँ! और यह इसलिए सिखाता हूँ कि तुम पूर्ण हो सको, तुम अमृत हो असको। कैसा आदचर्य है कि मिटकर जीवन मिलता है और जो जीवन से चिपटते हैं वे उसे खो देते हैं। पूर्ण होने की जो चिन्ता में है, वह रिक्त और -शून्य हो जाता है और जो थून्य होकर निश्चित है, वह पूर्ण को पा लेता है ! बूँद, बूँद रहकर सागर नहीं हो सकती । वह अहंकार निष्फल है। उस “ दिशा से बूंद तो मिट सकती है, पर सागर नहीं हो सकती है । वूंद बने रहने >का आग्रह ही तो सागर होने में बाधा है। वही तो आडम्बर और रुकावट है । सागर की ओर से द्वार कभी भी बन्द नहीं है, क्योंकि जिसके द्वार पर बूँद “अपने ही हाथों अपने में बन्द होती है। उसकी दीवारें और सीमाएँ उसकी * अपनी ही हैं। सागर तो वह होता चाहती है पर अपने बूँद होने को नहीं तोड़ना चाहती है। यही उसकी दुविधा है। यही दुविधा मनुप्य की है । यह “असम्भव है कि बूँद, बूँद भी रहे, और सांगर हो जाय; और व्यक्ति, व्यक्ति भी रहे और ब्रह्म को जान ले, ब्रह्म हो जाय। "मं! की बूंद मिटती है तो आत्मा सका सागर उपलब्ध होता है | आत्मा का सागर बहुत निकट है और हम व्यर्थ ही बूँद को पकड़कर रुके रहुए हैं। आत्मा का क्षमृत निकट है और हम व्यर्थ ही मृत्यु को ओढ़कर बैठे : हुए है । बूंद को मिटाना पड़ेगा और हमें अपने ही हाथों से ओढ़े हुए बस्त्रों 5 को दूर करना पड़ेगा और अपनी सीमाएँ छोड़नी ही होगी । तभी हम अनन्त * और असीम नत्य के अंग हो सकते हैं । यह साहस जिनमें नहीं है वे धामिक नहीं हो सकते है । धर्म मनुप्य-जीवन स्का चरप साहस है क्योंकि वह स्वयं को शुन्य करने और विसजित करने का 5६ मार्ग है। धर्म भयभीतों की दिद्या नहीं है। स्वर्ग के लोभ से पीड़ित और नरक के भय से कंपितों के लिए वह प्ररुषार्थ नहीं है । वे सारे प्रलोभन और भय: बूँद के हैं । उन भर्ों और प्रलोगनों से ही तो वूँद ने अपने को बनाया और बाँधाः ट्टै। को मिटाना है और व्यक्ति को मृत्यु देना है। जिसमें इतना अभय ओऔर साहस है वही सागर के निमंत्रण को स्वीकार कर सकता है । सागर का, निमंत्रण ही सत्य का निमंत्रण है । ग्राचार्य रजनी श का साहित्य अज्ञात की ओर अन्तर्यात्रा अन्तर्बीणा अमृतकण अहिसादर्श न अस्वीकृति में उठा हाथ (भारत, गाँधी और मेरी चिन्ता) कामयोग, धर्म और गाँधी ऋन्तिवीज कुछ ज्योतिर्मय क्षण गहरे पानी पैठ गीतादशंन : पुष्प १, २, ३, *, 'जीवन और मृत्यु “जिन खोजा तिन पाइयाँ ज्यों की त्यों धर दीन्ही चद्ररिया 'ढाई आखर प्रेम का नए संकेत नए मनुष्य के जन्प की दिणा 'पथ के प्रदीप 'परिवारनियोजन प्रभु की पगडंडियाँ 'पूर्व का धर्म : पद्चिस्त वा विज्ञान प्रेम के फूल प्रेम है द्वार प्रभु का महावीर : मेरी दृष्टि में मिट्टी के दीए मैं कहता आँखन देखी मैं कौन हूँ ? मन के पार शान्ति की खोज साधनापथ सत्य का सागर झून्‍्य की नाव २.०० प्रेस में ५.०० ०.५० ०५४० ५.०० 9.00 ४,०७० १,०७० प्र 0०0 १ छ,०० १ 0०0 २०,०० ४,०० प्,०० २,०० ०,७४५ प्रेस में ०,७४५ "४.०० .५४० २०० ८.०० ३०:०० प्रेस में 7.०० ३.०० १.०० २.०० प्रेस में ३.०० सत्य की खोज ४,००० सत्य के अज्ञात सागर का आमनन्‍्त्रण | १,५०- सत्य की पहली किरण ११ समाजवाद से सावधान हि सिहनाद १,१५० संभावनाओं की आहट ६,०० संभोग से समाधि की ओर ५.०० सूर्य की ओर उड़ान १.००: सारे फासले मिट गए १.६५ ज्योतिश्चिखा--त्रमासिक पत्रिका १,२४५: युक्रान्द--मासिक पत्रिका १,०० आचार्य रजनीश : समन्वय, विग्लेपण एवं संसिद्धि ( द्वितीय संग्योधित संस्करण ) -+डा० रामचन्द्र प्रसाद ज्वर थ्प 2० (4 गआचार्यश्वी का नवीनतम सर्वोत्तम प्रकाशन महावीर : मेरी दृष्टि में प्रस्तुत कृति साधनाणिविर काब्मीर में दिए गए आवचार्यंश्री के प्रवचनों का संग्रह है | इसमें जैनवर्म के चौत्रीसत्रें तीर्य कर भगवान्‌ महावीर स्वामी के जीवन-प्रसंगों तथा उनकी मान्यताओं को वैजानिक ढंग से समझाया गया है और इसमें प्रतिक्रमण, सामायिक, ब्नत, काय क्लेश, उपवास, अहिंसा, ध्यान आदि जैनधरम के अनेक महत्त्वपूर्ण बिवयों के अद्भुत रहस्य प्रकट हुए हैं। साथ ही साथ अशरीरी आत्माओं से सम्पर्क, जातिस्मरण, मुक्त आत्माओं का पुनरागमन, जड़ एवं परयुजगत में तादात्म्य, निगोद आदि धामिक जगत के परम ग्रुह्म विषयों का भी पहली वार उद्घाटन हुआ है । कृति प्रयोगात्मक है। आचार्य श्री द्वारा प्रदर्शित मार्ग से गहरे तल पर उतर कर पाठक स्वयं सत्य का अनुभव कर सकते हैं । आकार : टडिमाई :: पृष्ठ ७९८४ :: दिल्‍ली १९७१: : सजिल्द : : मूल्य र० ३०००० व पु हे हे ड़ 8&70877.&8779 एप्ट॥5प्त 80055 07 530528378२24 588ग्श्र5छ9$प ज. 7 6प३ 5 7फा) एा२0॥ पप्तड 0राजार८&, घरा।यण फपएट्ारश0प : २2/76७ ]. खरा) ०6 8०-४१ ९शीरिवाणा 4.00 2, 86९05 ० २०९ए०07/ण7/ए 4४008708 450 -3. ?29080979 ० ०7-५४०!५४॥०6 0:80 4. ५/]्ृघ0 ४४9 ! ? 3*00 5. उद्यागीशा [.9॥]0$ 450 ५6, ज्र॥85 ०7,0ए6 870 रिक्ातणा ॥॥002॥8 3550 पर. 40ए7१$ [6 एगॉटा0जाा -50 8 फ+%0॥ $66 00 8790720075$00737855 6'00 वा, 0रा(हर/, छोरता।5छ 8006,छ&798 : 9. प॥6 ४एश९76$8 0 7,6 820 ॥26640॥ 400 0., ॥४८०ाशाणा : 4 ४९८फ ॥)07807 200 ]]., 869ण०6 876 8890706 2'00 2. ॥8॥६ ० ॥॥6 3076 ६0 (॥6 ]076 250 3, 7,570 ; & 867 67 0 एड56 डिावतवाएं 2:00 4, ४०088 : 25 579078700705 ल्‍9997०7ा98 2-00 5. ॥76 ५॥४ 829708 -50 [6, 96 (9(€०९55 (026 200 37. ॥76 &[0गा /ए४० 2:00 8. ॥॥6 प'फ्मागए व] 2'00 9, [॥6 हशा॥)व/! (९६55३९९८ 2*00 20, २४॥३४६ 5 +४(९०६॥०॥ ? 3.00 2], ॥॥6 70978790॥]8655 फशशगशाःशंता 2.00 जाता, (शाप 057, 58ाए)एड ए7 ४८स3२9५ 7२७ ॥]प5एढात :; 22. 46#६796 ॥६९७४ : 4 0॥॥7756 ]25 23. 2#6 8886 | #'६६४४० ६ : ७ 909 पं रेकयो7025]"8 रिज्ञाशुणा ० कएशांणा०.--907. 7२, 0', 28580 20:00 "24. #.7|67#9 #6 767: वफ्०258९॥ावथ रित्ांप्र्टचा ना, रि, (:. 778590 (77 70255) आचार्य रजनीश की तीन श्रममोल क्षत्तियाँ १. सम्भावनाओं की आहट (मनुष्य को स्व के अस्तित्व एवं आत्मबोध का परिचये)-- आकार डिमाई, पृष्ठ १६२, दिल्‍ली १९७१, ० ६०० अनुक्रत :--विरामदीन अन्तर्यात्रा चेतन का अपना हार; विपरीत ब्रूतों का समस्वय संगीत; अपनता>अपना अँधेरा। धारणाओं की आग; अंधे मन का ज्वर; संकल्पों के बाहर । ३. प्रेम है द्वार प्रभु का तिरह प्रवचतों का संकलन)-- स्वामी योग चिस्मय और निकलंक द्वाराः सम्पादित | बाकार डिमाई, पृष्ठ २५६, दिल्‍ली १९७१, रू० ८,०० अस्तवस्तु : (१) भय या प्रेम ? (२) जीवन की कला, (३) आनन्द- खोज की सम्यक्‌ दिशा, (४) यह बधूरी दिला; (५) शिक्षा, महत्त्वाकांक्षा और युवा-नीढ़ी का विद्रोह, (६) महायुद्ध या महाक्रान्ति ? (७) शिक्षा में कान्ति,. (5) नारी और ऋान्ति, (९) अस्तर्यात्रा के सूत्र, (१०) अहंकार, (११) क्‍या, मनुष्य एक यंत्र है? (१२) मित्र ! निद्रा से जागो, (१३) श्रेम है द्वार प्रभु का ।, ३. कामग्रोग, घ्में और गाँघो लत सं० डा० रामचन्द्र प्रसाद; पृष्ठ २२४ : मूल्य रु० ३१०० मोतीलाल बनारसीदास दिल्‍ली : बनारस : पटना