४०४४ ६४४९४/४/०४०/ ३३ हर 22200 प्र रा किक. रा 5 बोर सेवा मन्दिर ४£ हि श 92 दे हर ५ दिह्लो दर श जमे 5४ 4 5 ८ हम श्र ग हक कं हर ् रै रे हु रु हि के रॉ १24 ८, ८ <. _+-+ हि अं । पा |ैट क्रम सरया ९ 0 कक, स्प्न्न्नश्जि हब भर श्र पाल न ० हा रा ्ँ हे 2 स्पएठ ार की [ ५ कक - े 4 हा मय 24 07 2227 जपज्टप्ट जज: 00०:७:एएफए:ए:ज:फए:फट2०ए जज एज: जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थमाला ७. श्रीजिनभद्वगणि-क्षमाश्रमण-विरचित जीतकल्प-सूत्रम॒ ( विषमपद॒व्याख्यालंकृत-सिद्धसेनगणिसन्टब्ध बृहचूर्णिसमन्वितम्‌ ) +०० 5 ्कह॥एएड्ट ला संपादक मुनि जिन विजय प्रकाशक जैन साहित्य संशोधक समिति अमदाबाद नाम आम मम 72, आब अकम (मद्रण आम 2900 हर धान, आय, जया जद, 20004 >> आय - आम उदथ-#न 209 20क #य- का आय मम शा अब अर कक भव, था यथा! प्य बीराब्द २४५३ ] [ विक्रमाब्द १९८३० 2: ॥72॥0 ॥00% |०|॥4७ 2 6 फर|॥४2४ ॥0/% ॥॥% के ( 208 #टक॥8५७८|॥ । 22% 8 '+ ६ 2॥५ ॥/9। '08॥॥8#%५ ॥७।2॥/ #/५ ज्च्च्य्य्य्श््ज् न नललल्ज्--++--_+-++्+++ ता क््ज्््ी-ीा-ित-ण ओओ.. जेन साहित्य संशोधक भ्रन्थमाला जीतकल्प-सूत्र संपादक--- मुनि जिन विजय अस्य जीतकल्पसूत्रस्य प्रथमप्रकाशनकतृभ्यः जमेनि-विषयवास्तव्य-अध्यापक श्री अन्स्ते ठॉयमान ( छाणठ ॥शाश्या ) नामथेय-पण्डित प्रवरेभ्यः समर्पितमिदं ग्रन्थरज्नम्‌ सम्पादकेन जेन साहित्य संशोधक ग्रन्थमाला प्रन्थाडू ७. श्रीजिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण-विरचितं जीतकल्प-सूत्रम््‌ [ श्रीचन्द्रसूरिसन्टन्ध-विषमपदव्याख्यावि भूषित- श्रीसिद्ध सेन गणि कू त- बृहचू्णिसमन्वितम्‌ ] "८4३8३ 8७0४8 ६:888३-- संशोधक तथा संपादक सुनि जिन विजय [ आचाये-णूज़रात पुरातत्त्व मन्दिर-अमदाबाद ] प्रकाश्नक जेन साहिद्य संशोधक समिति (अमदाबाद ) ख्रि० स० १९२६ ] [ बि० सं० १९८२ [ मूल्य रुप्यक-त्रयम ] मएा०४७१ 07 सिफशाणराक्रापएड ४6-ए 5॥००६०, या (6 78, 8 58207 70५१, 20-28, 50]090860 ,676, -90फ0&५% रिफ्गाह्राशवत 0 +- िपर)। जंव]8 १॥॥898]7 ( चेंग्रपछ8 3ि7980ए५ 5०75५ 00१६७ ४0777( ) +]7(0६5६७०48,57, संपादकीय प्रस्तावनौ 5७ _ 5७०९५ 0२२०-+-+++ आधारभूत प्रतिओनो परिचय जीतकल्पसूत्रनी प्रस्तुत आवृत्ति नीचे जणावेली हस्तलिखित प्रतिओना आधोरे तैयार करवामा आवी छे:- [१ ] जीतकल्पसत्र सूलपाठ. ( & ) ताडपत्र ऊपर रूखेली इह चर्णिसाथेनी,पूनाना भाडारकर ओरिएस्टलरीसचे इन्स्टीखुटमांना राजकीय ग्रन्थ संग्रहनी । ( 9 ) कागछ ऊपर छखेली केवढ मूलमात्रनी २ पानानी, गूजरातपुरातत्त्वमन्दिरमा (अमदाबाद) ना सम्रहनी । ( 0) तिलकाचा* कृत इत्तिसमेतनी श्रीयुत के, परे. मोदी मारफत आवेली । ( ]) ) जर्मन विद्वान डॉ. अनस्त ठॉयमान सपादिन अने ५ पाए 5०एा५॥९ पण वर छ्शाएु॥(] एलपच्जन ॥0॥ ५0 पैक ऐै।०००१॥४०॥०ॉ ००७, फ0)0, 902, मा रोमना- क्षरमा मुद्रित । [२ ] सिद्धसनस्रिकृत बृदचूर्णि, ( ) पूनाना भांडारकर ओरिएन्टल रीसच इस्स्टीव्यूट्माना सग्रहमांनी ताइपत्रनी न॑ २३; १८८०-८१ वारढी प्रति । ए प्रतिने आ आवृत्तिमा पाठान्तर सृचववा माटे & सज्ञा आपवामा आवी छठे । ए प्रतिमा लेखनकालू आपेलो नथी पण लीपिनी आइृति ऊपरथी ते विक्रमना १२ मा सकामा रखाएली होय तेम छागे छे। प्रति बहु शुद्ध नथी | एमा मूछ सूत्र-पाठ पूर्ण आपेलो छे। (8) उक्त समग्रहमानी ताडपत्रनी न २४ , १८८०-८१ वाछी वीजी प्रति | ए प्रतिना पाठान्तर सचववा माटे. एने अहि 9 सज्ञा आपी छे | ए, प्रमाणमां काईक वधारे शुद्ध छे। हासियाओमा घणी जग्याए ट्का रटिप्पणो पण आपेला छे। पण एना अन्तनां केटछाक पांना नष्ट थई गया छे तेथी एनो पण लेखनकाल ज्ञात थई शकक्‍यो नथी | वर्णाकृति ऊपरथी अनुमाने ए १३ मा सैकामा लखाएली होय तेम जणाय छे । [३ ] श्रीचंद्रसरिरचित चू्णिविषसपद्व्याख्या, ( /& ) श्रीयुत के. भरे. मोदी मारफत मल्ेली मुनिवय्ये श्रीहंसविजयजीना शाख्रसग्रहमांनी कागछ ऊपर लखेली नवीन प्रति । (9 ) आचाये श्रीविजयनेमी सूरिना संग्रहमांनी ए ज जातनी बीजी प्रति । भा बन्ने प्रतितो कोई एक ज मूल प्रति ऊपरथी छखाएली नवीन नकलो छे । प्रतिओो सामान्यरीते बहु ज अशुद्धतावाढी छे । जूनी प्रतिनी लीपिना बठणने बराबर नहीं सम- ६्‌ जनार एवा कोई सीखाउ रूहियाओना हाथे आ नकलो थई छे तेथी एमां, ए लहिया- भोए, एक अक्षरा बदले बीजो अक्षर रूखी नांखी, म्रन्थनी अशुद्धिमां घणो वधारो करी दीघो छे । उदाहरण तरीके-'ए? अक्षरनी जग्याए 'प', 'थ' नी जग्याए 'घ', “दर? ना बदले है; 'सत ना बदले सू!, भ! ना माटे 'त्त', जने 'घ! ना माटे 'ध्; एम पंक्तिण पक्तिए. अनेक वर्णोनो विपयेय करी दीधेछों नजरे पडे छे। आम, जूनी अने शुद्ध प्रतिनी प्राप्तिना अभावे ए व्याज्याना संशोधनमा घणी कठिनता अनुभववी पडी छे अने तेथी कचित्खत्ठे तो अशुद्ध पाठने ज स्थानस्थित राखवो पव्यों छे जिनभद्रगणि-क्षमाञ्रमण आ जीतकल्पसूत्रना कर्ता जिनभद्गगणि क्षमाश्रमण छे, एम चूर्णिकारनों स्पष्ट उल्लेख छे; अने अन्यान्य टीकाकारोए तथा अन्य अथकारोए पण ए बाबतनों घणा ठेकाणे निर्देश करेढ़ो छे | आवश्यक सूत्रना सामायिकाध्ययन ऊपरनुं छगभग पाच हजार ग्रन्थप्रमाण प्राकृतगाथाबद्ध भाष्य के जे विशेषावश्यक भाष्यना नामे सुप्रसिद्ध छे तेना कतो पण आ ज जिनमभद्र गणी छे। आ भाष्यग्रन्थ जैन प्रवचनमां एक मुकुटमणि समान लेखाय छे अने तेथी भाष्यकार जिनभद्र- गणी जैनशाख्रकारोमां अग्रणी मनाय छे | जैन दर्शन प्रतिपादित ज्ञानविषयक विचारने केवछ श्रद्धागम्य-विषयनी कोटिमाथी बुद्धिगम्य-विषयनी कोटिमां उतारवानों सुसंगत प्रयत्क, सौथी प्रथम एमणे ज ए महाभाष्यमां कर्यो होय, एम जैन साहित्यना विकासक्रमनु .सिंहावलोकन करता जणाई आवे छे । जैन आगमोना सप्रद्ययगत रहस्य अने अर्थना, पोताना समयमा अद्वितीय ज्ञाता तरीके, ए आचार्य सर्वसम्मत गणाता हता, अने तेथी एमने 'थरुगप्रधान' एवु मह- त्तस्यापक उपपद मलेदु हतुं। जीतकल्पचूर्णिना कर्ताए, प्रारंभमा, ५ थी ११ मा सुधीना पद्ममां आ आचार्यनी जे गंभीराथक स्तुति करेली छे ते ऊपरथी एमनी ज्ञानगंभीरता अने साप्रदायिक प्रतिष्ठिततानु काईक सूचन थाय छे | जा पद्योनों भावाथे जा प्माणे छे --- ५. अनुयोग एटले आगमोना अभथ ज्ञानना धारक, युग-प्रधान, प्रधानज्ञानियोने बहुमत, सर्व श्रुति अने शाखा कुशल, अजने दशन-ज्ञान उपयोगना मार्गस्थ एटले माभरक्षक | ६. कमलना सुवासने अधीन थएरा अमरो जेम कमलनी उपासना करे छे तेम ज्ञानरूप मक- हरन्दना पिपासु मुनियों जेमना मुखरूप नि्रमाथी नीकछेला ज्ञानरूप अमृतनु सदा सेवन करे छे । ७. ख-समय अने पर-समयना आगम, लीपि, गणित, छनन्‍्द अने शब्दशाख्रो ऊपर करेलां व्याख्यानोथी निर्मित थएलो जेमनो अनुपम यश-.परह दशे दिशाओमा भमी रहेलो छे । ८. जेमणे पोतानी अनुपम मतिना प्रभावे ज्ञान, ज्ञानी, हेतु, प्रमाण, अने गणधरप्रच्छानुं सविशेष विवेचन विशेषावश्यकमां अन्धनिबद्ध कयु छे । <. जेमणे छेद सूत्रोना अर्थ|घारे, पुरुष विशेषना प्रथरुकरण प्रमाणे, प्रायश्रित्तना विधिनु विधान करनार जीतकर्पसूत्रनी रचना करी छे । 2 १०, एवा, परसमयना सिद्धान्तोमां निपुण, संयमशील श्रमणोना मागेना अनुगामी, अने क्षमा- श्रमणोमां निधानभूत जिनभद्र गणी क्षमाश्रमणने नमस्कार । आमांना ७५ मा पद्चना तात्पथीथ ऊपरथी ए जणाय छे के--जिनभद्र गणी आगमोना अद्वितीय व्याख्याता हता; युगप्रधान पदना धारक हता; तत्कालीन प्रधान प्रधान श्रुतपरों पण एमने बहु मानता हता, श्रुति अने अन्य शास्नोना पण ए कुशल विद्वान्‌ हता; अने जैन सि- द्वातोमा जे ज्ञान-दशनरूप उपयोगनों विचार करवामा आत्यो छे तेना ए समर्थक हता । ६ हा पद्चना तात्मयेथी ए जणाय छे के एमनी सेवामा घणा मुनियो ज्ञानाभ्यास करवा माटे सदा उप- स्थित रहेता हता | ७ मा पद्चमां, जुदा जुदा दशनोना शासत्रो, तथा, लीपि विद्या, गणित छाख्र, छन्द शास्त्र, जने शब्द ( व्याकरण ) शास्र आदिमा एमनु अनुपम पांडित्य सूचित कयु छे । ८ मा पद्यमा विशेषावश्यकभाष्य; अने ९ मामा, जीतकल्पसूत्र विषयक एमनु कवेत्व प्रकट कर्यु छे | १० मा पद्ममा, एमनी परसमयना आगम विषेनी निपुणता, खाचारपालननी प्रवणता, अने सर्व जैन श्रमणोमा रहेली मुख्यतानु सूचन कयु छे । जाटला संक्षिप्त परिचय सिवाय जन्यत्र क्याए पण ए महान्‌ आचार्यनो कशो पण विशेष उल्लेख दृष्टिगोचर थतो नथी । हरिभद्वसूरि, शीलाकाचाये, जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, हेमचंद्रसूरि, वादीदेवसूरि, मलय- गिरि अने देवेन्द्रसूरि विगेरे पाछव्यना प्रसिद्ध प्रन्थकारों अने टीकाकारोए एमनो नामनिर्देश पोतानी कृतिओमा अनेकश. करेलो छे । “भाष्यसुधाम्भोधि; भाष्यपीयूपपाथोधि; भगवान्‌ भाष्यकार; दुष्पमान्धकारनिमप्रजिनवचनप्रदीपप्रतिम; दलितक्ुवादिप्रवाद; प्रशयभा- ध्यसस्यकाइ्यपीकल्प; त्रिश्ववनजनप्रथितप्रवचनोपनिषद्धेदी; सन्देहसन्दोहशेलझगर्भगद- म्भोलि;” इत्यादि प्रकारना विशिष्ट विशेषणोपूवेक एमचु नामस्मरण करवामां आयव्यु छे, अने ए रीते एमनी आप्ततानो गौरवपूर्वक खीकार करवामा आय्यो छे | दरेक संप्रदायमा विद्वानोना बे प्रकार नजरे पडे छे: एक तो आगमप्रधान; अने बीजो तके- प्रधान । आममप्रधान पंडितो हमेशा पोताना परंपरागत आगमोने-सिद्धान्तोने ऋब्दशः पुष्टरीते पकडी रहेवाना खभाववात्वा होय छे, त्यारे तकंप्रधान विद्वानो आगमगत पढार्थव्यवस्थाने तके- सगत अने रहस्यानुकूल मानवानी वृत्तिवाव्य होय छे। आथी केटलीक वखते आममप्रधान जने तकंप्रधान विचारकोनी प्ंप्रदायगत तत्त्वविवेचननी पद्धतिमां विचारमेद पडे छे । ए विचार- भेद जो उग्म पकारनों होय छे तो कालक्रमे सप्रदाय-मेदना अवृतारमा अवसान पामे छे; अने सौम्य प्रकारनो होय छे तो ते मात्र मतमेदना रूपमा ज विरमी जाय छे । जेन संप्रदायना इतिहासनुं अवलोकन करता तेमां आवा अनेक विचारमभेदो, मतमेदो अने सप्रदायभेदो अने तेना मूलभूत उक्त प्रकारनां कारणों बुद्धि आग स्पष्ट तरी आवे छे । ए विचारना एक उदाहरणभूत जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण पण छे, भने तेथी जैन प्रवचनना इतिहासमा एमने घणी प्रसिद्धि प्राप्त थई छे। जिनमद्गगणी आगम-प्रधान आचाये छे। जैन आगमाज्नाय जे परंपराथी चालयो आवतो इतो ८ तेने शब्दशः अनुसरी ते ऊपर संगतवार भाष्य रचवानुं प्रधान कार्य एमणे फयु हतुं। ए भाष्पमां आम्नायथी विरुद्ध जनारा दरेक पक्ष ऊपर एमणे यथेष्ट आक्षेप-प्रतिक्षेप कयों छे अने खसंप्रदायनुं समर्थन करयु छे | ए पोताना समर्थनमा तकनो उपयोग करे छे पण ते तक॑ आज्नायानुकूल होय तो ज तेने महत्त्व आपे छे । आज्ञायथी आग जनार तकंने ए उपेक्षणीय गणे छे । उदाहरण तरीके एक प्रसग रईए--सिद्धसेन दिवाकर जिनभद्गना पुरोगामी आचाये छे । जैनवाड्मयमां अने इतिहासमा तेमनु स्थान घणु ऊंचु छे | जैनधर्मना जे महान्‌ समर्थक अने प्रभावक आचार्यो थई गया छे तेमा सिद्धसेनसूरि घणा आग पडता छे । सम्मतितक, न्यायावतार, महावीरस्तुति विगेरे मौलिक-सिद्धान्त-प्रतिपादक अने प्रोढविचार-पूर्ण एमना ग्रन्थों छे।जेन तकंशासत्रना ए व्यवस्थापक्ष अने विवेचक छे | एथी ए तकंप्रधान आचार्य मनाय छे | जैनदशेनना ए एक अनन्य आधारभूत आप्त पुरुष छे | एमना पाछकना सर्व समर्थ आचार्यो ए एमने आप्तरूपे खीकायों छे। ए आचार्य पोताना सम्मतितर्क नामना तात्त्वि- कग्रन्थमा, केवलज्ञान अने केवरूदशनना खरूपनों विचार करता, ए सिद्धात प्रतिपादित कर्यो छे के फेवलज्ञानीने ज्ञान अने दशन बन्ने युगपत्‌ ज होई शके छे, अन तेथी यथार्थमा बन्ने एक खरूप ज छे । आगमोमा जे “जुगवं दो णत्थि उदओगा” ए विचार प्रतिपादेलो छे तेनाथी सिद्धसेननो सिद्धान्त जराक विरुद्ध देखाय छे | एटले आगमवादी जिनभद्र गणी क्षमाश्रमणे पोताना भाष्यमा सिद्धसेनना विचारनो विगतवार प्रतिक्षेप कर्या छे अने तालयेमां जणाव्यु छे के तकेथी गमे ते बिचार सिद्ध थतों होय पण आगमथी बहार जता तकनो खीकार न करी शकाय । आगगममा क्याएं पण युगपरदुपयोगनु सूचन नथी अने तेथी ए विचार अग्राद्म छे । आ विषयनो उपसहार करता जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण जणावे छे के-- कस्स व नाणुमयमि्ण जिणरम जह हुज दोबि उबओगा | नं न हुंति जुव्ग जओ निसिद्धा सुए वहुसो ॥ न वि अभिनिवेसबुद्धी अम्हं एगंतरोवओगम्मि | तह वि भणिमो न तीरइ ज॑ जिणमयमन्नहा काउं ॥ ( विशेषावर्यकभाष्य, पृष्ठ १२१३ अर्थोत्‌ू-जों जिनने-केवलीने युगपद्‌ बन्ने उपयोग होत तो ते कोईने अनभिमत न थात। पण ते छे ज नही, कारण के सूत्रमा तेनो घणी जग्याएण निषेध करवामा आवेलो छे । तेम ज॑ ऋमोपयोगमा-एक पछी एक थनार ज्ञानमां--अमारी कांई अभिनिवेशबुद्धी नथी । पण तथापि कहीए छीए के जिनना मतने अर्थात्‌ आगमनी परंपराने अन्यथा न ज करी शकाय। आम जिनभद्रगणी आगमपरंपराना महान्‌ सरक्षक हता जने तेथी तेओ आगमवादी के सिद्धान्तवादी ना बिरुदथी जैन वाल्मयमा ओलछखाय छे | जिनभद्गगणीनी ग्रन्धक्ृतिओं जिनभद्रगणीना बनावेला अन्थोनी चोकस माहिती काई मत्ती नथी। सामान्य रीते नीचे जणावेला पाच अन्थो तेमनी कृति तरीके सुप्रसिद्ध छे । ९ १. विशेषावह्यक भाष्य मूठ अने टीका, आ भाष्य बहु प्रसिद्ध अने प्रकाशित छे। जाना ऊपर ग्रन्थकारे पोते ज एक संस्कृत टीका छखी हती पण ते अत्यारे दुलेभ छे | बीजी टीका शीलाकाचाये जेमनुं वीजु नाम कोट्याचाय पण प्रसिद्ध छे तेमणे छखी छे | ए टीकानी ताडपत्र ऊपर छुखेली एक अतिजीणे प्रति पूनाना राजकीय अन्थसग्रहमां सुरक्षित छे | श्रीजी टीका मल्धारी हेमचंद्रसूरिनी बनावेली छे अने ते प्रकट थई गई छे | २. बृहत्संग्रहणी, आ लगभग 9००० थी ५०० गाथानो ग्रन्थ छे। एना ऊपर मलयगिरि सूरिए संस्कृत टीका लखी छे । ग्रन्थ सटीक प्रसिद्ध थई चुक्यो छे । ३. बूहस्क्षेत्रतमास, आ पण प्राकृत गाथाबद्ध ग्न्थ छे | आना ऊपर पण मलयगिरि विगेरे आचार्योए टीकाओ रूखी छे । अन्थ प्रसिद्ध छे । 9. विशेषणवती, छगभग ४०० गाथाओनो बनलो आ एक प्रकरण अन्थ छे, भने अथ्ापि अप्रकाशित छे | ७५. जीतकस्पसत्र, प्रस्तुत अन्थ । आ सिवाय ध्यानशतक नामनो एक ग्रन्थ जे हरिभद्व- सूरिनी आवश्यक टीकामा समुद्धृत छे तेना कतो पण जिनभद्रगणी कहेवाय छे पण ते सन्दिग्ध छे। जिनभद्रगणीनी भाष्यकार तरीकेनी बहु झुयाति छे। तेमा मुख्यतया तो विशेषावश्यक भाष्य ने लईने ज ए प्रसिद्धि प्राप्त थई होय तेम जणाय छे । कारण के ज्यां ज्यां भाष्यकारना नामे एमनो उल्लेख आवे छे त्या त्या धणा भागे विशेषावश्यकना अवत्तरणों टाकवामा आव्या होय छे । पण, ए भाष्य सिवाय बीजा पण कोई भाष्यो एमणे रच्या होय तो ते सभवित छे । एनु कांईक अस्पष्ट सूचन, कोट्याचायनी विशेषावश्यकभाप्यटीकामाना एक उल्ेखथी थाय छेः 'पपोग्गल-मोयगदन्ते! ए. पदथी शुरुथती विशेषावश्यकभाप्यनी २३४% मी गाथामा जे दृष्टान्तो सूचव्या छे तेमनु विवरण आ भाष्यमा करवामा आव्यु नथी । पण निशीथसूत्रना भाष्यनी पीठिकामा आ गाथा जने एमा सूचवेलां दृष्टान्तोनु विवरण विगतपूर्वक आपेलुं छे । एटलामाटे कोट्याचाये पोतानी टीकामा आ दृष्टात-सूचक गाथानी व्याख्या करतां विवरणमाटे ढरुखे छे के--'निशीये पक्ष्यामः--निशीथमा आ विवरण करीझु ।' आ वाक्य कोठ्याचा- येनु होय एम तो सभवे ज नहीं । कारण के निशीयथभाष्य कोय्याचार्यक्ृत छे एवी प्रसिद्धि के परपरा बिल्कुल संभठाती नथी । तेथी आ वाक्य जिनभद्वगणीनी खोपज्ञटीकामानु होवुं जोहए | अने जो तेम होय तो गन्थकारे आ गाथानु विवरण निशाीथ भाष्यमा कयु होय एटले विशे- घावश्यकभाष्यमा पुन. ते करवानी आवश्यकता नहीं रहेवाथी अहि मात्र तेनुं सूचन ज करी दीवु होय । विशेषावश्यकटीकाकार हेमचंद्रसूरि पण आ गाथानी व्याख्यामा अते एम रखे छे के--एतान्युदाहरणानि विशेषतों निशीथादवसेयानि ।” मारी पासे केटलाक प्रकीण पाना- ओनो एक सग्रह छे तेमां भाष्यो अने चूर्णिओमानी केटलीक नोधो कोई विद्वाने करेली छे । # काशीधी प्रकट भएल भावृत्तिमा आ गाथानो क्रमाक २३५ छे, पण पूनानी कोव्याचायबाल्दी टीकानी प्रतिमा ए भक २३४ छे। 9 १० ए संद्रद सासरे ३०० करता वधारे वर्षनो जूनो छखेलो छे | एमां एक ठेकाणे निशीथभाष्यनी ३ गाथा छखेली छे, जने ते पछी “इति जिनभद्रक्षमाश्रमणक्ृ तनिशीथभाष्यस्थाष्टमोदेशके/' जावी स्पष्ट नो करी छे । अभ्यासिओए आ बाबतमा विशेष शोध करवानी आवश्यकता छे (# जिनभद्रगणीनों समय जिनभद्र गणीना गण-गच्छादिनो के गुरु-शिष्यादिनो कोई उछेख जोवामां आवतो नभी । सोछ्मा सैका पछी रुखाएली पद्टावलिओमा तेमना समयनों निर्देश थएछो जोबामा आवे छे अने ते प्रमाणे महावीर निवोण पछी स० १११५ मा तेमनो खगेवास थयो मानवामां जावे छे | वीरनिर्वाण १११५ ते विक्रम सवत्‌ ६०० बराबर थाय छे | पद्मावलिओमा उल्ले- खेलो आ समय केटछों असन्दिग्ध छे ते जाणवाना विशेष प्रमाणो अद्यापि इृष्टिगोचर थयां नथी। तपागच्छ, अचलगच्छ, उपकेशगच्छ, लघुपोशालिक, बृहत्पोशालिक, आदि गच्छोनी जे आधुनिक पद्टावडिओ उपलब्ध छे तेमनी मुझ्य परंपरामा तो जिनभद्वनो कोई निर्देश नथी | पण खरतर गच्छीय पद्टावलिओमा कोक ठेकाणे मूछ पट्टपरंपरा्मा जिनमद्रने दाखल करी दीघेला जोवामा आवे छे खरा । पण तेमा परस्पर घणों ज विरोध नजरे पडे छे । उदाहरण तरीके, मारी पासे जे केटछांक आवां पट्टावलिना पानाओ छे तेमाथी एकमा जिनभद्दन महावीरथी ३५ मी पाटे लख्या छे, बीजा पानामां ३८ मी पाटे रुख्या छे, त्यारे वही त्रीजा पानामा २७ मी पाटे लख्या छे। केटलाक पानाओमा जिनभद्वनी पाटे हरिभद्रने बेसायो छे, तो केटलाकमा जिनभद्वनी पाटे शीलाकाचार्यने बेसायो छे | एक पट्टावलिमां हरिभद्रने महावीर निवोण पछी ७५८० वर्ष अने जिनमद्दने ९८० वर्ष थएछा जणाव्या छे। आम पद्ठावलिशोनी विगतो बहु ज॑ असबद्ध होवाथी तेमाना फोई पण कथनने अन्यान्य पुरावाओना जाधारे निर्णीत कर्या सिवाय सत्य मानी शफाय तेम नथी ए स्पष्ट ज छे। धर्मसागर गणीकृत तपागच्छ पद्मावलि के जे केटछाक ऐतिहासिक ऊद्दापोह पछी लखवामां आवी छे अने जेनु सशोधन पण कटलाक विद्वानोनी बनेली खास समितिए कयु छे, तेना उछेख प्रमाणे जिनभद्र गणी, हरिभद्र पछी ६०-६७ वर्ष थया हता । पण आ उछेख पण एटछो ज भूलभरेको छे । कारण के प्रथम तो हरिभद्रनों स्वगे समय जे ए पद्धावलिमा वीरसवत्‌ १०५५, विक्रम संवत्‌ ५८५ आप्यो छे ते ज बराबर नथी, ए में हरिभद्रना समय निणेयमां विस्तृत च्ची करी सिद्ध कु छे; अने बीजु, हरिभद्र सूरिण पोतानी आवश्यक टीकामा जनेक ठेकाणे जिनभद्वनु सरण कयु छे अने विशेषावश्यकनों स्पष्ट उल्लेख पण कर्यो छे | एटले हरिमद्र पछी जिनभद्र कोई पण रीते होई शके नहीं ए निश्चित छे । धमेसागरक्त पद्मावलिनो उल्लेख आ प्रमाणे छे!--- श्री वीरात १०५५ वि० ५८५ वर्ष याकिनीसनुः भ्रीहरिभद्र॒श्नरि! स्वगेभाक्‌। निशीथ-बृहत्कल्प-भाष्यावश्यकादियूणिकारा! श्रीजिनदासगणिमहत्तरादय!ः पूेगत- # पहावलिओओोना केटलांक पानाओोमां तो एमने “सर्वे भाष्यकर्ता”” पण लक्षेठा छे । ११ श्रुतघर-भरी प्रयुम्नक्षमा श्रम णा दिशिष्यत्वेन श्रीहरिभद्र॒व्नरितः प्राचीना एवं यथाकालभा- बिनो बोध्या; | १११५ श्रीजिनभद्रगणियुगप्रधान। । अय॑ च जिनभद्रीयध्यानशतक- करणान्‌ भिन्न) संभाव्यते । --इण्डियन एण्टीकेरी, पु. ११, ए. २५३. खरतर गच्छनी पट्टावलिओ--जेमां छेल्ला सैकामा थई गयेलरा क्षमाकस्याणमुनिनी बनावेली मुख्य कही शकाय अने जेनो सार डॉ. क्लाटे इण्डियन एण्टिकेरीना पु० ११, प० २४७३-४९ मां आष्यो छे--ते अनुसारे जिनभद्दनो समय वीरनिवाणनो दशमों सैकों छे। ए पद्मावलिमां रुख्या प्रमाणे वीर स० ९८० मा देवड्िंगणी थया। ते ज समयमां चतुर्थीनी संवत्सरी खापन करनार कालकाचाये थया ( वी. सं. ९९३ ), ते ज अरसामा विशेषावश्यक भाष्यादिना कर्ता [ बीजी प्रतिप्रमाणे सर्वे भाष्यकती ] जिनमभद्रगणी क्षमाश्रमण (वी. स. ९८० ), तथा आचारांगादि सूत्रोनी टीका करनार तेमना शिष्य शीछाकाचायें थया, अने ते ज जमानामां १४४४ ग्रन्थोना रचनार हरिभद्गसूरि थया। आ प्रमाणे आ पद्टावलिलेखकना हिसाबे देवर्धिगणी, कालकाचार्य, जिनभद्र, शीछाकाचाये अने हरिभद्रसूरि' ए बधा समकालीन छे। आ बधामां दरिभद्रसूरि सिवाय बाकीमा आचायोनों समय हजी प्रमाण-पुरस्सर निर्णीत थयो नथी | पण, सांप्रदायिक इतिहासनु एकदर वत्कनण जोता ए बधा समकालीन होय तेम समवतु नथी । हरिभद्रनो समय, लगभग विक्रमना आठमा सैकानों छेल्लो भाग निश्चित थयो छे । देवर्घिगणी अने कालकाचाये छट्ठा सैकानी शुरुआतमां थएडा मनाय छे | एटले एमनी बच्चे ओछामा ओछु २५० वषे जेट अतर पड़े छे | एमाथी हरिभद्ने बाद करी देवामा आवे-- कारण के तेमनो समय निर्णीत छे--अने बाकीना बधाने समकालीन मानी लेवामां आवे तो ते सप्रमाण हो३ शक के केम, ए प्रश्न विचारणीय रहे छे खरो। पण, आ खल्े देवधिंगणी अने कालकाचायेना समयना विचारने पुरतो अवकाश नथी, तेथी हु ए बाबतने बगर चर्चे ज मुंकी देवा मागु छु। जिनभद्गगणी अने शीलाकाचार्यगी समकालीनता अने गुरु-शिष्य-सम्बन्ध माटे काईक विचार अवश्य कतंव्य छे । कमनशीबे, शीलाकाचार्य सबधी जे सवतनो उछेख मे छे ते पण परस्पर विरोधी छे । आचारागसूत्रनी टीकानी केटछीक प्रतिओमा टीका बनाव्याना समयनो निर्देश बे रीते मछे छेः एक निर्देश गद्यमा छे, जने बीजों पद्मयमा छे । तेमाए वी दरेकमां बब्बे पाठभेद छे । (१ ) & पहेलो गद्य निर्देश आ प्रमाणेः-- “शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्तम चतुरशीत्यधिकेषु वेशाखपश्चम्यां आचारटीका दृब्धेति ।! खंभातना शान्तिनाथना भंडारमा सं० १३२७ मां रूखाएली ताडपन्रनी प्रति छे तेमां था पंक्ति छे. जुओ, पीटसेन रीपोर्ट ३, ए. ९०. १२ 8. बीजों गद्य निर्देश आ प्रमाणे।-- “शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्ततु अष्टानवत्यधिकेषु वेशाखशुद्धपअम्यां आचारटीका कृतेति ।--इण्डियन एण्टीकेरी, सनू १८८६, प० १८८. (२ ) बीजो, जे पद्य निर्देश छे ते आ प्रमाणेः-- द्वासप्तत्यधिकेष हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम । संब॒त्सरेषु मासि च भाद्रपदे श॒ुक्ृपश्चम्याम्‌ ॥ शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितिन टीकेषा । सम्यगुपयुज्य शोध्या मात्सयेविनाऊृतेरायें। ॥ --आगमोदयसमिति प्रकाशित आवृत्ति, प्र. ३१७। मारी पासेनी एक नोंधमा, गुप्तानां ना बदले शक्तानां आवो पण पाठ छे। तेम ज॑ केट- लीक प्रतिओमा आमानो कोई पण उछेख सर्वथाएु नथी मत्तों। आ रीते, आ उछ्ठेखो, जुदी जुदी 9 सालो बतावे छे । पहेलो, शक संवत्‌ ७८८ नी; बीजों ७३८ नी; त्रीजो, गुप्त सवत्‌ ७७२ नी, अने चोथो शक सवत्‌ ७७२ नी । भामानी कई साल साची छे ते चोक्स कही शकाय तेम नथी# । गुप्त सवत्‌नी जे गणन्नी अद्यापि विद्वानों करता # आचारागटीकाना आ। सवत्सरावंधयक उलक्लखना सबधमा डॉ० फ्रीटे इण्डियन एण्टीकेर,, पु १५, पृ. १८८ मा एक टिप्पणी लक्की छ ते जाणवा जेवी होवाथी तनु भाषान्तर भरह्ठिं आपवामा आये छे । आचार टीकामाथी ब उताराभो- श्रीयुत के. बी. पाठके जेन हरिवंशमाधी एक मद्त्त्नों उतारों १४१ मा पान उपर आप्यो छे। एमा गुप्त राजाओना उद्लेख उपरांत मद्दावीरना निर्वाण पछीना वश्ोनों नियमित क्रम आपी ए समयनो सबध बता- बवा प्रयज्ञ क्यों छे । जो के ए सबंव बराबर नथी । हु अहिं थोडीघणी एने मह्ूती ज॑ साहित्यविषयक ध्यान खेंचे एवी बाबत आपवा इच्छु छु। डॉ. भगवान- लाल एन्द्रगीए १८८३ नी शुष्आतमां, जेनप्रन्य आचाराग सूत्र ऊपरनी शीलाचार्यनी आचारटीकानी एक दस्वलिखित प्रति मने बतावी इती ( ए लगभग ३०० वर्ष पहेला लखाएली मनाय छे। एमाथी हु बे उतारा आपु छु । पहेलो पद्यवद्ध उतारों २०७ 73 अने २०८ ० पान ऊपर छे, भने ते आ प्रमाणे छे.-- दासप्तययधिकेषु हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम्‌। संवत्सरचु मासे च भाद्वपदे शुक्पश्चम्याम्‌ ॥ दीलाचायेण रूता गम्भूतायां स्थितेन टीकपा। सम्यशुपयुज्य शोध्या मात्सयंविनाकृतेरायेः ॥ थआ उतारो, शीलाचार्ये टीकानो आ भाग गुप्तसवत्‌ ७७२ ना भादरवा सुदी पांचमसने दिवसे गरभूता (संभात ) मां पूरो क्यों एम जणावे छे । बीजो उतारो पुस्तकना अते २५६ -3 पान ऊपर आवेलो छे । अने ते गद्यमां होई आ प्रमाणे छे -- शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्तत्ु अष्टानवत्यधिकेषु घेशाखशुद्ध पश्चम्यामा- चारटोका कत्तेति । २०६ ४ पान शहिं पुर थाय छे अने ए पछीनु पानु जेमा आ तिथिनु आकडामां पुनरावरतेन भने कछेखकना उपसरद्दारना शब्दो छे ते नष्ट थई गयुं छे । था उतारो सपूर्ण टीछानी समाप्तिनी तिथि तरीके शकसवत्‌ ७९८ नी वेशास्र सुदी पांचमने मुंके छे । (३ आव्या छे ते प्रमाणे जो गणीए तो गुप्त संवत्‌ ७७२ एटले ११४१ विक्रम संवत्‌ (१०९१६ई.स०) थाय | ए समय तो शेषनवाग टीकाकार अभयदेवसूरिनों छे। प्रथमद्वितीयागटीकाक्ता शीरूं- काचाये तो ए अगाऊ घणा वर्षा पूर्व थई गयाना घणा पुरावाओ उपलब्ध छे । तेथी कां तो गुप्त सवत्‌ ७७२ वालो उछेख अमपृर्ण होवो जोईए, अने का तो गुप्त सवत्‌नी जे गणत्री आज पर्येतना बधा शोधको गणता आव्या छे ते खोटी होवी जोईए । पण, मात्र आ अनिश्चित पाठ- भेदना आधारे ज गुप्त सवतनी गाठने आपणे ऊकेली शकीए तेम नथी, तेथी ज्यां सुधी गुप्त- सबतूनी गणना अन्य प्रमाणोथी खोटी न ठरे त्या सुधी आ प्रस्तुत उछेखने आपणे सत्य न मानी शकीए | हवे रह्या शक सवत्सरवाद्य उल्लेखो | एमां जो के ७७२, ७८४ जने ७९८ आम त्रण भिन्न भिन्न सवत्सरों छे, पण ते बधानो अन्तर्भाव एक ज पचीप्तीमा थाय छे तेथी जा बन्ने उताराओ एम बतावे छे के शीलाचार्य गुप्त अने शक सवतने एक गण्यों छे । एमा स्पश्रीत एक प्रकारनी भूल तो छे ज | अने आ भूल, गुप्त अथवा शक सवत जेने विषे एनुं अधुरु ज्ञान हतु, तेनो निर्देश, फोईपण रीते दाखल करी पोतानी विद्वत्ता बताववाना ढेतुने लईने थई छे । ज्यां खुधी, गुप्त सवत्‌ ७७२ थी ७९८ (इ स १०९१ थी १११७ ) अथवा शक संवत्‌ उ७२ थी ७९८ (इस ८५० थी ८०६ ) ए बमाथी कया अरसामां आचारटीका लखाई ए बताववा माटे पुरती थई पड़े एवी शीलाचार्यनो खरो समय प्रदर्शित करती माहिती न मछी आवे हा सुधी ए भूल दूर यवानी नथी । परंतु आ उताराओं एम बताववा माटे मद्त्त्वना छे के शीलाचार्यना समयसुधी पण ए वातनु स्मरण दतु के ए सवत्‌ (गुप्त सवत्‌ ) के जे वल्॒भीना राजाओना वापरने लीवे जाणीतो हतो भने छेवटे काठियाबाइमा पह्कभी सवत्‌ तरीके प्रचलित थयो इतो, एनो मूछ अने खास सबध गुप्त राजाओ साथे हतो जेमणे काठिया- वाड अने वीजा पाढोशना भागोमा एनो फलावो कर्यो हतो ॥!?! आ सवत्त अने डा, फ्रीडनी टिप्पणी ऊपर प्रो. पीठसने, दस्तलिखित पुस्तकोनी शोधवाछा, पोताना प्नीजा रीपोटना ए० ३६-३० ऊपर जे नोव करी छे ते पण आा बाबतमा उपयोगी द्वोवाथी भहि अवतार- बामा भावे छे -- नं. २५५. आचारांगसृत्र ऊपरनी शीलाचायेनी टीका । शीलाचाये के शीलाक सुप्रसिद्ध नगर अणहिलवाइ पाटणना संस्थापक वनराजना धर्मगुद तरीके झुविदित छे। २४७ मा पान ऊपर जे भवतरण आपेल छे ते ऊपरथी जणाय छे के शीलाझनी आचारागदृत्तिमां एनो रच- नान्समय श॒ स ७७८ छे। वधारेमा जणाय छे के जे शछोकमा ए मिति छे ते छेवटना पान ऊपर छे एटछे बहु भार मूकवा जेवी नथी । १८८६ ना माचना द॒ ए मा फ़ाटनी शीलाचार्यना प्रथ ऊपर एक द्रकी नोंध छे । एमा भगवानल।ल इंद्रजीनी प्रतिना आवारे ए लखे छे के ग्रथना अदरना भागमा ग्रुप सवत्‌ ७३७२ अने भतना भागमां श. स॒ ७९८ आपवाम्ा आब्या छे। हाल तो हु, अहिं आपेलो गुम अने शक सबत्‌ वचेनों गोठाछो टाछी शकु एम नथी, परंतु सवत्‌ १३२७ अधथात्‌ इ. स १२७१ मा लखाएडी ए प्रथनी खमातवाली प्रतिमा ए मूछ प्रथ लखायानों जे समय आप॑ंलो छे ते विष मने नही जेवी ज शक्रा छे।ए अ्य श. स. ७८०--३. स ८६३ मां पूरो करवामा आव्यो हतो । बीजा कछोकमानो जे शब्द हु बराबर नहोंतो समजी शक्यो ते “गभूता” छे, एम फ्रीटना अवतरणथी समजाय छे । गरभूता एटले खमात एम फ्लीटनों अमिप्राय देखाय छे । मारावाव्या उतारामा ए 'होकनो अक बीजो आप्यो छे परतु पहेला अकवाल्ये 'छोऋ एमा नयी । एजु स्थान समयनिर्देशक गद्य पक्तिए लौधु छे। शीलाचार्ये पोतानी टीका धोरे धीरे पूरी करी इती एटडे एमणे ए बे 'छोक अथवा एना जेवु काइक वच्चे बच्च मूकी दीघु द्वोय एम छागे छे । ! १४ तेमनी सत्यता जो पुरवार थाय तो ते काल संभवनीय बनी शके छे । पण, केटलांक अवान्तर प्रमाणोनो विचार करता आ समय पण शीलछाकाचाये माटे जरा वधारे अबोचीन जणाय छे | शकसंवत्‌ ७७२-७९८ एटले विक्रम सवत्‌ ९०७-९३३ जेटला थाय । परंतु एम छेक विक्रमना दशमा सकामां शीलछाकाचारयनुं अत्तित्व खीकारतु ते कदाचित्‌ अमप्रृ्ण थरो | प्रमाणो जो के स्पष्ट नथी, छता शीछांगाचार्य हरिभद्व करतां वधारे अर्वाचीन होय एवु मानवु शंकाशीर लागे छे । परंपरागत किम्बदन्ती प्रमाणे शीककाचाये अणहिल्लपुर संस्थापक वनराज चावडाना गुरु थता हता। ते जो किम्बदन्ती साची होय--खोटी होवा माटे खास प्रमाण मछतु नथी-- तो शीलाकाचायनी हयाती विक्रम सबत्‌ ८०० नी आसपास होई शके । कारण के वनराजे सं० ८०२ मा पाटणनी संस्थापना करी हती | शीलाकाचार्यना एक विद्या-गुरु जिनभद होय पुर तेमनी विशेषावश्यकटीकामाना टछेखोथी अनुमान थाय छे | जिनभट ज हरिभद्दना पण धमीचार्र थता हता एम हारिभद्वीय आवश्यक-वृत्तिना प्रान्तोडिखिथी ज्ञात थाय छे | हरिभद्रनो समर वनराजना समय साथे एकता धरावे छे, ए तो हरिभद्रना समय निर्णयथी सिद्ध ज छे | एटहे जिनभटना शिष्य शीलाक अने हरिभद्र बन्ने समकालीन होय एवा आ पुरावाओ जणाय छे। बल्दी एक विशेष प्रमाण पण एू कथननी पुष्टि करतु होय एवु कही शकाय तेम छे | कुबल यमारा कथा जे दाक्षिण्यचिह्द उद्योतनसूरिण शक सबत्‌ ७०० मा रची छे तेनी प्रशस्तिर्न, ८ मी ९ मी गाथामा# तत्त्वाचाय नामना एक आचायनु वर्णन आवे छे। ए तत्त्वाचार्य घीछाक ज होय एम मारी कल्पना थाय छे | कारण के आचारागटीकानी प्राते शीछांकाचा- यनुं बीजु नाम तत्त्वादित्य स्पष्ट पणे ढखेठ मक छे, अने कुबलमाठझानी ५ मी गाथामा तत्त्वा- चायने सीलगविउलसालो एवा क्ृषात्मक विशेषणद्वारा शीलाक उपपदथी सूचित करवामां आवेला छे, एवो मारो अभिप्राय छे | जो ए अभिप्राय यथार्थ होय तो ए ज तत्त्वाचायें ऊे शीछाकाचाये कुबछ्यमालाकतां डद्योतन सरिना दीक्षा-गुरु सिद्ध थाय छे अने तेम थवाथी उद्यो- तन सूरिना एक विद्या-गुरु हरिमद्रसूरि शीकाकना समकाछीन सहजे साबीत थई जाय छे | आ हकीकत ऊपरथी ए विचार स्पष्ट थतो लागे छे के शीछाक हरिभद्रना समकालीन दोई, विक्रमना ८ मा सेकाना छेल्ला भागमा ते थएला होवा जोहए; पण आचारागटीकाना प्रातोलिख ग्रमाणे १० मा सेकाना प्रूव भागमा तो नहीं। परतु, ऊपर जोई गया तेम केटलीक पट्टावलिओमा जे एमने साक्षात्‌ जिनभद्र क्षमाश्रमणना शिष्य जणाव्या छे तेनी शी खिति छे ए विचार तो बाकी ज रहे छे । एटले हवे जरा ए विचार तरफ पण दृष्टि फेरवी जोईए । विशेषावश्यक भाष्यटीकाकार कोख्ाचार्य ए ज ज्ञीलाकाचार्य होय--ए टीका अने प्रघोष प्रमाणे ते होय पण खरा--तो ए टीकागत उल्लेखोथी तो शीलाकाचार्य जिनभद्गगणीना शिष्य सिद्ध थई + तस्स य आयारधरो तत्तायरिओ त्ति नाम सारगुणो | आसि तचतेयनिज्ञियपावतमोदो दिणयरो ब्च्र॒ ॥ जो दुसमसलिलपवाहवेगहीरन्तगुणसहस्साण | सीलंगविउलसालो लुग्गणखंभो व्व निर्कंपो ॥ श्५ शकता नथी । कमनशीवे, पूनाना ग्रन्थसंग्रहमां ए टीकानी जे प्रति छे तेनां आधन्तनां केटलांक पाना खंडित थई गएला छे, तेथी टीकाकारे मगलाचरणमा के प्रशस्तिमा पोताना विषे के जिनभद्रगणीविषे काई विशेष सूचन कर्यु छे के नहीं, ते जाणवानु कशु साधन नथी । पण टीकामां वच्चे बच्चे कटलीक जग्याए भाष्यकारनी खोपज्ञ व्याख्याविषे जे केटलाक उल्लेखो करेला छे ते ऊपरथी कांईंक अनुमान थई शके तेम छे। शीरांक ऊफे कोख्याचाये पोतानी टीकामां जिनभठाचाये अने जिनभद्गगणि क्षमाश्रमण एम बे आचार्योनो बारंवार मत प्रदर्शित करे छे । दाखछझ तरीके थोडांक अवतरणों जोईए-- (१) उपयोगस्तु छपम्नख्वस्थ सर्वत्रान्तर्मोहृर्तिक एवं श्रोत्रादिषु प्राय ईहान्वयत्वात्‌ । इति जिनभटाचाय्येपूज्यपादाः इति । (२ ) तत्राप्यपूर्वमिवापूर्वमिति जिनभटाचार्यपूज्यपादाः इति । (३ ) जिनमद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादस्तु नोक्तम्‌ । (४ ) अत एवं पूज्यपादें! खटीकायां प्रायोग्रहणं कृतम । (५ ) क्षमाश्रमणटीकात्वियम्‌ । (६) क्षमाश्रमणटीकापीयम । , (७) श्रीमत्क्षमाश्रमणपूज्यपादानाममिप्रायो लक्षणीयः । । आमाना प्रथमना बे अवतरणोमा जिनभठाचार्यनो उछेख छे | जिनभटाचार्य नी कोई कृति जैन षह्दित्यमा जाण्यामा नथी, तेम ज आ अवतरणो ऊपरथी एम पण नथी भासतु के आमा जिन- पटना कोई अन्थना आधारे कोयख्याचार्य आ अभिप्रायों ठाकता होय | आ अभिप्रायो तो एम पिचवता होय तेम छागे छे के, कोट्याचर्य जिनभटना मुखेथी काई विचारों सामव्या-सीख्या गीय अने ते प्रसगवश आ[ टीकामा व्याख्यान्तररूपे टाकी देवामा आव्या होय। आधी हु एम अनुमानु छु के जिनमट पासे शीडाकाचर्ये शाख्राभ्यास कर्या होवो जोइए, अने तेथी तेओ मना एक गुरु थवा जोईए । हवे बीजा अवतरणोमा जोईए तो तेमा जिनभद्गगणी अने तेमनी (वोपज्ञटीकानो निर्देश स्पष्ट ज करेलो छे। आ निर्देश ऊपरथी, जिनभद्गरगणीना शीलाकाचार्य शिष्य थता होय तेवो कशो ध्वनि प्रकद थतो नथी। जो तओ तेमना साक्षात्‌ शिष्य होत तो 'केक ठेकाणे ते विषेनो स्पष्ट-अस्पष्ट उल्लेख तेओ अवश्य करत । ए टीकामा एक उल्ेख तो !एवो पण नजरे पडे छे, जे, ए बेनो परस्पर कालकृत विशेष भेद सूचवनारों कही शकाय । ए (डड्ेख आ प्रमाणे छे'-- ' “भ्रष्याननुयायि पाठान्तरमिद अग्रतः), एवमनेनेव बृद्धिक्रमेणेत्यादेरबाक न चेद॑ ' भूयसीषु प्रतिषु दृ॒श्यते ।” वि० भाष्यनी ६३७ मी गाथानी व्याख्यामा आ उल्लेख आवेलो छे । अहिं, कोई जूनी प्रतिओमां शीलांकाचायेने पाठमेद नजरे पड्यो छे अने ते पाठमेद भाष्यका- रना अभिप्रायथ्री जूदो पड़तो जणायो छे; तेथी ते माटे पोतानी टीकामा एमने उल्लेख करवो पथ्यो छे के जा पाठमेद भाष्यने अनुगत नथी, तेम ज॑ घणी प्रतिओमा आ पाठ मत्तो पण नथी । जा उद्धेल स्पष्ट सूचवे छे के शीलांकाचायना समयमा विशेषावश्यकमा पाठभेदो थई १६ चूक्‍्या हता अने तेनी घणी जूदी जूदी पाठमेदोवाल्शी प्रतिओं पण थई चूकी हती। भा वस्तु- खिति त्यारे ज बध बेसती बनी शके ज्यारे शीलाकाचाय्ये अने जिनभद्गमणी क्षमार्रमण वच्चे कालकृत विशेष अन्तर होय । जो ए बन्नेनी बच्चे काई अन्तर न होय अने पट्टावलि लेखकना कथन प्रमाणे एमनामां गुरु-शिष्यनो ज सबन्ध रहेलो होय तो विशेषावश्यकभाष्यमा आवा पाठमेदो अने प्रत्यन्तरोनी नॉघ लेवा जेवी स्थिति शीलांकाचायेनी सन्‍्मुख उपस्थित ज शी रीते थई शके । माटे ज्यां सुधी बीजा कोई स्पष्ट साधक बाघक प्रमाण न मह्ती आवे त्या सुधी शीरां- काचायने जिनभव्रगणीना शिष्य पण मानी शकाय तेम नथी, तेम ज ते बन्ने समकालीन हता एम पण कही शकाय त्तेम नथी । जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणना समय निर्णय माटे हजी बीजी घणी बाबतो चर्चवा जेवी छे, पण जा खल्े ते बधीनी चर्चा करवा जेटछों अवकाश न होवाथी हु ए बाबतनों कोई स्पष्ट निर्णय आपी शकु तेम नथी । पण, खास काई विरोधी प्रमाण नजरे न पड़े ता सुधी पद्ावलियोमां जे वीर सवत्‌ १११५०-विक्रम सबत्‌ ६४५ नी साल एमना माटे लखेली छे तेनो खीकार करीए तो ' तेमां कशी हरकत नथी। जीतकल्पसत्र दा आ सूत्र, एना नाम प्रमाणे जेन अ्रमणोना जाचार विषयक छे अने एमां १० । प्रायश्रित्तनु विधान करवामा जाव्यु छे। आ प्रायश्रित्त सबन्धी विषय छेद सत्रो अने वीजा था] ॥॒ ग्न्योमा चचबामा आब्यों छे। तमा. कटलीक जग्याए त बहु ज॑ सक्षिप्त रीते चर्चेलो छे, ते केटढीक जमग्याएं घणी ज विस्तृत रीत वर्णवेलो छे । एटछा माटे जिनभद्गगणी क्षमाश्रमणं चहु सक्षिप्त नहीं तेमज बहु विस्तृत नहीं एवी मध्यमरीते ए विषयन समजाववा माटे ज' ग्रन्थनी सकलना करी होय तेम सभव छे । आ प्रायश्षित्तना विषयमा एक वात नोधवा जेवी छे, अने ते ए छे, के श्वताबर संप्रदायना सर्वे आगमोमां अने अन्य अन्थोमा आ जीतकल्पसूत्र प्रमाण ज १० प्रक्ारना प्रायश्वित्त वर्णवेछा मद छे । पण तच्चार्थसृत्रना नवमा अध्णयना ५१--२२ सूत्रभा प्रायश्रित्तना प्रकार ९ ज गणाव्या छे, अने तेमा, आ सूत्रमा वणवेल्या मूठ, अनवस्थाप्य अने प्ररचिक आ छेल्ला त्रणना खाने, परिहार अन उपशापना नामना वे प्रायश्चित्त क्या छे । दिगम्बर रुप्रदायना साहित्यमा प्रायः सर्वत्र तत्त्वाथरूत्र प्रमाण ९ ज प्रायश्रित्त मछी आधे छे। श्रेताबर साहित्यमा एक तत्त्वार्थ- सूत्र सिवाय बीजे क्याए आ प्रकार दृष्टि गोचर नथी थतो। जिनभद्रगणी क्षमाअमण जीत- कल्पसूत्रनी अते एम पण कहे छे के तप-अनवस्थाप्य अने तप-पाराचिक आ बचने प्रायश्वित्त भद्गबाहुखामी पछी व्युच्छेद पाम्या छे | दिगम्बर साहित्यमा आ विचार क्याएं नथी | तेम ज तत्त्वाधभाष्यमा पण आ सब्ंधे काई सूचन नथी । विद्वान्‌ अभ्यासिओ तत्त्वाथसृत्रना कतेलना प्रश्ननों ऊहापोह करे त्यारे आ विषय पण तेमा विचारवा जेवो छे, ए सूचन करवा सारु अई आ नॉंध करवी उचित लागी छे । १७ जीतकल्पसचत्न-व्याख्या-साहित्य आ सूत्र ऊपर उपलब्ध थता व्याख्या-साहित्यमां जूनामा जूमी कृति ते आ आउदृत्तिमां प्रकाशित सिद्धसेनक्रत चूर्णि छे | आ चूर्णि रचायां पहेला पण कोई चूर्णिए च्रूत्र ऊपर रचाएली हती एम प्रस्तुत चूर्णिमां, एछ २३, पक्ति २३ ऊपर, आवेला उलेखथी ज्ञात थाय छे, पण ते उपलब्ध नथी । आ मुद्रित चूर्णिना कतों सिद्धसेनगणिना समयादि विषेनो निर्णय करवा माटेनां साधनोविष विशेष शोध खो थई शकी नथी, तेथी आ सिद्धसेन कोण अने क्‍्यारे थया--ए प्रश्नने छेब्या वगर ज द्वाठ तो चलावी लेवुं प्राप्त छे। आ चूर्णि ऊपर जे टिप्पण आपवामा आख्यु छे तेना कती श्रीचन्द्रसूरिना समयादिनों उल्लेख टिप्पणनी मशस्तिमा आपेलो छे, अने ते अनुसारे विक्रम सबतू १२२७ मां अणहिलपुरमां तेशणे आनी रचना करेली छे । आ श्रीचद्रसूरिण आ्रवकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति ( सवत्‌ १५२२ ), कि (संवत्‌ १२२८), निशीथर्विभ्ोद्देशकवृत्ति, विगेरे बीजा पण केटलाक व्याख्याग्रन्थो त्त्या छे। प्रस्तुत चूणि सिवाय आ सूत्र ऊपर एक प्राकृत गाथावद्ध भाष्य पण उपलब्ध थाय छे । ए घ्यना कती कोण छे ते काई ज्ञात थई जक्‍यु नथी । एनो आदि-अंतनो भाग आ प्रमाणे छे--- आदि-क्प्यणप्पणामो बुच्छे पच्छित्दाणसंखेव॑ । जीयव्ववहारगयं जीवस्स विसोहणणं परम ॥ पवयणदुवालसंगं सामाइयमाइबिन्दूसारन्त । अह व चउठविहसंघो जत्थेव पहद्विय नाणं ॥ अह था पगयपसत्थं पहाणवय्णं व पवयण्ण तेण । अहद व पवत्तयतीई नाणाई पवयण तेण ॥ अन्त-अप्पग्गन्थमहत्थो इति एसो वण्णिओ समासेणं | पंचमतो वचहारो नामेण जीयकप्पो त्ति ॥ कप्पव्ववह्वाराणं उदहिसरिच्छाण तह णिसीहस्स । सुतरतणबिन्दृणवणीतभूतसारेस णातव्वो ॥ कप्पादीए विण्णिवि जो सुत्तत्थेहि णाहिती णितुर्ण । णिगदिस्सति सो एयं सीसपसीसाण णहु अण्णो ॥ ॥ इति श्रीजीतकल्पभाष्ये ॥| ३३०० ॥ सं० १७२० पघर्षे माग्गेशीर्ष शुदि १ शुक्रवासरे अधेह श्रीपतने लि० श्रीमोढज्ञातिनां गीकाशीदासात्मजेन अंबादत्तेन | शुर्म मवतु । शिवमस्तु । १८ आ भाष्य, प्रस्तुत चूर्णि रचाया बाद रूखायु होय तेम जणाय छे, कारण के घूर्णिमां भाष्यनो क्याए उल्लेख थएलो नथी देखातो । चूर्णि पहेला जो भाष्यनी रचना थई होत तो कूर्णिकार तेनो अवश्य उल्लेख करत । चूर्णि अने भाष्य सिवाय, आ सूत्र ऊपर एक संस्कृत टीका पण खतंत्र रीते छखाएली मल्ठे छे | ए टीका, आवद्यकसूत्रनी रुघुत्ृत्ति रचनार श्रीतिलकाचार्ये रची छे | ए टीकानों आदि अने अन्त भाग आ प्रमाणे छे'-- वन्दे बीर॑ तपोवीर तपसा दुम्तपन यः । शुद्ध सत्र विदधे खण खणकार इवापिना ॥ जिनस्थ वचन नोमि नव तेजखिमण्डलम्‌ । यतो ज्योतीषि घावन्ति हतुमन्तगेत तमः ॥ निःपत्पूईं प्रणिदधे भचानीतनयानहम्‌ | सवानपि गणाध्यक्षानक्षामोदरसब्ञतान्‌ ॥ जिनभद्गगर्णि स्तोमि क्षमाश्रमणप्रत्तमम | यः थ्रुताजीतमुदध शारि। सिन्धो! सुधामित्र | प्रणमाम्यात्मगुरूंस्तानू घनसारशलाकय्व यदाचा | अज्ञानतिमिरपूरितसुहाटितं ममान्‍्तरं चक्षु इति नुतिकृतसुकृतः श्रुतग्ह्यकटराय्स जीतकर्पथ। विवरणलवं करिप्ये स्वस्मृतिबी जग्रती धाय श्रीमान्‌ चन्द्रप्रभः सरियुगप्राधान्यभागभूत्‌ | तदासनमलंचकुः श्रीधर्मघोपमरयः ॥ तत्पद्श्रीश्जो5भूवन्‌ श्रीचक्रेश्वरवरय! । श्रीशिवग्र ससरिस्तत्पठु श्री ही रनायक! ॥ तदीयशिप्पलेशोहहं सरिभ्रीतिलकामिधः । अनन्यसमसोस्भ्यथ्ुवाम्भोजमघुव्रत) ॥ हमामीरगविधां चूर्ण! तस्याथोपनिवन्वतः । गुरूणां संप्रदायात् विज्ञायाथ स्वशक्तितः [| अकापे जीतकल्पस्थ वृत्तिमत्यस्परधीरगि । सा विशोध्या श्रुतधरः सर्वेर्मयि क्पापरः ॥ सहसमेकक छोकानामधिक सप्रभिः शत; । प्रत्यक्षरेण संख्याया मानमस्य विनिश्वितम्‌ ॥ जीतकलपसूत्रना अनुकरण-ग्रन्थ आ सूत्रना अनुकरण रूपे, पाछछना आचायोए यतिजीतकल्य जने श्रा्ठजातकछ्य ए नामना बीजा ब॑ त्रण खतत्र ग्रन्थो पण छूच्या छे, जब तेमना ऊबर टीका-टिप्पणी आदि केटाक व्याख्या ग्रन्थों पण उपलठ्ध थाय छे। आ अन्थने, आ रूपमा प्रकट करवा माट, श्रीयुत मोदी केशवल्ारु प्रमचन्दर भाईना उत्सा अने आग्रह ज॑ मुख्य कारणभूत थयवा छे अने तथी आ प्राचीन अन्थरनना उद्धारतु मुझ श्रेय तेमने ज घटे छे । गूजरात पुरातत्त्व मन्दिर अमदाबाद आश्विनमास, सवत्‌ १९८२. ।क्‍ “मुनि जिनविजय छुओ, जनग्रन्थावत, प्रष्ठ ५६ १९५ परिशिष्ट शीलांकाचाये विषे वधारे विगत पाछक्ना पानाओमा शीलाकाचाय विषे केटलीक चचोा करी छे अने तेम। मे एम अमिप्राय दर््ाव्यो छे के शीलूकावार्य घणु करीने द्रिभद्र सूरिना समकालीन द्वोवा जोईए। आ प्रस्तावना ग्रेसमा गया बाद ढॉ दर्मेन याकोबीनी लखेली हरिभद्रकृत समराइच्रकट्टानी प्रस्तावना मारा जोवामा आवी । ए भ्रस्तावनार्मा प्रसंगवशात्‌ शीलर्षकाचार्य विषे एक बे ठेकाणे डॉ याकोबीए उल्लेख करेलो छे अने एमना मते ए आचाये दरिभमदर करता एक सैका पछी थया हता तेम छागे छे । प्रमाण जो के कोई नघु ए नथी आपता पण आचाराग टीकानी प्राते जे शक सबक त्‌ ७९८ नी पक्ति मत्यी आवे छे तने ज ग्रमाण मानी ए पोतानो अभिपम्नाय व्यक्त करे छे। प्रस्तावनाना पृष्ठ १० नी नोटमा ए जणावे छे के-- २ 0 (र हीआएा।0 [० एका््वीगक छिलवानल 58090 | ४ 60 ००० १० 4,0०0 +६6 50प7 00 दवातपे 40 +0 245ए०ंो छत 0० ऋ)इकका।78290९0॥8 हितदवणोर 8 ।७ 8घ00७७० ० व[द्वाजवत3, ६ ता ॥५ ॥]08500]९, ७008 86 0009 ०६ 5 # लिवाबाहूवापरब 7५ - बयपे [0 ४० 9३ 798-872 3 7), ० ग000 शिक्षा। ०0शापाए के किवा 24900॥ 80) 8 ई. एज प्रस्तावनाना पृष्ठ १३ ऊपर एफ बीजी रीते पण हरिभद् अने शीलाक वच्चे एक सैकानुं अतर सूचवर्तां ४ पिद्वान्‌ लक्षे छे के-- *+| कक बएफ्पैजह (० 2० |,0प्रशाशा व ्वाजिद्गतौ8 0०0०० ०0 0 (१०७ ६९०5६ के फिमारओ॥, ७५ 70वा०पे 00 रीजाबो।५ गाते तापधया ०गीए [६8 0 609 उिपराका क ० जाएगा ओं की], ४० 57द ० क्‍ीएप्रगाशाणव ए०७ शीत & का ए ण, शिवा ०५ "पर ]45७ए०७ ४० 700 छिपा: आमाना प्रथम अवतरणगा तो आचाराग टीकाना शक सवत्‌ ७९८ वाला उल्लेखने, ज्या सुधी ते अन्य । साणोथी असिद्ध न ठरे, प्रसाणभूत मानी, सरतरगच्छ पद्कावलीमा जे शीलाकने हरिभद्रना शिष्य लख््या छे तेने । यायोबी असभव माने छे, अने दरिभद्वनों जे समय में निर्णात कर्यो छे तेनों सपूर्ण खीकार करी, ते ज सम- नैना हिसाब, ए बने आचार्यों बच्चे एक सका जेट अत्तर बनावे छे । /. बीजा अवतरणमा प्रो लोयमाने पोताना दशवेकालिक सूत्र ऊपरना निबबमा (८ 3) 3 (,ए०] 0 . 55] व ) जन आगमो उपरना व्याख्या साहित्यना कालकरम सबंधे जे अभिप्राय जणाब्यों छे तेने जुसरीने डा. यावोबीए दरिसद्र अने शीलाक बच एक सका जेटल व्यवधान सूचव्यु छे ! आ प्रस्तावनाना वाचकोनी विशेष समजण खातर प्रो. लॉयमाने दोरेला व्याख्या-साहिल्य ना कालक्रमनु स्पष्टी- रण करयुं भावश्यक छे | जैन आगमो ऊपर साथी भ्रथम नियुक्ति नामे प्राकृत गाथाबद्ध टरकी टिप्पणीओ रचाई, है पछी प्राकृत गाथामा ज विस्तृत भाष्यो रचाया, ते पछी प्राकृतबहुल अने कचित्‌ सस्कृतवाला गद्ममा चूर्णिओों छपाई, ते पछी सस्‍्कृतबहुल अने क्चित्‌ प्राकृतवाला गद्ममा टीकाओ रचाई, अने ते पछी छेवटे केवल सस्कृतमा जे व्याख्याओनी रचना थई । आ प्रकारना द्रेक व्याख्या-निबधोनो कालक्रम साधारण रीते एक-एक सेका जेटछो क्मजी लेवानो भ्रभिप्राय ए विद्वानोनो धाय छे । उदाहरण तरीके--आवश्यक अने नदिसूत्रनी चूर्णिना कतों लिनदासगणि मद्दत्तर विक्रमना आठमा सेकाना पूर्वापमा थया। तेमना पछी एक सैका बाद संस्क्ृतबहुल एवी (ीकाओ लख्षवानी शुरुआत करनार दृरिभद्र थया । हरिभद्रे पोतानी टीकाओ माटे जो के सत्कृतमा ज लखवानो १ नविसृत्ननी चूर्णि शक सवत्‌ ५९८-विक्रमसवत्‌ ७३३ मा रचाई इती | २० पद्धतिनों अंगीकार कौधों हतों पण बच्चे बचे प्रमाणरूपे जे कथानकों वबिगेरे आपवानी जकूर पडी ते तेमणे पूर्वनौ: चूर्णिओमांथी प्राृतमां ज तद्त्‌ तारवी लीधां। ए पछी, एक सैका बाद शीलाकाचार्य थया जेमणे पोत्तानी_व्याश्या- श्ने परिपूर्णरीते संस्कृतमां ज रुखवानी शैलीनो खीकार कीधो। प्रो लॉयमाने दोरेलो आ फालक्रम जो के सामान्यरीते बंध बेसतो जणाय छे अने जैन आगम-साहित्यना विकासक्रमनो इतिद्दास जोतां ए्‌ विचार घणाभागे खीकारणीय पण जणाय छे । छ्ता एमा कोक अपवाद पण दृष्टि" गोचर धाय छे । दाखला तरीके इग्यारमा सैकामा शांत्याचार्ये उत्तराष्ययनसूत्न ऊपर जे टीका लखी छे ते दृरि- भव्रनी पद्धतीए लखी छे । मूक सूत्र अने निर्युक्तिनी व्याख्या ज्यारे ए आचार्य सस्कृतमां लखी छे व्यारे एमां आवता बधा कथानको प्राकृतमा ज पूर्वनी चूर्णिमाथी तद्वत्‌ उतारी लीधा छे, अने एथी ए टीका बीज नाम पाइय (आइृत) टीका तरीके बधारे प्रसिद्ध छे | केवल शात्याचार्ये ज नहि पण तैमना पछीना सैकामां यएलां ए ज सूत्रना बीजा टीकाकार देवेंद्रगणिए पण ए पद्धतिचु अनुसरण करी पोतानी टीकामां लॉबी लांबी छा प्राहृतमा ज गरृथी छे ) आ ऊपरथी आपणे जोईं शकीए छीए के शीलांकाचार्यना समयमाटे प्रो छॉयमान-अंकित कालक्रम सर्व्ता साधकरूप नथी । तेम ज, आचारांग टीका प्रति आवेली शक सवत्‌ वाकी पर्कि पण विविध पाठभेदों धराद्ौ होवाने लोचे, जेम में प्रस्तावना पृष्ठ १४ ऊपर जणाव्यु छे, तेम भ्रश्नान्त गंणी शकाय तेम नथी। पण भाचारांग टीकावाली पंक्तिजुं समर्थन करे एबु जे एक बीजु प्रमाण हमणा मारी दंथ्गोचर थयु छे तेनी नॉधहू, भर्हिं लक छु जैन साहित्य संशोधकना प्रथम भागना, २ जा अकमा, वृहह्वि्पनिका नामनी एक प्राचीन जैसा प्रथ सूचि में प्रकट करी छे । ए सूचि लगभग ५०० वर्ष जेटली जूनी छे अने #हु गवेषणा पूर्वक तैयार करवा बएएए रो लेवी देरी सुऋलतए के ५ ए सूच्िलए २८३ छण्एंऋ ऋषर शरूप्वाए्यू रचित प्राक्रत मुरूय मद्दापूरुष चरि* त्रनी नोंध छे। जेनी १०००० जेटली श्लोकसख्या, भने ९२५ वर्ष रचना थएली लखी छे । मूलप्रथ अयापि मार। जोवामा आब्यो नथी तेथी एना रवना-समयनो उडलेख केवा प्रकारनो छे ते काई कलपी शकाय तेम नथी, पररेहूँ जो ए चरिश्रकर्ता शीलाचार्य अने आचाराग अने सून्नकृताग टीकाकर्ता शीलार्चार्य बन्ने एक ज द्ोय तो, आचा.' राग टीकागत शक सवत्‌ ७९८ वालो उछेख अवश्य सत्य होई शके छे | कारण के , शक सवृत्‌ ७९८ ए विक्रम, संवत्‌ ९३३ बराबर थाय छे, अने महापुरुष चरित्रनी रचनानी जे ९२५ नी सलि बवृहश्विप्पनिकाकारे आपेछी छे ते विक्रम संवतनी गणत्री वाली ज द्वोवी जोईए, कारण के, ए सूचिमा प्राय सर्वत्र एज गणत्रीनों व्यवहार करवामा आब्यो छे । 'तेथी ए बन्ने साल बच्चे मात्र ८ वर्षनो ज तफावत रहेतो होंवाथी आ बचन्ने कृतिओ--आचारांणा टीका अने महापुरुष चरित्र--समकालीन ज ठरे छे । अने तेथी ए बच्नेना कर्ता शीलाचाय एकज व्यक्ति इता, एम” मानजुं प्राप्त थाय छे । मं भा हकीकत ऊपरथी आचारांग टीकाकर्ता शीलाचार्यनों समय निर्णय भई शके छे, पण, विशेषावश्यक्ष भाष्यटीका कर्ता कोव्याचाय के जेमलु नाम शीलाक पण कहेवामा आचे छे तेमनो तथा अणहिलपुर सस्थापक्ष *ै बनराजना गुरु तरीके श्रस्तिद्ध थएला शीलग्रुण के शीलाक नामना जे आचाये छे तेमनो निर्णेय तो मूल प्रस्तावनाम | णणाय्या प्रमाणे अनिश्चित ज रहे छे । १ ८ सूचिकारे आचारांग टीकानों रचना समय पण विक्रमसवतनी गणत्रीए गणी १३३ वर्ष नो जआप्यों छे-ज़ुओ बृह ट्विप्पनिका, क्रमांक ९ (३) रे ॥ णम्तो समणस्स भगवओ महाीरस्स ॥ सिरि-जिणभद्द-खमासमण-विरइ्यं जीयक प्पसुत्तं कय-पवयण-प्पणामो वोच्छे पच्छिस्तदाण-संखेवं । जीयव्ववहार-गयं जीयस्स विसोहणं परम ॥ १ ।। संवर-विणिल्लराओ मोक्‍क्खस्स पहो, तवो पहो तासि। तवसो य पहाणंगं पच्छित्त, ज॑ च नाणस्स ॥ २॥ सारो चरणं, तस्स वि नव्वाणं, चरण-सोहणत्थं च | पच्छित्तं, तेण तय॑ नेथं मोक्ग्वत्थिणाष्वस्सं ॥ ३ ॥ त॑ द्सविहमालोयण १ -पडिकमणो भय २-३ -विवेग ४ -वोस्सगर्गे ५। तब ६ -छेप ७ -सूल ८ -अणवट्दया ९ य पारश्वचिए १० चेव ॥ ४॥ करणिज्ञा जे जोगा तेसुवउत्तस्स निरहयारस्स । छडमत्थस्स विसोही जहणो आलोघणा भणिया ॥ ५ ॥ आहाराइ-ग्गदणे तह बहिया निर्गसेसु5णेगेसु । उच्चार-विहारावणि-चेइय-जहइ-वन्दणाइ सु ॥ ६ ॥ ज॑ चच्त करणिहल्न जहणो हत्थ-सय-बाहिराथरियं । अवियडियम्मि अखुद्घो, आलोएन्तो तय सुद्धों ॥ ७॥ कारण-विणिग्गयस्स य स-गणाओ पर-गणागयस्स वि य । उवसंपया-विहारे आलोयण-निरहपारस्स ॥ ८ ॥ गुत्ती-समिह-पमाए गुरुणो आसायणा विणय-मंगे । इच्छाइणमकरणे लहुस संसा5दिन्न-मुच्छाछु ॥ ९॥ अविहीइ कास-जंभिय-खुय-वायासंकिलिटह्-कस्मेसु । कन्दृप्प-हास-विगहा-कसाय-विसयाणुसंगेसु ॥ १० ॥ स्ालियस्स य सव्वत्थ वि हिंसमणावद्ध ओ जयन्तस्स । सहसा5णामोगेण व मिच्छाकारो पडिक्कमर्ण ॥ ११॥ है /॥ | ढें हा के जिणभमह-खमासमण-विरहय ( गाया १२-७७ आशभोगेण वि तणुएसु नेह-मय-सोग-बाउसाइसु । कन्दप्प-हास-विगहा इ एसु नेयं पडिक्षमणं ॥ १२ ।॥। संभम-भयाउरावइ-सहसा5णाभोगडणप्प-वस ओ वा। सव्व-वयाईयारे तदुमयमासंकिए चेव ॥ १३ ॥ दुच्िन्तिय-दुब्भासिय-दुच्चेड्िय-एवमाइयं बहुसो । उवउत्तो वि न जाणह ज॑ देवसियाह-अहयारं ॥ १४॥ सब्वेसु वि बीय-पए दंसण-नाण-चरणावराहेसु । आउत्तस्स तदुभय सहसकाराइणा चेव॥ १७५॥ पिण्डोषहि-सेज्लाई गहिय॑ं कडजोगिणोवउत्तेण । पच्छा नायमसुद्धं सुद्ों विहिणा विगिश्वन्तो ॥ १६ ॥ काल5द्धाणाइच्छिय-अणुग्गवत्थमिय-गहियमसढों उ । कारण-गहि-उब्वरियं भत्ताइ-विगिश्वियं खुदो ॥ १७ ॥ गमणागमण-विहारे खुयम्मि सायज्य-सुविणयाईस । नावा-नइ-सन्तारे पायब्छित्तं विउस्सग्गो ॥ १८॥ भत्ते पाणे सपणासणे य अरिहन्त-समण-सेज्नासु । उच्चारे पासवर्ण पणवीसं होन्ति ऊसासा ॥ १०॥ हत्थ-सय-बाहिराओ गमणा55गमणाह एसु पणदीसं । पाणिवहाई-सुविण सयमहसयय चउत्थम्स्ति ॥ २० ॥ देखिय-राइय-पक्खिय-चाउम्मास-वरिसेसु परिमाणं । सयमद्धं तिन्नि सया पंच-सयड्ट्ुत्तरसहस्स ॥ २१ ॥ उद्देस-समुद्देसे सत्तावीस अणुण्णवणियाए। अट्टेव थ ऊसासा पढद्चवण-पडिक्षमणमाई ॥ २२ ॥ ६. (१) उद्देसघज्ञ्ञयण-सुथक्ग्वन्धंगेस कमसो पमाहसुस । कालाइक्रमणाइसु नाणायाराहयारेसु ॥ २३ ॥ निव्विगहय-पुरिमहेश भत्त-आयंबिल चणागादे | पुरिसाई खस्णन्त आगाडे; एचम्त्थे वि॥ २४॥ साम्षन्न पुण सुत्ते मयमायामं चउत्थमत्थम्मि। अप्पत्ता5पत्ता5वत्त-बायणुद्ेसगाइसु थ ॥ २०॥ कालाविसज्वणाइसु सण्डलि-वसुहाउपसज्ल णाइसु य । निव्वीहयमकरणे अक्ख-निसेज्ञा अभत्तटद्टो ॥ २६ ॥ "था २७-४३ ]. जीयकप्प-सुत्त गा आगाहाण्यागाढम्मि सच्व-मंग य देस-भंगे य । जोगे छट्ठ-चउत्थं चउत्थमायम्विलं कमसो ॥ २७ 0 (२) संकाहएस देसे खमण मिच्छोवच्र्‌हणाइसु य। पुरिमाह « »णन्त भिक्‍खु-प्पभिषशेण व चउपहं ॥ २८ ॥ एयं चिय पत्तेयं उवचुहाड्रणमकरणे जहणं । आयामन्त निव्वीहगाइ पासत्थ-सहेसु ॥ २०॥ परिवाराइ-निमित्त समत्त-परिपालणाइ वच्छछे । साहम्मिओ त्ति संजम-हेउं वा सब्वहिं खुद्धों ॥ ३० ॥ (१) एगिन्दियाण घद्दणमगाढ-गाठ-परिधावणुदवणे । निव्वीय पुरिमईं आसणमायामर्ग कमसो ॥ ३१ ॥ पुरिसाई खमणन्त अणन्त-विगलिन्दियाण पत्तेयं । पशथ्चिन्दियम्मि एगासणाह कल्लाणयमहेग ॥ ३२॥ मोसाइखु मेहुण-वज्िएस दव्याइ-वत्थु-भिन्नसु । हीणे मज्ञुक्कोसे आसणमायाम-खमणाई ॥ ३३॥ लेबवाडय-परिवासे अभन्षद्वों सक-सन्निहीए य। इयराए छट्ठ-भत्त, अद्वमगं सेस-निसिमत्ते ॥ ३४ ॥ उदच्देसिय-चरिभ-तिगे कम्मे पासण्ड-स-घर-भीसे घ । बायर-पाहुडियाए सपचवायाहडे लो'मे ॥ ३५ ॥ महरं अणन्त-निक्खित्त-पिहिय-साहरिय-मीसयाहस । संजोग-स-हंगाले दुविह-निमित्ते थ खमर्ण तु ॥ ३६ ॥ कम्मुददेसिय-मीसे धायाइ-परगासणाइएसु च । पुर-पच्छ-कम्म-कुच्छिय-संसत्तालित्त-कर-मत्ते ॥ ३७ ॥ अहरं परित्त-निक्सित्त-पिहिय-साहरिय-मीसयाहस । अड्माण-धृम-कारण विवज्ञए विहिय मायामं ॥ ३८ ॥ अज्ञोयर-कड-पूह य-माया5णन्त परंपरगए य। मीसाणन्ताणन्तरगया इए चे गमासणयं ॥ २० ॥ ओह-बविभागुदेसोचगरण-प्‌रैय-ठविय-पागडिए । लोउसतर-परियट्टिय-पमिच-परमावकीए य ॥ ४० ॥ सग्गामाहड-ददर-जहन्न-मालोह डोझरे पढसे । छुडहुम-तिगिच्छा-सन्थव-निग-मक्खिय-दायगो बहए ॥ ४१ ॥ 7ए जिणभदद-खमासमण-विरइय॑ [ गाभथा ४३ पक्तेय-परंपर-ठविय-पिहिय-सीसे अणन्तराइखु | पुरिमहं संकाए ज॑ संकह त॑ समावज्ले ॥ ४२ ॥ इत्तर-ठविए सुहुमे ससणिद्ध-ससरक्ख-मक्खिए चेव । मीस-परंपर-ठवियाहएसु बीएसु याविगह ॥ ४३॥ सहसा5णाभोगेणव जेसु पडिक्तमणमभिहिय तेसु | आभोगओक्ति बहुसो-अहप्पमाणे य निव्विगई ॥ ४४ ॥ घावण-डेवण-संघरिस-गमण-किड्ठा-कुहावणाई स । उक्कुद्टि-गीय-छेलिय-जीवरुूघाइंसु य चउत्थं ॥ ४५॥ तिविहोवहिणो विज्ुय-विस्सारिय5पेहियानिवेघणए । निव्वीय-पुरिमसेगासणाइ, सव्वम्मि चायाम॑ ॥ ४९॥ हारिय-धो-उग्गमसियानिवेयणा दिन्न-भोग-दाणे सु । आसण-आयाम-चउत्थगाह, सव्वम्मि छट्ट तु ॥ ४७ ॥ मुहणन्तय-रघहरणे फिडिए निव्वीयर्य चउत्थं च। नासिय-हारविए वा जीएण चउत्थ-छट्ठाई ॥ ४८ ॥ काल5द्धाणाइेए निव्विहय ग्वमणमेव परिभोगे । अविहि-विगिश्वणियाए भत्ताइंणं तु प्रिमहं ॥ ४९॥ पाणस्सासंवरणे भ्ूमि-तिगापहणे थ निव्विगई । सव्वस्सासंवरण अगहण-मभंगे य पुरिमहं || ५०॥ एये चिय सामन्न॑ तवपडिसाइमिग्ग हाइयाएणं पि। निव्वीयगाह पक्खिय-पुरिसाइ-विभागओ नेये ॥ ५१ ॥ फिडिए सयमुस्सारिय-भग्गे वेगाह वन्दर्णुरसरगे । निव्वीहय-पुरिसंगासणाह, सव्वेखु चायाम ॥ ५२॥ अकएसु थ पुरिमासण-आयामं, सव्वसो चउत्थ तु । पुव्वमपेहिय-थण्डिल-निसि-वोसिरणे दिया खुबण ॥ ५३ ॥ कोहे बहुदेवसिए आसव-ककोलगाइएसुं च। लखुणाइसु पुरिमहं, तन्नाई-बन्ध-सुयणे य ॥ ५४ ॥ अश्लुसिर-तणेसु निव्वीहयं तु, सेस-पणएस पुरिमष । अप्पडिलेहिय-पणए आसणयं, तस-वहे जं च ॥ ५७ ॥ ठचणमणापुच्छाए निव्िविसओ विरिय-गहणाए थ । जीएणेक्वासणयं, सेसय-मायासु खमण्ण तु ॥ ५६॥ बा ५७-७९ ] जीयकप्प-सुत्त हप्पेण पश्चिन्दिय-वोरमणे संकिलिट्ट-कम्मे य | डीदह5डद्धाणासेवी गिलाण-कप्पावसाणे य ॥ ५७॥ सब्बोवहि-कप्पस्मि य पुरिसत्ता पेहणे यथ चरिसाए। चाउम्मासे वरिसे य सोह्ण पश्च-ऋछाणं ॥ «८ ॥ छेयाहइसमसहहओ मिउणो परियाय-गव्वियस्स विय । छेयाहेए वि तवो जीएण गणाहिवइणो य ॥ ५९ ॥ जे ज॑ न मणियमिहहं तस्सावत्तीएँ दाण-संग्वेवं । मभिन्नाइथा थे वोच्छ छम्मासन्ताय जीएणं॥ ६० ॥ . भिन्नों अविसिट्ठटो चिथ मासो चउरो य छच लहु-गुरुपा । । निव्वियगाई अद्ठमभत्तन्त दाणमेएस ॥ ६१ ॥ हय सव्वावत्तीओ तवसो नाउं जह-करम समए । ह जीएण देज्ज निव्वीहगाइ-दा्ण जहामिहियं ॥ ६२ ॥ एथ पुण सव्य चिय पायं सामन्नओ विणिदिद्ध । दाएणं विभागओ पुण दव्वाइ-विसेसियं जाण। ६३ ॥ दव्य १ खेत २ काले ३ भाव॑ ४ पुरिस ७-पडिसेवणाओ ६ य । नाउमियं चिय देज्या तम्मत्त हीणमहिय वा ॥ दे४ ॥ (१) आहाराहे दवर्य बलियं खुलहं च नाउमहियं पि। देज्जा हि; दुब्बल दुछ॒ह च नाऊण हीणं पि॥ ६०॥ (२) छुक्‍्खें सीयपल-साहारणं च स्तरेत्तमहियं पि सीयम्मि । ; लुकग्म्मि हीणतरयं. (३) एवं काले वि तिविहम्मि ॥ ६६ ॥ गिम्ह-सिसिर-वासाएुं देज्ज ट्टम-दसम-बारसन्ताई । नाउं विहिणा नवविह-सुयववहारोवएसेणं ॥ ६७ ॥ (४) हद्ठ-गिलाणा भावम्मि-देज्ज हट्दस्स, न उ गिलाणरस । जावहय॑ वा विसहइ त॑ देज्ज, सहेज्ज वा काल ॥ ६८ ॥ (५) घुरिसा गीयाउ्गीया सहा5सहा तह सढा$सढा केह । परिणामा5परिणामा अहपरिणामा थ वत्धूणं ॥ ६९ ॥ । सह घिह-लंघयणो मय-संपत्ना तदुभएण हीणा य । आय-परोभय-नो मय-तरगा तह अन्नतरगा थ ॥ ७० ॥ कप्पद्चियादओ वि य चउरो जे सेयरा समक्खाया। सावेक्खेघर-मेयादओ वि जे ताण पुरिसाण ॥ ७१॥ प्रा जिणभदद-खमासमण॑-विरइय [ गाया जो जह-सत्तो बहुतर-गुणो व तस्साहियं पि देज्वाहि। हीणस्स हीणतरगं, होसेज्ज व सवद्व-हीणस्स ॥ ७२७ एल्थ पुण बहुतरा भिक्‍खुणो क्ति अकपकरणाणभिगया य। जन्तेण जीयमटठम भत्तन्तं निव्वियाईय ॥ ७३ ॥ (६) आदउध्टियाह दृप्प-प्पमाय-क्रप्पेहि वा निसेवेज्यञा । दव्यं खेत्त काल भाव॑ वा सेवओ परिसो ॥ ७४ ॥ जं जीय-दाणमुत्त एयं पायं परमायसहियरस । एक्तो चिथ ठाणन्तरमेगं वह्ेज्ज दष्पकओ || ७५ ॥ आउद्वियाइ ठाणन्तरं च, सद्ठाणमेव वा देज्जा । कप्पेण पडिक्रमर्णं तदुभयमहवा विणिहिटठ ॥ ७३६ ॥ आलोयण-कालम्मि वि संकेस-विसोहि-भावओ नाउं। हीणं वा अहिय॑ वा तम्मत्तं वा वि देज्ञाहि॥ ७७ ॥ इति दव्वाइ-बहु-गुणे गुरुसेवाए य बहुतर देज्या । हीणतरे हीणतरं, हीणतरे जाबव झोस क्ति॥ ७८ ॥ झोसिज्वह खुबहुं पि हु जीएण5न्न॑ तवारिहं चहओ। बेयावच्चकरस्स य दिज्वह साणुग्गहतरं वा ॥ ७४०९ ॥ ७, तब॒-गव्विओ तवस्म य असमत्थों तवमसदरन्तों य । तवसा य जो न दम्मह अहपरिणाम-प्पसंगी थे ॥ ८० ॥ सुबहुत्तर-गुण-मंसी छेयावत्तिस पसज्माणो य । पासत्थाई जो वि य जह्ँण पडितप्पिओ बहुसो ॥ ८१ ॥ जक्कोसं तव-भूमि समहओ सावसेस-चरणो थ । छेय॑ पणगाईय पावह जा धरह परियाओ ॥ ८२॥ ८. आउट्वियाइ पश्चिन्दिय-घाए, मेहुणे य दष्पेण । सेसेसुको साभिक्ख-सेवणाइंसु तीसुं पि ॥ ८३॥ तव-गव्वियाइएसु य मूछत्तर-दोस-वहयर-गएसु । दंसण-चरिसवन्ते चियत्त-किचे य सेहे य ॥ ८४ ॥ अचन्तोसच्षेस्ु य परलिंग-दुगे घ सूलकम्से य । भिक्‍्खुस्मि य विहिय-तवे 5णवट्ट-पारश्वियं प्ले ॥ ८० ॥ छेएण उ परियाए 5णवट्ट-पारश्चिधावसाणे थ । सूल सूलावत्तिस् बहुसो य पसज्जओ भणियं ॥ ८९ ॥ ८७-१०९ ॥] जीयकप्प-सुत्तं ता जकोसं बहुसो वा पउद्द-चित्तो वि लेणियं कुणह | पहरह जो य स-पक्खे निरवेक्खो घोर-परिणामों ॥ ८७ ॥ ' अहिसेओ सब्वेछ्ु वि बहुसो पारश्चियावराहेसु । अणदबद्दप्पावक्षिसु पसल्लमाणो अणेगासु ॥ ८८ ॥ कीरइ अणवद्दप्पो, सो लिंग १-क्खेक्तर-कालओइ३-तवओ४ । (१) लिंगेण दृष्व-नावे 'भणिओ पव्वावणाउइणरिहो ॥ ८९॥ अप्पडिविरओ-सक्षो न साव-लिंगारिहो5णवद्द प्पो । (२) जो जत्थ जेण दूसइ पडिसिद्धो तत्थ सो खेत्ते ॥ ९० ॥ २) जशियमिसं फालरूं. (:) तवसा उ जहज्नएण छम्मासा । संवच्छरमुकोसं आसायइ जो जिणाइंणं ॥ ९१ ॥ यासं वारस वासा पडिसेची, कारणेण सव्वो वि। थोच थोवतरं वा वहेज्व, छुश्वेज़ वा सब्व ॥ ९२॥ वन्‍्दश न य चन्दिज्वह, परिहार-तव सुद॒चर चरह। संवासो से कप्पह, नालवणाइणि सेसाणि ॥ ९३ ॥ . लित्थपर-पबयण-छुय आयरियं गणहर॑ महिटिय॑ । शच्ण्ग्गन्तो बहसो आभिणिवेसेण पारश्वी ॥ ९४ ॥ जो य स-लिंमे हल्के फसाय-विसए हिं राय-वहगो थ । राय रग्शशिसि-पडिसेवओ य बडुसो पगासो य ॥ ९५ ॥ थीणदि-मशातोसा ज़न्नोउन्नासेवणापसत्तो य। अरिधठाणइवततिस बहुसो य पसज्वए जो उ॥ ९६॥ सो कीबड ऋखशीःईक्ंगा ओ (-खेत्तर-कालओ३-तवओ य ४। / असंफषायरब-फेहिसेवी लिंगाओ धीणगिदी य ॥ ९७ ॥ (5 'भर्सकि मिस भण-७।इकट ग-साहि-निओ ग-पुर-देस-रज्ञा ओ । क्क्कता 5 दाभ्रछस्वी कुल-गण-संघालवयाओ वा ॥ ९८॥ नाटक्षड़ इक कृत्र जिस्सह य जत्थ नाऊर्ण । ... ”च्ा राक्तों क्ीशोरइ खेत्ताओ खेत्त-पारश्वी ॥ ९९ ॥ (३) जॉसिसेह कार्:'र, (०) तवसा पारश्वियस्स उ स एव । 'को [रदिर्नज्फप्पस्स वि अणवह्वप्पस्स जोडमिहिओ ॥ १०० ॥ " एगारीरे #*र७ल्‍्यहिं। कुणह तव॑ सु-विउल महासत्तो । अण्आाकक्रेचणुसायरिओ पह-दिणमेगो कुणइ तस्स ॥ १० ११ ६8 ॥ 8 जिणभद्द-खमाससण-विरइयं [ गाथा १०२३-९१, अणवह्ठप्पो तबसा तव-पारश्वी य दो वि बोच्छिज्ना । चोइस-पुव्वधरम्मी, धरन्ति सेसा उ जा तित्थं ॥ १०२ ॥ इय एस जीयकप्पो समासओ खुविहियाणुकम्पाएं । कहिओ, देयो5यथं एुण पत्ते सुपरिच्छिय-गुणम्मि* ॥ १०३ ॥ ॥ सिरि-जिणभद्द-खमासमण-विरहयं जीयव्ववहार-कप्प-सुत्त समत्तं ॥ “प्रह्यन्तरे सूत्रपाठे १०६ गाथा लिखिता उपलब्यते । तत्र वत्तणुवत्त पवत्तो बहुसो आसेविओं महाणेण । एसो उ जीयकप्पो पश्चमओ होइ नायव्वों ॥ “डइय गाधा प्रथमगाथाइनन्तरम 9 अप्पा सलगुणेसुं विराहणा अप्प उत्तरगुणल । अप्पा पासत्थाइस दाणग्गहसंपओगाहा ॥ -इैयं गाथा अष्टमगाथाइनन्तरम , सोलस उम्गमदोसा सोलस उप्पायणा य दोंसाओ | दू्स एसणाए दोसा संजोयणमाह पंचे थ ॥ “इयं गाथा चतुझ्धिंदत्तमगाथाउनन्तरं च लिखिता सन्शश्यते। पएवदू ग' थात्रितय्य मन्‍्थान्तरगतं न तु प्रकृतसूत्रकारकृतं चूण्यौदिव्याख्याकृद्धिस्तयेव सूचितत्वातू । नमो स्थु ण॑ समणस्स भगवओ महावीरस्स सिद्सेणसूरिकया जीयकप्प-चुण्णी मिद्धत्थ-सिद्ध-सासण सिद्धत्थ-सुर्य सु च सिद्धत्थस्स । वीर-वर चर-चरय' वर-वरणट्दि महिय नमह जीच-हिये ॥ १॥ हु एकारस वि गणहरे दुद्धर गुण-घारण धराष्टिव-सारे । जम्बु-प्पभवाई ए पणमह सिरसा समत्त-सुत्तन्थ-घरे ॥ २॥ दप-नव-पुव्वी अदसेसिणो य अवसेस-नाणिणो य जत्तेण । सदबे त्रि सच्व-काल निगरण-सुद्धण नमह जइ-गुण-प्पवरे' ॥ ३ ॥ पत्तो नेव्वाणगं' नेव्याण गमयत्ती लि निव्वाणंग । १0 पगये पसत्थ-चयर्ण पहाण चयणण च पवयर्ण नमह सया ॥ ४॥ जमा ये अणुओग-घर जुग-पपदाण पहाण नाणीण मय*। सब्व-सुद-सत्थ-कुसल्ठ दंसण-नाणोवओग मग्गम्मि ठिय॑े ॥ ५॥ जल्स मुह-निज्ञमरामय-मय-वस गन्धाहिवासिया इब भमरा । नाण-मयरन्द-तिसिया रतक्ति' दिया य मुणिवरा सेवन्ति सया॥ ६ ॥ 5 स-समय-पर-स्थ्मयागम लिवि-गणिय-च्छन्द-सद-निम्मा भो । दससु थि दिसाखु जस्स य तर णु ओ गो श्मइ अणुवमों जस-पडद्ो ॥ ७ नाणाणं नाणीण य हेऊण' य पर्माण-गमणहराण य पुच्छा ! अविसेस ओ विसेसा विसेसियाप्प्य मम य स्मि अणुवम मद्णा ॥ ८॥ जेण य छे य स॒ य व्या आनत्तीदाण-विग्यणा जत्तेणं । 20 पुरिस-विसेसेण फुडा निज्ढा तय दा ण+ प्पस्मि विही ॥ ९ ॥ पर-समयागम-निउर्ण सुस मिय-सु-समण-समाहि-मग्गेण गय । जिण भह खमासमण सखमासमणाण'' निहाणमिव एक ॥ १० ॥ ते नमि् मय-महर्ण माणरिह लोभ-वज़िय जिय रोसं | तेण' य जीव-विरदय-गाहाणं विवरण प्षणिहामि जहस्थ ॥ ११॥ 88 को वि सीसो घिणीओ आवस्सयद्सकालिय-उत्तरम्ययणा-55थार-निसीह-सूयगड-द्सा- गा माइय अंग-पविट्ट बाहिरं च सुत्तणों अत्थभो य अधिज्िऊण गुरुमुवगम्म बारसावत्त कय-किदकस्मो परायवडिओ ठिओ कर-यलू-जुयले मत्थए टवेईे --'भगवं ! कप्प ववहार-कप्पियाकप्पिय चुलकष्प महाकप्पसय-निसीहाइण्सु छेद-सुत्तेखु -वित्थरेण पच्छिस भणियं | पद दिवसं व तेण असमत्थों विसोहिं काउ। मइ-वामोहो 30 । भें भचद* अश्नश्न “गन्थेसु' । नाणाइयारेसु” आधवत्ती का, कम्मि था के दाण दिज्ञद त्ति। « 3 3वबर4ं। 2 3 जनेण । 3 3 पव०। ४73 निव्वा०५ । 5 सदा। 06] 3 वहु-सय । रवि च। 8 3०» भोगे। 9 8 हेकण य। 0 35 विसेते ग्र। !] 73 “समणनि० । 3 3 तेणे। ]3 8 भवति। 4 3 भन्नोज्न। 5 .3 » नये छू य। 06 #ै. णातियारे० | र्‌ सिद्धसेनसूरिकया [ गाथा "न > पट जज जज जज ली तल जजिज जज जज जज ५ ९ एवं वियाणिकण, जहा अपरिमूढो अप्पणों परस्स य अश्यार-बिसोहिं करेमि, तहा पसार्य करे लि । तओ गुरुणा बहु-स्सुय-चिर-पव्वइय-कण्पियाइणहिं गुणेहिं संज्ुत्त अप्पक्तापत्त-वत्त-तिरि णिय-चल-चित्तादि-दोस-विरहियं च नाऊण जी यव व हार सस एस जोगो'त्ति गुर भण्णए' 'खुण भव्व सत्ता ! असुह कम्म-मल-मइलियस्स परम-विसोहण जी य व व हा रे! * 5 यहु-विग्घाणि सेयाणि, इमं च सत्थ परम-सेय । तेण कय-मंगलोवयारेहिं सत्थमार सेयव्य « च आरभमाणों गुरू मंगलत्थं भणइ--'कयपवयण' इच्चाइ | पगय-वयण ति वा, पहाण-वर ति वा, पसत्थ-व्य्ण ति वा-पचयणं ! पव्ुश्चन्ति तेण जीवादयो पयत्था इति पवयर्ण | त वा अहिगरण-भूण। पचदतीति पवयण--चडउव्विहो संधो। पइद्ु-चयण ति वा--तदुवओग पण्णत्ताओ संघो त्ति ज॑ भणियं होइ। जेण त सुय, तम्मि पइट्टिय, अणण्ण--तदुबओगाओ 0 ते च सामाइयाइ-बिन्दुसार-पवञ्ञसाणं अंगाणगपविद्ठुं सब्य॑ सुय-नाण पवयण ति। पणम पणामो, पूया इति एगट्टियँ | कओ पवयण-प्पणामों जेण सोह कय-पवरयण-प्पप्राणो | चोच्छ भणामि। पार्व छिन्दन्तीति पायच्छित्त!। चित्त वा जीवों भण्णदइ। पाएण वा वि चित्त सोहद ६ यार-मलरू-मइलिय, तेण पायव्छित्त। पायए चकारस्स छकारो ऊक्खणिओ। तस्स पायच्छितत दाणं। तस्स संखेब॑ संगहं। जीय-बचहारकय | जीयस्सेत्ति वत्तणुतत्त-पवत्तो बहुसो आसेजि 35 महाजणेण' जीय-वव्हारो भण्णद। त्तेण जीय-ववहारेण ज कय, उबइई दिण्णं वा | जीय ववह गय वा, अणुपविट्ठ ति भणियं होइ । जीव पाण-धारणे । जम्हा जीविसु जीवन्ति जीविर्स्सा। तम्हा जीवेत्ति वत्तव्त॑ सिया। सव्व-कालमुबओग-लक्खणत्तणओ जीवो | तस्स जीवस्स वि सेण सोहणं। कि कओ विसेसो?। अच्े वि सस्यादीया पायच्छित्त देन्ति धूल-युद्धिणो जीव- यम्मि कत्थइ सामन्नेण, ण पुण संघट्टण-परितावणोहवण-भेएण सब्बेसिसेगिल्दियाईण त 20 पजवसाणाणएं दाड जाणन्ति । उवए्सो वा तेसि समए पएरिसो नत्थि। इह पुण सासणे स, मत्थि तक्ति काड विसेसेण सोहर्ण भण्णगर। जहा य पलास-खारोदगाइ घत्थ-मल्स्स सोह/ तहा कम्म-मछ-मइलि्यिस्स जीवस्स जीय-ववबहार-निहिई पायच्छित्त | परमं-पहाणये, पशि मिति वा । न अण्णत्थ एरिस ति ज़ भणियं होइ | एंत्थ सीसो भणइ--'अण्णे वि क्रिमत्थि चचहारा, जेण विसेसिजइ--जीयववहार-गय त्ति 25 विसेसण चर सद सभवे वमिचारे वा कज्जइ।' गुरू भणइ--आम, अण्णेव चत्तारि बवहा अत्थि, त-जहा [१] आगम-[ २ ] सुय-[ ३ ] आणा-[ ४ ] धारणा, पुव्वाणु-पुव्चीए जीयव' हारों एएसि पश्चमो।' सीसो भणइ--'आगम-ववहाराईण जीयववहार-पजञ्ञननससाणाण को ए विसेसो ? !' गुरू सणइ-- [ १] आगम-बवद्एरिणो छल्लणा; त-जहा-केवर-मण-ओरटिणाणी चोहस-दसत-नव-पुच्बी एर 30, * | सुय-वचहारों पुण अवसेस-पुव्वी एक्कारसंगिणो आकप्प वबहारा अवसेस-खुए अहिगय-सुत्तत्था खुय-वक्‍टारिणो त्ति । [३ ] आणा-बवहारो--गीयायरिया आसेविय-सत्थत्या खीणजघा-वन्दा दो वि ज्णा पशि देसन्तर-निवासिणो अन्नोन्न-सर्मावमसमत्था गन्तु जया, तया मइ घारणा कुसुरे अगीयर सीसं गूडत्थेहिं अइयार-पयासेवर्णेहिं पसेइ ्त। जहा-- 35. पढमस्स य कज्जस्स पढमेण पण्ण सेविय ज॑ तु/ | पढसे छक्के अच्भन्तरं तु पढम भवे ठाए पढमस्स थ कज्ञस्स पढमेण पएण सेवियं होज्ा । पढमे छक्के अष्भन्तर तु सेसेस वि पएस 3 2 भन्नएं। 2 33 सउज्ञकपुस्तकेत्र समझ्रा गाया लिखिताइम्ति । एवमगश्रेषपि समप्न ग्रन्थे शैसः 3 2५ एगट्ठ । 4 छ3िपवच्छि० ! 5 ४ पाइए। 6 / सर्वत्र जीत” इल्चेव उपलयते। 7 3म णेण । 8 < पेणसित्ति। 9 9 होजा । गंक्था ९. ] जीयकप्प-चुण्णी डरे पढमस्स य कज्स्स पढमेण पएण सेविय होज्ञा । बिदए छके अब्भन्तरं तु पढर्म भत्रे ठाण ॥ पढमस्स य कज़स्स पढमेण पणण सेवियं होजा । बिदए छके अब्भन्तरं तु सेसेसु वि पएस॒ ॥ इठमस्स य कज्स्स पढमेण पएण लेवियं होज्ा। तइए छक्के अब्भन्तरं तु पढमें भरे ठाणे ॥ णदमसुस य कजारुस पढमेण पएण सेविय होज्ञा | तदइएण छके अव्मन्तर तु सेसेसु वि पणसु ॥ <वं पदमममुश्चन्तेण विश्य-तरयमाइ जा दसम॑ । पुढदविक्काइयाईसु पुणो वि उदच्चारणियाई ॥ 5 विश्यस्स य कज्स्स पढमेण पएण सेविय होज्जा । पढमे छक्के अच्भन्तर तु पढम॑ भवे ठाणं॥ पं विदयस्स थि। एयाए चेव परिवाडीए सब्वाओ गाहाओ भाणियव्वाओ । *घढ़म ठाण दप्पो दप्पो जचिय तस्स वी भवे पढमे। पढमे छक व्वयाई पाणोइवाओ तहिं पढमे | (६ तु मुसावाओ अदत्त-मेहुण-परिग्गहो चेच। विई-छक्के पुढवाई तइ-छके होन्ति कप्पाई ॥ दरप-पयम्मी दप्पेण चारियाई अट्टरस | एवमकप्पाईसु वि एकेके होन्ति अद्वरस ॥ 0 वैद्य क ज्न कप्पो पढमपयय तत्थ दसणणिमित्त। पढमे छक्किवयाई तत्थ उ पढम तु पाणवहो ॥ दसणममुयन्तेण' पुन्वकमेणेव चारणिज्ञाणि । अट्टारस ठाणाई एवं नाणाइ एकके ॥ |घठवीसटद्दारसया एवं एए भवति” कप्पम्मि। दस होन्‍्ती दष्पम्भी सब्वसमासे य मुण संखे॥ (हे पडिसेचणा--दप्पिया, कप्पिया य। दष्पिया दसवबिहा | तं-जह-- दृष्प अकप्प निरालम्ब चियत्ते अप्पसत्थ वीसन्धे । ]5 ।, अपरिच्छिय -5कडजोगी' निरणुतावीय णिस्संको ॥ ४ तत्थ दृष्पो-धावणडेवणाई। अकप्पो जं अविहीए' सेबइ। निरालम्बो--आलम्बण- व सेवद | चियत्ते त्ति/--संजमाहिकारियाणि छड़ेऊण सेवइ, स त्यक्तकृत्य.। अप्पसत्थेत्ति''- नजज> > >> ज+ अल्‍जजज अजीज डजज अडिजजी तल जै-ज४७४+४०-ैफघ४॑०२००जज ० (दस्तेन भावेन सेवद । वीसत्थो--इहलोग-परलोगस्स न भायद । अपरिच्छियत्ति--कज्ञा- ॥ई अपरिक्ग्विद सेवइ | अकडजोगी--जोगं अकाऊण'“ सेचइ | निरणुतावी--जो अकिज्ञ 20 [ नाणुतप्पइ, जहा मए दुद्दु कयं। णिस्संको--जो निस्संकितो सेचइ | एसा# दण्पिया ॥ पया चउवीसविहा, ते-जहा-- दंसणनाणचरित्त तवसंजमसमिइश्गुत्तिहेउ वा। साहम्मियवच्छलत्तणेण कुलओ गणस्खेव ॥ संघस्सायरियरुस य असहुस्स गिलाणबालवबुड्डस्स। उदयग्गिचोरसावयभय' कन्तारावई ” बसणे ॥ 25 एहि कारणेहि जो पडिसेवेदइ सा कप्पिया पडिसेवणा। कि पुण पडिसेवियव्ये? /! 'इमाई प् पयाई ।' ते-जहा-- । चयछक्क-कायछके अक्ृप्पो गिहिभायण । पलियंकनिसेज्ञा य॑ सिणाणं सोमवबजञण ॥ व्वसमासे य सुण सु संख १८० दृण्पिया, कप्पिया ४३२ ॥ गरीऊण तस्स पड़िसेवण तु आलोयण कम्म ' विहिं च। आगमपुरिसज्ञायं परियायबर्ल च खेत्त च॥ 30 चधारेउ सीस्गो गतूण य सो तओ गुरुसगासे । तेसि निवेणइ तहा जहाणुपुब्बी तय सब्ब ॥ ॥ बबहारविहिन्न अणुमज़्नित्ता” सुओवएसेणं | सीसस्ल ठेइ आणं तस्स इम दे£ पच्छित्त ॥ ढमसख य कजस्स ' दसविहमालोयण निसामेत्ता। नक्ष्खक्त भे पीला सुके मासें तये कुणह॥ ढमरुस य कज्लस्स दसविहमालोयण निसामेत्ता। नक्खत्ते मे पीला चाउम्मासे ” तव॑ कुणह॥ ] 8 पढम। 2 उे निमित्ते। 3 33 पढमेक। 4 ० वमसुय०। 5 ४ एकेके। 6 व०। 7 33 व्पडिच्छि०त। 8 2 अकड०। 9 73 विहदीए५ 0 / चिकत्तयत्त-) ॥] सत्योत्ति। 2 3 ०ऊकण। 8 ». नीसको । 4 / एस | 5 ४ रुय। 0 ३73 ०राडवीब० । 7 # व्जाविय। 8 3 सुणसु | 49 ै. “यणरूम्म । 20 2 न्याग ब० | 2] 33 >मज़िय त॑। 8 # ०भोसेण। 23 & कघ॒स्सा। 24 ४ ०ह आ०। 235 8. मास। 26 2. मा । ८ सिद्धसेनसूरिकया [ गाथा १. वि सा जय आी आस पी आस सी आज अप आर अभय ओम भय पढमस्स य कजरस द्सबिहमालोयणं निसामेत्ता। नक्खत्ते से पीछा छम्मासतवं कुणह सुके ॥ पवे ता उम्घाए! अणुघाए ताणि चेव कण्हम्मि। मास चउमास छ मासियाणि च्छेदं! आओ बोच्छ ॥ छिन्दन्तु तयं भाण गउछन्‍्तु तवस्स साइणो म्ं। अव्वावडावगच्छे अधीश्या' वाषि विहरन्तु ॥ छब्मागंगुल पणए' द्सभाए' ति भाग अद्वपन्नरसे। वीसाए तिभागूर्ण छब्भागृर्ण तु पणघीसे ॥ 5 मास चउमास छक्के अगुल चउरो तहेव छक तु | एए छेयविभागा णायव्वाउदक्कमेण तु ॥ विश्यस्स य कझ्जास्स तहिय॑ं चउवीसय॑ निसामेत्ता । आउत्त नमोक्षारा हवतु एव भणिज्ञाहि ॥ एवं नाऊण तहिं जहोवएसेण देइ पच्छित्त । आणाए एस भणिओ' वषहारो धीरपुरिसेहिं ॥ एवं सो आयरिओ दब्वखेत्तकालभावसंघयणधिइ “वलाइय चर परिपुच्छिकण सं गम, सीस॑ घा5गीयत्थ पेलेइ, अविज्ञमाणे वा तस्सेव पेसवितस्स निमूढमेव अतिचारविसोहिं पेसेइ । 0 [४] धारणाववहारो--संविग्गेण गीयन्थेणायरिएण दब्वस्नेत्तकालभावपुरिस' पडिसेव- णासु' अवलोएऊण जम्मि ज॑ अवराहे दिल्न पच्छित्त त पासिऊण अन्नो वितेसु चेव अप हे सु तारिसावराहे त चेव पच्छित्त देइ, एस धारणाववहारों। अहवा वेयावश्चगरस्स गच्छोव॑रग हकारिणो फड्डगपदणो वा संविग्गस्स देसद्रिसणसहायसरुस वा बहुसो पड़ितप्पियरस अवरोस- सुयाणुओगरुस 'उचियपायच्छित्तट्राणएाणधारण धारणाववहारो भन्नइ । 35 . [५] पंचमो जीयववहारो-सो पुण दव्वखेत्तकालभावपुरिसपडिसेव्णाणुरवात्ति सौर संघयणधीबलपरिहाणि वावेक्खिऊण तहा'' पायच्छित्तदाणं जीय , जो वा जम्मि गच्छे के... इ कारणेण खझुयाइरित्तो पायच्छित्त-विसेसो पवत्तिओ अन्नेहि य वहूहिं अणुचक्तिओ व्यि पडिसिद्धो | भणियं च-- ४! वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो आसेबिओो महाणेण | एसो उ जीयकप्पो पंचम भो होइ वचहाय, ॥ 20... जीये ति वा करणिज्ञ ति वा आयरणिज्ञ लि वा एगड्ठं । जीवेइ” वा तिविददे वि कि तेण जीय'। सुत्ताओ पुण हीं सम अदइरित्त वा जीयदाणमिति” | पंचखु वि पुण बवहाए विजमाणेस आगमेण घवहारं ववहरेज्ञा, न सेसेहि। एव सुणण, आणाए, घारणाप, जाव जीर '- चहारेण । पुब्चिल्लेहिं ववहार ववहरेज्ञा न सेसेहि'' ति । कि कारण ? आगमवबहारी संकिलिस्समाण विसुज्ञमाण अवद्लियपरिणार्म वा पद्चक्खमुव॒लूभन्ति, तावइय च से दिन्ति* 25 ज्ञावइएण विसुज्ञइ, सुत्तमणियाओ अहिये ऊण तम्मत्तं वा न सुयमणुचन्तण। जे पुण ते सुयमणुवत्तमाणा इंगिआगार-वत्त-णेत्त-वयण-विगाराइपहि ' भावमुवकक्खिऊण तिक्खुरतो अदयार आलोयाबवेऊण, तं-जहा--खुओवएसेण पलिउश्वियमपलिउख्िय वा आलोयणाकाले ने जहा आलोपजा त तहा सुओवफ्सेण ववहरन्तीनि। एस” खुयववहारों (” सुयाभावे आणाएं ६. हारं बबहरेज़ा। आणावबहारो वि सुयववहाराणुसरिसो केवल “निगूढाइयारविसेसेण” वि .- 80 सिओ | घारणाववहारो वि सुयववहाराणु सरिसो. केवन्ड सुओवए्सेण " उचियपयाण बेयाब६ - कराईणमणुग्गहत्थो बिसेसिओ। सुयववहारेगदेसो ' धारणाववहारो त्ति। 5 233/340/0% - बवहारो । सव्वत्थ य जीयववहारो5णुबत्तण । दव्वखेत्तकालभावपुरिसपडिसेवणाधिइसंघयण|- 3 5 ताबुस्‍्घा०न। 2 3 छेय। 3 33 «बता । 4 33 व्यंगु०। 5 3) ०्णगे। 6 / >राते |, # 2 पणुवी० । 8 3 "णेजा । 09 *णितो। 0 | ्यणइ० । ]] 2 ०रिस। ]2 /॥७०' । । ]8 33 >“करस्स। 4 2 उचित। 9 ०३ तद्दा तहा। 6 33 पच्छिन०। 7 & जीत | 3 'यनास्ति। 90 3 जीवति। 20 / जीत। 27 #. जीत०। 22 33 सेसएहिं। 29 ॥8 देह । 24 3 विक्रॉ०। ४5 3 लकखे०। ०6 ै सुत्त)। 27 / सुत्ता०न। 28 ह >ढा्ि- मा०। 29 & विसेसण। 230 & >सितो । 3] # “णुचिय । 32 & ०कराणुगदत्थ । 9 3 ०गएसो। गाधा २-३. ] जीयकप्प-चुण्णी थ् घत्तिरुवं' परुवेजण पंचविहववहार्मज्ञे जीयचवहारेण पगये । जेण सो सावेक्खो चिरे चाणुवत्तिस्सतीति” । २. 'संवरविणिज्लराओ' इशाइ। एट्रेंसे गाहाए सम्बन्धो। सीसो मणइ--“सम्मदंसण- नाणचरणसंवरबविणिज्ञ रतवपयत्था पहाणा, ते सब्बे वि मोत्तुं तवेगदेर्स पायच्छित्त घक्खा- णेउमुज़्या' किमत्थ तुब्मे त्ति!! । आयरिओ' सणइ--'पारंपरिएण चरणपयत्थरुस विसो- 5 हिकारणं पायच्छित्त । चरणबिसुद्धीप य कसिणकम्मपडलुब्बेल्लणाणन्तरं अव्वाबाहेकंति- यब्य॑ ट्प्रि-परमसमसुहरूकखणो मोकखो संपाविज्ञद त्तिकाउं पायच्छित्तमेव भण्णइ ।' संबरण कि पिहार्ण ति एगद्दा। विसेसेण निञ्लरण विणिज्लरण।बिणिज्ञरा सोहणमिति एगट्ठु। संघर/ नवरुस कम्मस्स अणायाणं । णिज्ञराए पुव्योबचियखुहासुहकम्मपोग्गलपरिसाडो । अहर्ती! बिसेसियं भण्णइ-मिच्छादंसणाविरदइकसायपमायजोगनिरोहो संचरो । कह ? ।0 मिच 83%“ करी सम्मत्तपडिवत्तीए मिच्छत्तनिमित्तासवनिमित्तकस्मणो" संचरणं करयय भचह | एच िरंध्पडिचिताप अविरइपश्चय कम्म पच्चक््खायं भवरइ । तहा कसायविवज्ञणेण तन्निमित्तय्य कम्म वजिय॑ होइ। तहा इन्दिय-विग हा -निद्दा-मज्ञ-परमायासव-निरोहदारेण तप्पच्चयरुस कम्मणो निरो हो कओ भवइ। धावण-वग्गण-डेवण-लघण-फोडणाइ-अखुह-चेट्गा-निवित्तीण. कायजोगास- चल: एपवेसस्स कम्मुणो निरोहो मवइ। तहा हिंस-फरुसा-लिय-पिसुण के ५ -डेभ-सढ छलाइ - ]5 'निरोहेण तप्पच्चय कम्म पच्चकखाय होइ। तहा इसा-५मरिस-भय-सोग-मिच्छामिसंघाण *- राग दोसाकुसल'“संकप्पाइनिरोहेण तजतिमित्त कर्म्म बजियं होइ। निह्ञरा पुण गुत्ति-समिद सम- णछ “म-भावणा-मूलगुण- उत्तरगुण-परी सद्दोवसग्गाहियासणरयस्स भवद। गुत्ती तिविहा मणाइ। स४(६ पचविहा इरियाइ''। समणश्रम्मो दसविहों खमाइ। भावणा दुवालसबिहा अणिद्याइ | मं पचविदा पाणाइवायाइ निवित्ती । उत्तरगुणा पिडविसुद्धिमाइया'' । परीसहा बावीसं 20 “इया | उबसग्गा सोलस | हासा पदोसा वीम॑सा पुढोवेमाया दिव्वा एए | हासा पदोसा कुसीलपडिसेवणा एए'' माणुसा | भया पदोसा आहारहेऊ'" अवच्चलेण सारक्खणया तेरिच्छा । घट्णया थंभणया लेसणया पवद्धणया एुए आयसंचेयणिया। सो य सवरो दुशविहो-देसे सब्बे य। निज्ञरा वि दुविद्ा देसे सब्बे य | जोगनिरोहकाले सेलेसि पडिवन्नस्स मसमए सब्वसंवरों सब्वनिज्ञरा य। सेसकाले देससंवरो देसनिज्ञरा य | एवं 55 , घरविणिज्ञराओ' उभयमवि 'मोकखस्स पहो' मग्गो देऊमोक्खकारणं मोकक्‍्खमग्गो' ज्ति। प्' पुण संवग्विणिज्लराण 'तवो पहो' हेऊ कारण ति। तरस य “तवस्स पहाणमंगं त', जेण पच्छित्त दुवालसबविहों बि तबो अणुवत्तइ | तवस्सख कारणं पहाण” पच्छित्त । कारण संवरविणिज्लराण । संचरविणिज्ञरओ मोक्खस्स कारणमित्ति । जं च नाणस्से क्ति हे सह संबज्ञप्‌ । 30 ३. 'सारो चरणमिजाइई' गाहा। सामाइयाइयरूस बिन्दुसाग्पज्नवसाणस्स नाणस्स सारो !। चरणस्स पुण णिव्वाणं सारो। निव्वाणस्ल अणतरकारणं चरण, कारणकारणं नाणं | शणस्स कारण नाणमणतर | नाणाओ चरण, चरणाओ निव्याणं ति | नाणविखुद्धीप चरण- ] » पडिसेवणावत्ति। 2 /४ वबाणु० । 3 6. वकत्तइस्वत्ति। 4 33 व्ज्ज्या । 5 * «रितो। 6॥.3 पिहण । 7 औै >दाणं। 8 33 कम्ममलपरिसाडो । 0 >कसणों। 0 3 हवइ। _] विफहा। 2 23 छछादि। 3 73 सेवारण । 4 छि०कुल। 3 ै/ इयराइ। _6 9 त्ीओ। ॥१7 73 पिड्सद्धिमादीया । 3 33 छुद्दाताता। 9 & एते। 20 + हेडं। 2] 8 ता । 22 ४ नाख्ति। 23 ०उ्झइ। हू सिद्धसेनसूरिकया [ गाथा ४-५. बिछुद्धी, चरणविछुद्धीए निव्वाणफलावत्ती भवइ' । चरणविसुद्धी पुण पच्छित्ताहीणां। आओ निःष्चवाणचरण5त्थिणा पच्छित्त 'नेयं' जाणियव्ब॑ अवस्सं' भवई । ४. 'त॑ दस-विहमिच्चाइ । तमिति अणन्तरगाहानिदिईं पच्छित्त सब्वनामसद्देण सम्ब- ज्ञद। 'त॑' पच्छित्त 'दसविहं' दसभेयं दसविकप्प | त-जहा--आलोयणारिहं, पडिक्रमणारिहं, 5 तदुभय-विवेगोसग्गारिहं, तवारिहं, छेयारिहं, सूलारिहं, अणवट्ग॒प्पारिहं, पारंचियारिह चेति। तत्थ य आलोयणारिहं--आ मज्ञायाए वद्दर | का सा मज्ञाया ? जह वालो जंपतो कज्ञमकर्ज़ च उज्जुओ भणइ। त तह आलोपजा माया-मय-विप्पमुक्को उ ॥ पएसा मजाया। आलोयण्ण पगासीकरणं समुदायत्थो | गुरुपक्चक्खीकरण मज्जायाण। ज॑ पावे आलोइयमेन्तेण चेव सुज्ञर, एय आलोयणारिहं | १। पडिक्रमणारिह--ज मिच्छाडुक्कश्फ्रेत्तेण 0 चेव सुज्यर न आलोइज़द, जहा सहसा अणुवउत्तेणं खेलसिघाणाइय परिट्ठवियां| नय हिंसाइय दोसमावन्नो तत्थ मिच्छादुकड भणइ. एयं पडिक्रमणारिहं ।२। तदुभयारिटट-ज पडिसेविय गुरुणो आलोइजाइ, गुरुसंदिट्वो य पडिकमइ त्ति पच्छा मिच्छा' दुक्कड॑ ति भणइ, एये तदुभयारिह । ३। विवेगारिहं--विगिचमाणो विहीए तमइयार सोहेइ जत्थ, एयं विवेगारिर। ४। विउसग्गारिहं--जं कायचेट्रानिरोहोव ओगसेत्तेण चेव स॒ुज्सइ, जहा दुस्सुमणाइयं, एय विउस- 75 ग्गारिहं । ५। तवारिहं--जम्मि पडिसेबिए निव्वीयाइओ छम्मासपत्नवसाणो तवबो दिल्ञाइ, एये तवारिहं। ६। छेयारिहं - जम्मि य' पडिसेविए संदुसियपुव्वपरियायदे सावछेयर्ण ' की रइ, नापावि- हथाहिसं दूसियगोबंगछेयणमिव सेससरी रावयवपरिपालणस्थे, तहे हा वि सेसपरियायर का ्थे, एय छेयारिहं । ७। सूलारिहं--जेण पडिसेविएण पुणो महव्बयारोवण निरवसेस परियायावणभ णा- णन्तरं कीरइ, एय॑ मूल्शारिहे | ८। अणवट्डप्पारिहं-जम्मि पंडिलेविए उचदट्ठावणा अजोगो, ' 4 20 काले न वएखु ठाविज़्द जाव पदविसिद्वतवों न चिण्णो, पच्छा य चिण्णतवों तदोसोवबुओं बसु ठाविज्ञई, एय अणवद्गप्पारिह | ९ | पारचियारिहं--अश्चु गई-पूयणे खु, पारं अश्थद तवोाएईँए जम्मि पडिसेविर लिगखेत्तकालविसिद्वाण, ते पारचियारिह | १०। एस संखेवओ पिए 2 द्सण्ह वि पयाण भणिओ। सद्ठाणे सट्ठाणे विन्‍्थरेण वि भासियच्चों। एएहिं चेव पएहिं विचरि एहिं जीयववहारो समप्पद। संपय जहक्कम-निदविट्वाणं ठसण्ह वि पयाणं विवरण" भण्णद - पे 95 ५. तत्थ पढम पर्य 'आलोयण त्ति। तस्स'' सरुव' निरुवणत्थं गाहा करणिज्ञा जे इच्चाइ । 'करणिज़ा' नाम अवस्स-कायब्वा ।'जे' इति अणिदिद्णिहिसो । 'जोगा' / किरियाओ खुओवइट्टाओ संजमहेउगाओ कम्मनिज्ञरणत्थ । 'तिख'' अणन्तरनिदिद्वेग्यु (<म्विड प्तस्स' पवत्तस्स | अहवा जोगा इति मण वइ-कायजोगा एणट्ितो किरिया अणण्णा' भचती ति तस्सहचरियत्ताओ' । 80 जोगो विरिये थामो उच्छाह परक्कमों तहा चेट्टा। सत्ती सामन्‍्थ ति' य ज्ञोगस्स हवन्ति 7॥ कायजोगो कहं कायब्वो ”। कुम्मो इव 'अल्लीणपल्लीणग़ुत्त * सुप्पणिहियपाणिपाए । ) उद्धट्ट पाय रीएजा, तिरिच्छ वा कट्ठु पाय रीएज्ञा, साहट्ट पाय रीणज्ञा । एवं कायजोगो करणिज्ञो | वइजोगो वि एवं कररणिजो-- हु जा य5्सच्चा ण वत्तव्या सच्चामोसा य ज्ञा मुसा | जा य बुद्धेहिं नाइण्णा न त॑ सासेझ पन्ने ॥ ८७] | 3 हृवति। 2 3 नास्ति। 83 हि होई। 4 ह मिच्छामिदु०। 5 9 व्तिमणा० । 6 नास्ति। 7 3 छेदर्ण । 8 3 सेनासि। 9 9 प्यणास । 0 3 विवर। 7] /& तत 42 28 सरूवं। 3 2 अणता। 4 2५ भवम्ती। ॥5 ै;3 बरित्ताओ। 6 [3 चि। 280छएवली०। 8 8 गतो । 9 #& वितिरि०) 20 & नास्ति! 2] 3» णीयो। व्यू _-. गाथा ६-७, ] जीयकप्प-चुण्णी ७ जा अर कस आफ छीन अब आज की अचार जले पक क पाए दमन] मणज़ोगो बि एवं करणिज्ञो--अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणा य। निरइयारस्लेच संखेवेण मुहपोंक्तियाइ-पडिलेहणपमज्ञणाई' जा जा संजमसामायारीगया किरिया सा सब्वा करणिज्ञजोगसद॒वच्चा होइ । अहोरत्तन्भन्तराणुद्रेया। “निरहयारस्स' अद्धद्ठभावस्स ।'छठम- स्थस्से'क्ति परोक्खनाणिणो । खुओवएसाणुसारेण सेसक्िरियाकलावाणुट्राणपरायणस्स । “बिलोही' कम्मबन्धनिवित्ती निसछया वा। 'जदइ॒णो! जयमाणरुस अप्पमत्तस्स । 'आलोयणा ० भणिया' जिणिन्द्गणहरेहिं' । सीसो भणइ-“निरदइयारो नियमा जई' चेव होइ तो किमत्थे जदृग्गहण ? ।! भण्णइ--'हेउ-हेउम्रब्भावेण वक्‍खाणं कायव्व । निरइ्यारलक्खणाओ चेव देउओ सो जयमाणो जइ त्ति लब्भद, त्तेण दोण्द्रवि गहण | अह वा जइ त्ति सामप्नाभिदण । त॑ निरबयारत्तणेण विसेसिज्लद निरश्यारों जइ क्ति। पुणो वि सीसो-ति! य जया" उबउत्तो निरम्यारों य॑ करेइ। करणिज्ञा य ते। तो तत्थ का विसोही' आलोडए अणालोइए वा? ?! गुरू 0 भणइ-“तत्थ जा चेद्रानिमित्ता खुहदुमा आसवकिरिया, सुहमप्मायनिमित्ता' वा अणुषलक्खिया ताओ'' झखुज्ञन्ति आलोयणा सेक्तेण' | सो पुण गुरु-संदिद्वो असंदिद्वो वा पुष्ब वा आलोणजा. कज्ञसमत्तीए वा आलोएजा । अहवा पुव्वि पि पच्छा वि आलोएज्जा । ८“. ६. 'आहाराइ गहणे'चाइ | अणन्तरगाहाए करणिज्ञजोगनिदसमेत्त भणिय, संपय पुण नामगाह करणिज्ञा जोगा मण्णति'' | के ते करणिज्ञा” जोगा?। इमे--आहारो आईए जेसि 5 गहणाएं ताणि 'आहाराइ गहणाणि' । एगवयणेण' णिददसो' कओ। आइ्ग्गहणेण सेजासंथारवत्थ- पायपुछछणपडिस्गहगाद' ओहिय-ओवम्गहिओ य सेसो उबही लेप्पद। 'तह बहियाणिग्गसेख णेगेल' गिलाणआयरियवालदुब्बलसेहखबग““अस टुपाओग्गो “सहगहणनिसित्त णिग्गमणे। गहण |. सुओव्सेण उबउत्तो, विहीए गिण्हिऊण; तओ जद्दाविही लोपन्तों खुद्धो । सीसो भणइ-'जइ गहणे अविमुद्धी, सुद्धी य आलोइए, एवं गहणमेव 20 उ!। गुरू भणइ-'जइ गहणं न करेद तओ आयरिओवज्ञायाइ-कुलगणसंघसाहम्मि- नाणचरित्ततवसंजमाईण ववच्छेओ--भगों हवइ | तेणावस्सं गहण विहीए कायब्बं। एये सब्ब आहागइ-गहणेण गहिये | दइमो पुणों वहियाणिग्गमो5णेगो भण्णदइ । शओ सेज्ञाओ वा कुलगणसंघचेइयदु॒विहमेय 'तदृव्वविणासनिवारणाई “| अहवा पीढ “ पेज्ञासथारपाडिहारियगहियप्पणन्थ, वा निग्गम करेज्ञा । अहवा एयाई निग्गमका”- 25 । 'डल्चारविद्ारावणि' त्ति उद्यारमृमि-विटारमभूमीओ सण्णा-सज्झायसबन्नियाओ” । बंदणणिमित्त आसक्ष दूर वा गच्छेज्ञा | साहण पुण अपुव्ववहुस्खुय “संविग्गाणं वन्दण वोच्छेयन्थ वा गच्छेजा। आइसदण सड्ाासज्नायगओसन्नविहारीणं वा सद्धावद्धाव- साहसम्मियाण वा रंजमउच्छाहणिमसित्त ग्॒छेजा । । ७. ज॑ चन्न॑ करणिज्ञ मिच्चाद। ज चन्न' ति पुष्वगाहाभणियाभो बदरित्त ति. ते सब्ब च 30 सहेण समुचिजइ | त॑ च खेत्तपडिलेटणथंडिल्सेहनिक्वमणायरियसंलेहणाई * हत्थसया ओ परेणे ज॑ जे आयरिय, तमायरित्ता समिइग॒त्तिविसुद्धि निम्तित्त अबवस्स आलोएयदर्च ।ज पुण , ] 3 “जणदिइ। ५ निवत्ती । ४ 2 नास्ति। 4 _ जह। 5 ०2 व“्ययारत्तणाओं। 6 |. जहा । 7 2 व। 8 ]3 का अविरोही । 9 .$ नास्ति। 0 33 णिमि०+ ॥) 3 तातो। १32| छूब। 3 &ै ग्णेज । 3 ४ भनज्नन्ति। ]5 .$ ब्जजो० । 0 ४ न्यणे णि० । 37 4 शशिहोसो । 8 3 ०र्गहादि। 9 ३3 >्हियअवडम्गहिं०। 20 ही नाखि। 2] »ै सेत्ता। 22! कि खमग। 23 /& थ्वाओगो । 24 4 भेद । 25 3) ०्णादी। 20 - पीढग। 27 2. «कि प्रण०। 28 8 न्मणक्ा०। 29 ४ सज्ञास०। 30 / >्सुय। ४7 क# वतिरिचएं। 32 स्‍3िय्ोदी । 83 2. «लिमुद्धि० । € सिडसेनसूरिकया [ गाथा ८-९. हत्यसयब्भस्तरायरिय तत्थ किश्वि आलोइजइ, किश्वि नालोइजइ। जहा पासवणणेलासिधाण- जहल 'निविसणुट्राणवियम्भणाकुआण पसारणोसासणीसासचेट्टाइ किश्ि कर्ज नालोइजइ। पालवर्ण पुण पुव्वमापुच्छिकण वोसिरइ। “अवियडियम्मि! अणालोइयम्मि, असुझों साइयारो, आलोएनल्तो पुण त॑ कज्ले' आयरियस्स खुद्धो निरइयारों कि भणियं होइ। 5. ८, कारणविणिग्गय'मिच्चाइ। 'कारणबविणिग्गयस्स' त्ति। दुबिहो निग्गमो गउछाओ“--कार- णेण, अकारणेण य' । असिवओमरायदुद्गगिलाणुत्तिमट्टायरियपेसणाइ कारणिओ । चक्क-धूभ- पडिमा-महिमा-जस्म-निक्खमण-नाण-निव्वाण-सू मि-सप्नायग-वइग-संखडिपेहाइ निकाराणिओ । कारणविणिग्गयस्स। “'च' सद्दो आलोयणाइपय' समुश्िणद। निरश्यारस्स गुक्तिसमिइविसु- झसस कारणेण विणिग्गययस्स आलोयणमेत्ताओ चेव सुद्धी होइ | सा य आलोयणा--भोहओं 70 बिभागओ य। ओहालोयणा अद्धमासब्सन्तरागयस्स हवइ | त चागयमेत्तो चेब इरियावहिया- पडिक्वन्तो 'समुद्देसवेलाएण आलोएड । आलोइयमेत्त चेव सुज्ञद निरइयारो। सा य ओहालीयणा इसा-- आप्पा मूलगुणेसं विराहणा अप्प' उत्तरगुणेसु " । अप्पा पासत्थाइसु दाणग्गहसंपओगेोहा॥ पर्व विहालोयणेण खुडो होइ। अन्नम्मि वेलाप विभागेण अद्धमासपरेणागयरुस । विभागा- 5 छोयणा निरदयारस्स वि। एवं 'सगणाओ' कारणनिग्गयरस आलोइए सुद्धी: 'परगणागयसरुस वि य'त्ति। सगणो एगर्सभोरया, परगणो अन्नसंभोइया । ते संबिग्गा' वा असंबिग्गा वा। संविग्गाओ आगयस्स निरइयारस्स वि अवस्समेव विभागालोयणा। आलोयणाए'' य खुड्धो । 'उचवसंपय' क्ति। सा य उवर्सपया पंचविहा । ते-जहा-खुओवसंपया, सुटदुक्खोवर्सपया, खेत्तोवर्संपया, मग्गोवसंपया, विणओवसंपया य त्ति। पंचबिहाए वि तप्पडमयाए उवसंपजञमीणेण 20 निरइ्यारेणावि आलोयणा विभागेण दायब्वा । सो य आलोयणाए चेव खुद्ो । 'विहारेइत्ति एगर्सभोइया' फड्गपई ” गीयत्थायरिया एगाह-पणग-पक्ख-चउम्मास -संवच्छरिएस जत्थुवा मिलन्ति तत्थ निरइयारा वि विहारालोयणं देन्ति । अन्नो त्स्स विहारे वि आलोयणाए | ह।! सब्व॒त्थ “निरश्यारस्से'त्ति एय पर सम्बज्ञर | एवकमेय आलोयणारिह भणिय ॥ 5 ९. इयाणि पडिक्कमणारिह भण्णइ । जेलु ठाणेखु खलियम्सल मिच्छादुक्डागोवणा २ 25 तट्टाणसरूव“'निरुवणत्थ'' गाहा भण्णइ । 'गुत्तिसमिदपमाय' इच्चाइ | गुत्ति त्ति तिन्नि गु मण-वबइ-काय सन्नाओ | समिई ओ इरिया भासा-एसणा-आयाणनिक्खेवण “-उच्चारपासवणा३ इंवण-नामाओ पंच। एएस अट्डसु ठाणेसु पमाओ कओ होज़ा”। मणेण दुशिन्तियाई/। चईए दुष्भासियाईं, काएण दुच्चेद्वियाइ | इरियाए कहंकहेन्तो' गच्छेजा, भासापए ढड्ट भासाई, एसणाए भिक्‍्खा'-गहणकाले अणुवउत्तो,/ न पर्मजर आयाण-निक्खेत्रेसु, अप्प 30 लेहिय-थंडिले उच्चाराइ परिट्रवेज्ञा' | 'मुरुणो' आसायण' त्ति । गिणाति” सत्थसिति गुर तस्स आसायणा कया । का * अहिक्खेवा'' परिभवों वा जद्चाइगुणहीणसुस। आये नाणाइति तस्लथ साडणा अवणयण्ं विणासो आसायणा भण्णद। आपयरियाहिक्खेव-दारेणाहित ।जाच हन्वि- ] 82 निवस० । 2 33 ग्गुबण। 328 कय। 4 /& गच्छायो। 533 नास्ति। 64 ब्न्तो म्मणणिक्ख० । 7 व्यगापय। 8 «क्षतों जइसमु०। 9 2 अप्पा । 0 3 “णेसु । ] (रिए “्वेग्गा अ०। 72 3 आलोएश य। ॥3 ॥3 नाम्ति। 4 33 उबस० । 5 23 “इगा। 6 अं व्पईं थे, 3 न्वती। 47 2 न्‍्मास । 8 !3 विमु०4 9 33 “मेत । 20 / «स्सछ० | ४४ 2 ग्णत्या। 22 / निक्खमण | 23 3 होईं। 24 / व्याए । 25 33 कहतो। 26 ईछत्ते। वक्खग०। 27 2 उबउत्तो। 28 2 रिद्रा०। 29 ]3 “इआसा० । 30 3 णाइ स०। 8] ॥| 8 क्षवि० । 82 2 आओ। ! गाधा १०-१२. ] जीयकप्प-चुण्णी 8 >>>>>>->>-००-०>ा>>ज जन +००४->>ज + “हल ज जी अजडजनज अजनतडजलजल2ड+ “+-++ ७७० “५५०५-४०-००-५०८००००८७-०-५०-००००००* 2६८७६:५८८ कर घनन्‍तो आये अप्पणों साडेइ! तुसिणीय-हुकार-जाइ-क-म्माइहिं। अहया तिथिहा आसायणाॉ-- मणेण पओसाइ, वायाए अन्तरभाखाइ, फाएण जमलिय“पुरोगमण-संघट्टणाइ । 'विणय- भंगे' त्ति । विणओ अब्भुट्टाणासणदाणअलिपग्गहवन्दणाईओ । तस्स या भंगे। इच्छाईणम- फरणे' त्ति। इच्छा मिच्छा तहक्कारो आवस्सिया य निसीहिया आपुच्छणा य पडिपुच्छा छन्दणा य निमन्तणा उवसंपयाओ' य गिज्ञन्ति । एयासिमकरणे। लह्ुसग वा मुसावायय वए्जा। जहा-- ० पयला ओट्ठि मरुए पश्चकखाणे य गमणपरियाए। समुदेससंखडीओ खुट्टग परिहारिय मुहीओ ॥ अवसग्प्णे दिसलासु एगकुले चेव एक्क-दछघे वा । एए से वि पया लइसमुसामासणे होन्ति ॥ लद्डसा5दिण्ण पुण खुदम जत्थ जत्थ पणगावित्ती' | तं-जहा-तण-डगल -छार-महग-लेव- इत्तिरि-उ5ग्गहण -चिट्ठुणा सु लेव-इत्तिरि उग्गहणट्वाणिसु सुत्ताएसेण मासलहु। तहाबि इह लहुस- गादिण्ण चेव भण्णइ | लद्डसमुच्छा पुण इसीसि' ममत्त जत्थ खु्ठम, जहा--कागाइ-साण-गोण 0 कप्पटुग“-सारकखण-ममत्ताईसु दधे लहुसमुच्छा। खेत्ते ओवास ' “संधार-कुल-चसहि-गाम-नग- रख्जाई कु । काले पुण मासकप्पोचरि निचासाइ । भाषेण" राग-दोसाइ | एत्थ जे मासलबु- यद्वाणा ते सच्चे घेष्पन्ति' । (०. अविहीइ-कास जंभिय' इच्चाइ। अधिहीए हत्थमदाऊण कासइ मुहपोत्तिय था। एप जभारइ्न-छीईएस वि। चाय त्ति पय॑ कम्म-सहण सम्बज्शइ | त॑ दुविहं-3 ३ उड्डोयाई,” अद्दो 5 कम । उड्डोएट हन्थो दायधो मुहपोत्तिया वा | कुच्छिय-सहद-निर्गमे पुण” पुयावक्॒ठण'*- छम्वणेण । एस विही, एयच्चइरित्तो* अचिही । 'असंक्रिलिटिकम्म' पुण” छेयण-मेयण-संघंसण- पीलूण-अभिधाय-सिंचण-कायखाराइ-असुसिर सुसिराणन्तर-परपरभेयशिप्न । 'कन्द्प्पो' चाइओ काइओ वा । 'हासं' पसिद्धमेच । 'विगहा” इत्थि-मत्त-चोर-जणवयाइया। कसाया' कोह्ाई | पिपथआणुसंगो' सद-फरिस-रस-रूव गन्धासवणमिति । 20 ५ गतीपकओ . खलियस्स य! इच्चाइ। 'खलियस्स' अद्यारावज्नस्स। सो य अश्यारो सहसक्कारकओ धणातिगकओ_ य। “च' सद्दो पडिक्रमणारोवर्ण समुचिणद। 'सघत्थ वि' क्ति सघ्पपसु। दंसण- नाण*गलतवसमिइणुत्तिन्दियाइसु खलियसस । हिसमणावज्ञओ"“ क्ति अकरेन्तस्स जयणा- जुसरत्ष | सहसकाराणाभोगलुक्खर्ण चेय-- प्‌ अणएासिऊर्ण छूढे पाए ' कुलिंगज पाले । न य तरइ नियत्तेड जोगे सहसाकरणमेय ॥ 25 अपयर+ प्राएर्ण असंपउत्तस्स णोवजुत्तस्स | इरियाइसु भूयत्थेसु वष्ठटओ हो अणाभोगो ॥ ए्वे रुहूसकाशणामोगेहिं” हिंसमणावज्ञमाणो ज़यणोवउत्तो अइदयाप्मावन्नो जि मिच्छाइकड- के सुद्धो १२, आभोगेण विश्याइ | 'आभोगेणे' ज्ञि परिफुडबुझीए वि। 'तणुएस' थोषेसु, नेद्दा- सर्यात्ति सम्बन्धो। नेहो कप्पट्ठुग-सन्नि-सन्नायगाइस्ु | भयं इहलोग-परलोग-आयाण-अकम्दा- 30 “असिलोग-मरण-सन्निय | सोगो सचन्चित्ताचित्तमीसद्वराण संजोगेण विओगेण य. कओ । 'बाउसत्त! सरीरसुस्सृसापरायणत्तं हत्थपायाइधोवणदारेण। आई” सद्देण कुसील- ) 3 साडति। 2 # जाम०। 8 ह3 भगो । 4 3 वा। ० ६ #स्तणोवस्स० | 06 है सं- खुड़एय । 7 2 व्सासु। 8 ५ एगदव्वेय। १ ॥3 व्वत्ती । 0 ै ०डगलग०। 7] /& | पचि०+ 2 चिट्ठाणले० । 43 ह3 इसिसि। व4 33 कपट्टर० । व5 2 वास। 76 & ॥। 77 9 पिप्पं०। 8 33 खुहवोत्ति०। » 9 3 वायन्ति । »0 ऊे उड़याई। »2] 8 हत्थो मुहपोत्तिय वा दिजइ । ०2 नास्ति । 28 3 पुयतावकद्ृण । 24 3 एतन्वतिरित्तों । १3$.-5 छेग्रणपीलणभेयणघंसण । 20 23 विकहा । 27 33 सहस्स०। 23 8० भोगओ । 29 ] फ्हुमाणा० । 30 / उत्तस्स। 3 ४ णए। 3.) 3०प्तावकरणा० । गो क जी ० के० चु 7] ३० सिद्धसेनसूरिकया [_ गाया १३-१७ ०3८७०५०५> ० /४३६१५०५०००४१००- पासस्थो-सन्न-संससा भेष्पन्ति | 'कन्दष्पहासबरिगहा” पुध्रचफल्लाणिया । आई खद्देण कसा- यविसयाणुसंगा गहिया। सघ्चेसु वि एएसु तणुण्सु 'णेयघ्! जाणियब् । 'पढिकमण' पाय- चिछत्ते ति भणियं होइ | एयं' पडिक्रमणारिहं भणिय ॥ २॥ १३. इयाणि तद़॒भयारिदं । 'संभमभय-इच्चाइ। 'संभमो' हत्थी-उदग-अगणिमाइओ। 5 'भयं' दस्ख-मिलक्खु-वोहिय-मारूवाइ-सगासाओ । 'आउरो' दिगिकछा-पिवासाईहिं। 'आवई' चउघिदा-दघखेत्तकालभावावई । दध्वावई दघ दुल॒ईं । खेत्तावई वोच्छिन्नमडम्बाई' | काला- वह ओमाई' | भावावई गुरुगिलाणाई। 'सहसाणाभोग! पुषुत्ता । एएसु हिंसाइदोसमाव- ज्ञओ वि जयन्तस्स 'अणप्पवसओ!” सच्चेहिं' कारणेहिं, 'सब्वथाहयारं' करेज्ञा। पलायमाणों पुदविजलजलणपवणाइवणस्सइदुरूहण वा करेज्ञा । वि-तिय-चउ-पश्चिन्दियं वा विराहेज्ञा । 0 मुसावायादिन्नादाणमेहुणपरिग्गहराइमोयण अद्धाणकप्पलेवाडाइय” वा आपज्ञेज्ञा । एये उत्तर- गुणेसु वि। एवमाइ अदयारावन्नस्सावि। 'तड़भय” आलोयणा गुरूणं । पच्छा गुरुसंदिद्टो मिच्छादुकर्ड ति भणमाणो सुद्धो । 'आसंकिए चेव' क्ति कयमकर्य वा जत्थ परिघ्छेय कार्ड न तरइ तमासंकियं । तत्थ य सघपएसु वि तदुभयपायच्छित्तफारी सुज्ञार । १४. 'दुष्चिन्तिय! इश्चाइ। “दु'सदो कुच्छाभिद्वणे | संजमविराहणाजायं कुच्छिय विन्तियं 38 दुश्चिस्तियं। एवं “दुब्भासिय दुचिट्टिय'। 'आई' गहणेण दुष्पडिलेहिय-दुपमणिर #गहण । 'बहुसो' अणेगसो उवउत्तो वि न याणइ' त्ति सम्बज्यत | उचभोगरूघपरिणओ' वि 4438 टन संभरइ पुघकालकयमइयारद्वाणं । आलोयणाकाले 'देवसियाइई अह्यार”, आइशगहणेण राइय-पक्खिय-चा उस्मासिय-संवच्छरियाइयारा घेप्पन्ति | । १५. 'सबेस य' इच्चाइ। 'सब्च॒ ग्गहणेण सचाववायद्राणा सृधया | पढ़मे उस्स'शपय 20 विश्यं अववायपय । अवराष्टेखु अद्यारेखु 'दंसणणाणचरणावराहदेसु' | 'आउत्तस्से त्ति दुद्ारणे जयणाए गीयत्थो आसेवओ अआउत्तो भ्ण्णइ। का 'रस्स आउत्तस्स तदुभय' पायच्छित्त” होइ। तहिं चेवावचायकाले 'सदसकारेण' ज का, त॑ आइसइसंगहियाणाभोगेण य तदुभयमित्ति | एयं च” तदुभयारिदं ॥ ३॥ १६. इयाणि विवेगारिट भण्णद। 'पिंडोबहिसेज्ञा इचाइ। 'पिंडो' संघाओ ) -खा- 25 इम-साइम-सेयमिन्नो । 'उचही' ओहिय-उवग्गहिय-मेओ । 'सेज्ञा' उबस्सओो। आइसद्ेण ।लग- छार-मल्लग-ओसहाणि चरेप्पन्ति । 'कडजोगी' गीयत्थो भण्णइ। पिंडेसणा-चत्थ-पाएसणा >छेय- खुयाईणि * सुत्तः्थओ अहीयाणि जेण स्रो गीयन्थो। त्ेणोवउत्तण गष्टिय॑ सुओवएसाणुस एरोव- ओगपरिणामपरिणएणं ति भणिय॑ होइ । 'पच्छा नायमखुद'। कैण दोसेण असुद्ू' नाय #ण्णइ। उग्गमउप्पायणेसणाहिं संकियमसंकियं वा दोसवत्तेण 'सुद्धो' 'निरइयारों | विहाणेणं” विहिणा 30 सछुओवइट्रेण 'विगिचमाणो परिट्ठवेन्तो सुद्धों हवद्‌। १७. 'कालद्धाणाइच्छिय! इच्चाइ। 'कालाइच्छियं! पढमपोरिसीगहिय॑ ” चडन्थपोरि्सि जाघ जे धरिज्ञद। अद्धजोयणाइरेगाओ आणीय॑ नीय॑ वा। असढयाप सढयाए य। विगहा-किड्डा इन्दि- यमाईहिं सदों, गिलाण-सायारिय-थडिल-भयाइक्रमणेण य असढो । विहीए विगिश्वन्तों सुद्ो | अणुग्गएस्रे अत्थमिण घा ज गहियमसणाइई असहेण गिरिराहुमेहमहियारयापरिण 8 एवं। 2 73 असणि०। 3 / ० मंडवा०। 4 3० मादी । 5 छ्हित्ति। 6 «वा- डाइ। 7 हि “णत्तो | 8 3० मियाइप्रार। 9 8& उस» । 30 3० बाद । 7] 33 परिछत्त। 72 2 एवं च। 8 १3० पाएसणा सेजाठेय० । 4 /& मुयाइय । 5 4० प सुद्ध 9 छ पोर्ती०। 7 8 नातति। | गाधां १८-२१: ] जीयकष्प-चुण्णी ११ सबियरि उन्गयबुद्धीए अणत्थमियव॒ुद्धीए वा गहिये होजा; पच्छा य अणुग्गए' अत्थमिण था नायं तओ* विहीए विभिश्वन्तो सुद्धो । कारणे' वा गहिय गिलाणायरियबाल'पाहुणयदुल्लहस- हस्सदाणाइ-कारणे नाणाविहे ऊूं गहिये विहिभोयणे य कए जइ त॑ उच्चरियं तओ विहदीए अणा- घायमसंलोगाध्याए विगिश्वन्तो । 'भत्ताइ' भत्तगहणेण असण, आइग्गहणेण पाण-खाइम-साइ- माणि वि घेप्पन्ति । सो य' एवं करेन्‍्तो सुद्धो हवइ त्ति' विवेगारिहं भणियं ॥ ४ ॥ 6 १८, इयाणिं काउस्सग्गारिहं भण्णइ--गमणागमण/--इच्चाइ | उवस्सयाओ गुरुमुलाओ वा 'गरमर्ण, आगमण' वाहिराओ आयरियसमीच | 'विहारो' सप्ज्लायनिम्नित्त ज अन्नत्थगम्ण । पतथ सघहिं चेव इरियाचहिया काउस्सग्गो पायचिछत्तं कीरइ। 'सुयम्मि! उद्देससमुद्देसाणुन्ना- पट्ठशणपशिक्रमणसुयक्‍ख्नंधगपरियद्वणाइएस खुए काउस्सग्गो कीरइ। 'सावज्ञसुमिणे” पाणा- इवायाइ। आइसद्रेण अणचज्नसुमिणे वि। कम्देति । 'च'सद्देण दुन्निमित्त-दुस्सउण-पडिहणण- 0 निमित्त अट्वुस्सासुस्सम्गकरण । 'नावा' चउधिहा--समुददनावा, उज्ञजाणी, ओयाणी, तिरिष्छ- गापतिणी। आइमा समुद्दे । पच्छिला तिल्नि नहैप'। उज्जाणी पंडिसोत्तगामिणी | ओयाणी पुण अज्रुलोयगामिणी । तिरिच्छगामिणी णर्दि" छिन्दन्ती गच्छई। 'णईसंतारो"”' चउघ्निहों। सो पुण पाएहिं संघट्टलेव-उवरिलेबेहिं तिविहदों होइ, याह्य-उडडबाईहिं य। सघत्थ 'पायच्छित्त! जयणोवडक्तस्स विहीए 'काउस्सग्गो' पायच्छित्त होइ। प5 १९, भत्ते पाणे' इच्चाइ | 'सत्तपाणाइ' परिर्ध चेव | 'सयणं' जस्थ झुप्पदइ | 'आसण' जत्थ निधिसिक्ञाइ | 'अरहन्तसेज्ञा' चेइयघरं। समणसेज्ञा' पडिस्मओ। सघसु एएसु” भत्ताइस- मणसेफ़ांपज्षचसाणेसु हत्थलयाओ परेण गमणे आगमणे वा कए पायचिछत्त' काउस्सग्गो | सो पणुवीसुस्सासो कायधो। उद्यारिज्ञर सि 'उच्चारो'। पस्लवतीति 'पस्सवर्ण”। दोखु वि परदिट्ठविएसु दत्थसयब्भन्तरे परेण वा हन्थमेत्ते वि काउस्सग्गो पणुवीसुस्सासों कज़इ । 20 २०, 'हत्थ सय' इच्चाइ। अणन्तरगाहा-जुयलेण काउस्सग्गं पच्छित्तमुत्त, ते पुण काउ- सः यू कि परिमार्ण करेन्ति '। अओ ऊसास परिमाण-निरूवणत्थाओ तिन्नि गाहाओ भण्णन्ति। .. पढमद्धं पढियसिद्ध । 'पाणवहाइसुमिणए' क्षि करणकारावणाणुमईहिं खुमिणे” पाणा- 8 याऔ कहो ओज्ञा। तत्थ ऊसाससयपरिमाण तुले। 'चउत्थ मित्ति मेहण-“सुमिणयदंसणे रिमाण काउस्सगां करेज्ञा ! 95 २१, 'देसियराइय' इच्चाइ । जहासंखेण ऊसासपरिमाणकहणमेय । दिवसावसाण-पडिक्क- मणे ध्रच्छिमकाउस्सग्गतिए पढमे दो उज्ञोया चिन्तिज्जन्ति। पच्छिमेसु दोसु पकको | एबमेए चत्तारि उज्जोया । एसो य उज्ञोयद्ण्डगों पणुधीसूसासपरिमाणण छिज्ञर । तओ पणुब्रीसा ज्र्जहिं उज्ोणहिं गुणिया ऊसाससर्य भव॒ति | र्यणिपहाय-पडिक्षमणे पुण पश्चासं ऊसासा लय|स अद्भेण होन्ति | तत्थ दोहिं उज्ञोएहि पणुधीसा गुणिज्द | पफ्खपडिक्षमणे वारस 30 उज्ञौया | तेहिं पणुवीसा गुणिया होन्ति ऊसासाणं तिल्नि य सयाओ। चाउम्मास-पडिक्कमणे ए उल्ञलोएंहिं पणुवीसा गुणिज्लइ, पंचसया होन्दि | वारिसिय पडिक्मणे चत्तालीसाए पणुवीसा गुणिया सहस्समुस्सासाण होइ। अपने अट्ठ ऊसासा नमोकारे कज्जन्ति । तओ अद्दत्तरं सहस्सं होइ। सो य नमोकारों संवच्छरिण बहुओ कालो निधिग्घेणं गओ त्ति| चिन्तिझ्नइ मंगलप्थ पञञन्‍्ते। 35 ].8० ग्गजो। 2 ०>०मिओो । 38373 ततो। 4 3 'बालनासि ! 5 3च॥। 6373 !। 7-8 2४. >मिणो। 9 3 नदीए। 0 /& नदी। ]] ४ नदि सं० । 2 3 जइणो० । 3 #छ एतेसु ॥ 4 ै. पयच्छित्त । ]5 &. पुण० । 6 & पस०। 77 3 करेउ त्ति । कि घुमिणोत्ति । 79 28. छम्तासयप० । 20 2 भिहुण०। 2] 3 उत्स०। | १२ सिद्धसेनसूरिकया [ गाधा २२-२७. २२, “उद्देस! इच्चाइ | सुत्ते उद्देस-समुद्देस-अणुन्नासु सत्तावी्स ऊसासा उस्सग्गो कीरइ। सुयकक्‍खन्धज्ञपरियद्वणुत्तरकाले यः सत्तावीसुस्सासपरिमाणुस्सर्गकरणं । पद्ठवणपड्िकमणे अद्डतासगपरिमाणुस्सग्गकरणं । आइसद्देण दुन्निमित्तावसडणपडिघायनिमित्त अद्दुसासमु- स्सगगं करेइ | एयं काउस्सग्गारिहं भणिय ॥ ५॥ 5 २३, उद्देसज्ञयणे' इच्चाइ। उस्सग्गाभिहाणाणन्तरं तवारिदं भण्णद। तत्थ नाणायारा- इयारो दुबिहों-भोहओ, विभागओ य। तत्थ विभागेण उद्देसग-अज्ञयण-सुयफ्खन्ध-अज्ञार्ण कमसो य परिवाडीए कमेण , पमाइस्स कालाइक्कमणाइसु त्ति सम्बज्यह । पमाइगहण्ण, काल- विणय-बहुमाण उवहाण-अनिण्टवण विवज्ञया आइयारो होइ । वश्णमेय-अत्थमेय-तदुभयमेया वा कया आइयारो होइ नाणस्स । एफसि अद्वण्दपरयाणमन्नयरट्वाणट्विओं नाणाइयारे बह्दह । 0 अकाले सज्झायकरणं असज्झाइफ वा करण, एस कालाइयारो । विणय॑ न पउञइ, जश्चाइएहिं वा मयावलेवलित्तो विणयभर्ग करेइ, हीलइ वा, एवमाइ विणयाइआरो। खुण गुरुम्मि य' बहुमाण- भत्तीओ न करेइ। भत्ती उवयारसमेत्त | वहुमाणो ओरसो सिणेहसम्वन्धो आयरियाण उचरि सो घान कओ। उचहाण तवचरणं आयबिलाहय न करेइ । निण्हवर्ण अवलब॒ण । जस्स सगासे अहीयं तदुद्देसेण भणद 'नाइ्ट तस्स सगासे अहिज्िओ'। जुगप्पद्ाणं वा सूर्रि समुद्दिसइः 5 सयमेव वाहिज़ियं भणइ | एसा निण्हवणा | चश्नयर जेण अत्थों त वश््॒ण । उत्तस्स सन्ना | ते च सुत्त मत्त-फ्खरबिन्दृहिं ऊणमइरित्त वा करेइ, सक्षय वा करेइ अन्नामिहदाणेण वा भणइ | एस वज्ञणले ओ | एवमत्थमेय तदुभयमेया वि नेया। २७. 'निध्विगइय'--इच्चाह। उद्देसगाश्यारे निश्चिगइय । अउज्झयणाइयारे पुरिमई | सुयकक्‍्ख - नधाश्यारे एगासणर्य' । अगाइयारे आयंबिल | अणागाढे पएयं | आगाढे पुण एएसु चेब ठाणेसु' 20 पुरिमड्राइ-अव्भत्तइ-पञ्ञवसाणं । अत्थसुणणे वि पुरिमह्टाइ खमण पजञ्ञन्तमेपस चेव ठागेसु। एय विभागपच्छित्त भणिये | इयाणि ओद्देण अन्न | -- २५ 'सामन्न पुण' इच्चाइ। सच्म्मि चेच सुत्त ओहेण अविसेसिए आयाम अत” य अविसेसिए अव्भत्तद्वो। कमेण अहिज्लन्तो न ताव पावडढ़ ते खत्त अत्थ या परिणय वा न पूरइ सो अपत्तो (१), अबचगो अपत्तों अजोगो। तितिणिचवलूचित्त गाणगणियाइ-णेगदोस- 25 संज्जक्तो (२) अज्नोवि अपलो' वयसा सुणण या (३) एस सच्चा चेद जो चाय देइ उदहेग्प- समुद्देसणुन्ना वा करेइ तस्ल वि स्वमण | च' सद्देण जइ पत्त न वापद खुएण, पत्त वा जो गे न धाएइ, वत्त वा वयसुएहिं । एएस च उद्देसणादि जो न करेइ वा तस्ल अच्भत्तद्वो | २६. 'कालाविसज्ञण-इच्चाइ । कालाविसज्ञणं कालस्स अपहडिक्षमण । आस अणुओगरस्ल' अधिसजणं ' 'मटल्त्विसुहा' मंडलि-मूमी सा तिविहा' सुत्त अत्धे भोयपी । 830 एफएसि तिण्हवि अप्पमज्णे निशच्वीय । सुत्ते अन्‍्थे वा निसेज न करेइ । अक्खे वा न रएति. तो खमर्ण, च' सद्दा वंदण-काउ सग्गे ण करेति तहावि खम्रण चेव। ५ २७, आगाढाणागाहम्मि' इच्चार । जोगो दुविहो-आगाढो अणागाढों य। आगाढड़े प्र भंगो देसभंगो य | अणागाढे वि सद्चभंगों देसमगों य। सच्॒भंगो नाम आयंबिल न को न विगईओ सेवइ। देसभगों नाम विगई भुझजेऊण पच्छा काउस्सग्ग करेइ। सयमेव था काउ- 35 स्सग्गं काऊण भुञ्ञई, विगई वा एगइ्ठ गेण्हद "| अध्षणिओ वा 'संदिसह काउस्सग्ग करेमि' 7 <व्वीईय। ४ ४. व्यख० । 3 ४ एकास०। 4 द्गाणें० है 94 भा ॥। 6[/73 तिंतिगियचलचि० । 7 2. जन्वत्तो ॥ 8 2 अणिओ० | 9 /& तिहदा। 20 3 गिढ३। -.. अभिणि० । स्ति गाथा २८-३०. ] जीयकप्प-चुण्णी १३ भणद। आगाढसघम्ंगे छट्ठं, देससंगे चउन्‍्य । अणागाढसधर्भगे चउत्थं, देसभंगे आये- बिर्। एस नाणाइयारों भणिओ। इयाणि द्सणाइयारो भन्नइ-- २८ 'संकाइयासु देसे' इध्चाइ | संका आइ जेलिं पयाणं ताई हमाई संकाइयाई । लेख संकाइएसु अइसख पएखु। काणि पुण ताणि? इम्राणि भन्नन्ति | [३] संका, [२] कंखा, [३] 5 विततिगिज्छा |, [४] मूहदिद्वी, [५] अणुववृहा,' [५] अधिरीकरण, [७] अवच्छ ले, [८] अप्प- भावणया । संसयकारण संका-देसे य' सच्चे य। तत्थ देसभ्मि जह--तुल्ले जीबत्ते किह भविया अभविया, अन्ने एवमाइ संकादेसे। संघ्े--पागय'भासबद्धत्ता मा होज्ला।कुसल- परिकष्पियं । दिद्दुन्तो पेह्लकप्पट्टो । एत्तो कंखा दुषिह्व-देसे, संछे य वोधघा। देसे कुति- त्थियमय कखइ। एत्थवि अहिंसा मोक्खो य दिद्लो क्षि। स्व पुण कंखइ सच्चे कुतित्यथिमर्ए | 0 दिट्वंतो रायामआ आसायहिया पसत्थमपसन्था । वितिगिज्छा' देसे सघे य। जहा भद्मो" ८ रिसो परिक्केसों अम्हाण केसलोयाइ कीरए होज्ञा न वा मोक्‍्खों | विदुगुज्छा बा-विवशाने विद्‌.'' साधवः । ते दुगुर्छइ मण्डलि-मोय-जल्लाइणहि। मूढदिट्टी परतित्थियपूयाओ'” अदसयम- याणि वा साऊण मइवामोहों होज्ञा | उचवूहा दुविहा-पसत्था अप्पसत्था य। पसत्था साहस नाणद्सणतबसंज़मखमणबवेयावच्चाइसु अब्भुज्ञयस्स उच्छाहवह्ण उबवृहर्ण । अप्पसत्था 5 मिच्छत्ताइसु । थिरीकरण पसत्थमप्पसत्थ च। विसीयमाणस्स चरित्ताइसु थिरीकरणं पसत्थ | असंजसे थिरीकरण अप्पसन्थ ।! वच्छल॒सवि एबमेव दुबिह--आयरिय-गिलाण-पाहु- * ण-असहु -वाल-बुद्दाईण” आहारोबहिमाइणा समाहिकरण पसत्थ । ओसन्नाइ'-गिहत्थाणं _अप्पसत्थ | प॒भावणा वि एयमेव | तित्थयर-पवयण निधाण-मग्गपभावणा पसत्था। सिच्छत्त- ५ चण।णाईण'' अप्पसत्था। एव अट्टु वि वित्थरओ परूवेऊण। तत्थ संका देसे सच्चे य । एवं कंखा 20 वि। एवं वितिगिज्छा” दुगुड्छा वि। एवं मइ[वा]मोहो थि | अप्पसत्थुववृहा देसे सछे य। एच बच्छलं पि देसे संघ य । अप्पसत्थप्पभावणा वि देसे सच्चे य। तत्थ चउखु वि संकाइएस देखे खमणं । मिच्छोववृहणाइसु य देसे/' खमण | च सदेण थिरीकरण-घच्छल-प्पभावणे मिच्छ- त्ताईणं देसे खमण। पव ओहओ। धिभागओ- पुण संकाइसु अइसु वि देसे भिक्‍्खुस्स पुरिमड् । वसभस्स एकासणग । उदबज्ञ्यायस्स आयंबिर्ल | आयरियस्स अब्भत्तट्टो ।25 , २५. 'एवंचिय' इच्चाद | एवं” चेवाणन्तरुद्दिई पुरिसविभागेण पच्छित्त पिह पिहं। जइणं साहुण' उववृदण न करेइ | आइसद्रेण” थिरीकरण वच्छलं पभावर्ण वा पवरयणज्र माहयाणंण करेइ | भिफरुस्स पुरिमह । वसभस्स पएक्कासणयं। उवज्ञायस्सायविलरूं। गुरुस्स अभत्तट्टो। एय पदमद्धवक्खाण । पच्छद्ट पुण उचरिमगाहाए सम्बज्ञद | सा य एसा गाहा-- । ३०. 'परिवाराद' इच्चाद | 'परिवारनिमित्त'ति सहायनिमित्त ति जे भणियं होइ। आई 30 सद्देण आहारोचहि-निमित्त वा। तप्पसाएण आहारोवहि-सेज्ञाओ वा लमभिस्सन्ति त्तिकाउं फासत्थोसन्नकुमीलसंसत्ताहाछन्दणिया णं' उबरि ममत्त करेइ। सावग-सन्नायगाणं वा सबेसि कल 23 कब 2 कय अमक ह । व विगिछठा। 2 / अण० । 3 73 अप०। 4 23 य! नास्ति। 5 7० विए। 6-5 एैंगइय । 7 3 ०तित्य० । 8 7) विदगिच्छा । 0 / दृश्मो । 0 [3 ण। 7] फ विदव: । 42 पूयाअइ० । 8 ै मिच्छाइसु॥ ॥4 3 बा। 5 [3 >“णग समु असहु । 76 3 व्दीण । ]7 ४. व्णाइ। 8 ै एमेव। 9 ै3 ०त्तउन्ना०व। 20 33 विगिंछा। 2 33 न्यूहणा देसे। 22 ०. बिभागाओों । 23 3 एगास०। 24 3 एय । 25 ै जइ साहूं। 26 ऊे भादि०ग। 27 2. जति० । 28 73 वरादसस्‍्स । 29 3 एगस०। 2320 33 >ज्ञति। ०7! 5 ०ञछदनीइभाण । ल्‍ | १७ सिद्धसेनसूरिकया [ गाथा ३९-३४. वा परिपालण-सम्भोग-संवास-सुत्तत्थवाणाणि। जइ करेइ वच्छल तो भिक्‍खुणो 'णिल्चीय'। धसभोवज्यायगुरूण' पुरिमेगासणायामाइ जहासंख। अह पुण इममालम्बणं करेइ। साहम्मि- ओ'त्ति एसो संजम वा करेसइ' । 'वा'सद्देण कुलगणसंघगिलाणकज्ञाइएसु पडितप्पिस्सइ शि*। एवं बिहाए बुद्धीए सब्बर्हिं सुद्धो ! एवं दंसणायारपच्छित्त भणियं ॥ 5. इयाणि चरित्तायारपच्छित्त भन्नहर-- ३१. 'एगिदियाण” इच्चाइ | एगिन्दिया पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-पत्तेयवणस्सई | एएलि पंचण्ह वि पिहु पिहु संघद्दणे निश्वमीइय | आउकायस्स संघट्टणे” घड-गोलंकय-वास्याइ-ठियस्स, पायहत्थाइचालियस्स ईसि परियावो, पुण गाढतरचालियस्स उद्दवर्ण । पिहु परितावणहणणपा- णाईसु | एएसि च परितावणा दुबिहा अणागाढहा आगाढा य। तत्थ अणागाढाए पुरिमह । 40 आगाढाए पएक्कासणयं । उद्दव्ण' पुण आयाम पंचसु वि। ३२. 'पुरिमाई” इच्चाइ । अणन्तवणस्सइ-विय-तिय-चड रिन्द्याण संघट्टण-अणागाढ-आ- गाढ-परिताव-उद्वणखु पुरिमाइ-खमणन्त” जहासंखे। पश्चिन्दियसंघट्टणे एकासणय । अणा- गाढ-परितावणे आयाम । आगाढ परितावणे खमर्ण | उद्दवणे एककल्लाणग । परमायसहियस्स । ३३ 'मोसाइस' इच्चाइ | मुसावाय-अवृत्त-परिग्गहेसु मेहुणवजिएसु। दघाइवत्थुभिन्नेखु 5 क्षि। मुसाधाओ चडघ्िद्दो- दर्बखेत्तकालभाषेहिं | द्धओ जहण्णमज्थशिमुक्कोसो । एवं खेश- कालभावेसु वि तिविहो | पर्ध'' जहा मुसावाओं चउघिहो पुणो य एकेको तिविहों। तहाउदश- परिग्गहा वि | एत्थ य द्धाइमेयभिन्ने चडघ्िहे वि मुसावाए जो जहन्नमेओ तहिं सच्चत्थ पक्कासणय, मज्िमे सब्ृहिं आयाम, उकोले थि चउधिद्दे खमणं। एवं अदत्त परिग्गहेसु थि पच्छित्त दायध । 20... ३७. 'लेवाडय' इच्वाह । लेवाडय-परिषासे * अव्मत्तट्वो । सुकसपम्रिहिएस बि--सुठिहरड ह- वद्देडगाइसु अच्मत्तट्वो । इयरा गिहसन्निही-गुरुकक्यघयतेछाई तीए छट्ठ | सेस निसिभष्ते अट्ठमं | भोहसुत्ताओ ' अम्ल त सेसं । कि चोहसुत्त ? पढमभंगो | सेसा तिन्नि भंगा सेसनिसि- भत्तसद्देण भवन्ति | एयमेय मूलगुणाइयारे मेहुणवज्लिए पच्छित्ते भ्णियं । मेहुणाइयारस्स पुण मूलट्वाणे मणिहिई । 95 इयाणि उत्तरगुणाइयारपच्छित्त भन्नद। ते य उत्तरगुणा पिंडविसोहीयाईया | तत्थ पि- डविसोही तिख्ु ठाणेसु हघइ | उग्गसे उप्पायणाए एसणाए य | तहा खसंजोयणपफ्माणइंगाल धूमकारणविभागेण य घिखुद्धी भवइ । एत्थ य उग्गमो सोलसभेओ | ते य इमे सोलस मेया भाहाकम्माई | एत्थ सोलससु दोसेसु जत्थ जत्थ सरिस पच्छित्त त ते दोस गाहाए संपिडिय कहयइ। तहा उप्पायणाए थि सोलस । तत्थ जे सरिसपच्छित्ता ते समुच्चिणडइ। एवं एसणा- 80 पीलेखु वि द्ससु सरिसद्गाणाईं उवसंहरइ । एगट्टी क्रिश्चा। एए सब्बे थि पिंडनिज्लुक्तिणुसारेण भाणियघ्या । इद्द पुण पच्छिसमेष फेवर्ल विहिज्नइ । आहाकम्मे खबर । उद्देसियं दुविहं-भोददे विभागे य। परिमियमिक्खदाणरुव ओहो अयिक गला अविसेसियं तत्थ पुरिमइ । विभागे तिल्नि सेया उद्देसो, कडं, कम्मं | एए” तिन्नि थि* प्चेय 3 निन्वीइय । 2 2 वसभोज्झाय । 3 33 करिस्सह । 4 2. ण्तप्पस्सइ | 5 . ०व्विदय । 6 2 आउकायसंघडणं । 7 ४ ओदवणे। 8 23 परियावण। 9 3 खबण। ]0 73 परियाबें 7 8 एवं जरा। 2 2 'वि!नास्ति। 8 / व्वासेइ। 4 33 ओहयुत्ता० । 5 7 द्वोइ । 36 2 कम्माती। ॥7 2 एएसिं। 48 4. «ए्दृबि। कसी से पीजी जज की बस री और जी पी य चचऔऔ जे अिजज- ऑजजजह- 3-33 बन गाथा ३९४. ] जियकृप्प-चुण्णी १५ शदहिं मेएहिं मिज्ञन्ति'। ते जहा---उद्देसुदेसियं, उद्देससमुदेसियं, उद्देलाएसिये, उद्देसस- माएसियें। एएस विसेषसु पुरिमई । कड़देस, कडसमुद्देस, कडाएसं, कडसमाएसं। एए्ख वि चडसख विभेण्सु एक्कासणय। तहा कमुद्देस, कम्मसमुद्देसें, कम्माए्स, कम्मसमाएसं । तत्य पढमे' आयंबिल | सेलेस तिसु भेएस अच्भत्तट्टो | पूइयं दुविदहं-खुड्ुुमे घायरे च । खुद्द्म घूमाइ। बायरं उवगरणे भक्तपाणे य । तत्थ उच- गरणपृद्टण पुरिमह । भत्तपाणपूरए एक्कासणर्य । मीखज्ञायं तिविहं--जाधतियमीसज़्ायं एव्थ आयबिल्ं । पासंडमीसज्ञाए साइमी- सज्लाए य खमण | ठवणा दुविहा--दत्तिरिया तत्थ निध्ीद्य | चिरठवियाए पुरिमहं । पडुडिया थि दुविदा-खुहमाए निध्वीदय | वायराण खमण । 0 पाओोकरणं दुविदू-पागडकरणे पुरिमई । पगासकरणे आयाम | कीये दुविह-दछ्े भावे य । दे दुविहं-आयकीय, परकीय च॑ । एत्थ दोसु वि आ- याम॑ | भावे वि आयकीय परकीय च। भावायकीए आयाम॑। भावपरकीए पुरिमई। पामिनश्न दुविहं--लोइय एत्थ आयाम॑, लोगुत्तरिए पुण पुरिमहं । परियध्टिय दुषिइ--लोइए आयाम, लोगुत्तरिए पुण पुरिमहं । 46 आहडे दुविहं--सग्गाम ओ*, परग्गामओ य । सग्गामाहड़े पुरिमहं ! परग्गामाहडे सपश्च- चाए चउत्थ । परग्गामाहडे निष्पद्चवाए आयाम॑। उष्भिण्ण दुविहं-ददरउच्मिन्ने पुरिमड्, पिद्ठिओब्मिन्नकवाड़े आयाम॑। मालोहड दुषिह- जहलन्ने पुरिमईं, उकोसे आयाम । अच्छेज् तिविद्द--पहुअच्छेज्, सामिअच्छेज्ज, तेण अच्छेज़ज' | तिसु वि आयाम | 20 अणिसदुं तिविहं-साहरणाणिसट्ट,' चोलगाणिसट्ठ, जड्डाणिसई ।तिसु वि आयाम॑। अज्ञोयरो तिविहों-जावंतिय-पासंडियमीसो, साहमीसो। एन्थ जावतिए पुरि- महू, इयरेसु दोसु वि एक्तासणय । एवं उग्गमदोसेसु पायच्छित्त भणियं । इयारणि उप्पायणाएं पायच्छित्त भन्नर--धाई पचरचिहा, सब्वत्थ आयाम । दुई दुविहा-- सम्माम-परग्गामा, दोसु वि आयाम | निमित्त तिविद--तीए आयाम, वषद्दयमाणे" अणागए य 25 समण । जाजीबे जाइकुलाइमिन्ने, सचत्थ आयाम । वणीमए वि सघ्त्थ आयाम । सिगिव्छा दुषिह्-सुहमाए पुरिमईं, बायराए' आयाम | कोहे माणे आयाम, मायार पएका- सर्ण,' छोसे खमणे | संथवो दुविद्यो-पुर्व्वि संधवो, पच्छासंधवो घा। वयण-संथयवे पुरिमईं, सम्बस्धि-संथवे आयाम॑ | विज्ञाए आयाम॑। मन्ते आयाम॑ | चुण्णे भायाम। जोगे आयाम॑। छूलकस्से मूल । 30 इयाणि एसणादोसेसु पच्छित्त भण्णइ-तले य इसमे दस संकियमाहेया” । तत्थ संकिण खड़मंगो-संकियगाही संकियभोई | चरिमो णिस्संकिओ' दोसवबिसुद्धो, बीओ"* वि विखुद्धो ले | पदमतइ्॒ए संकियभोई | जं दोसं संकइ तस्स चेव पच्छित्तमावजइ। सच्ित्तमकिखियं शिविद्वं-- पुटडवि-आउ-चणरुसइ । तत्थ पुडविससरक्खमक्खियहत्थेणं निश्चिगइयं । मीसकदसेणं चुरिमई । निम्मीसकदमे आयाम । मध्विया-ओस-दरियारू-हिंगुलुय-मणोसिला-अंजण-लोण- 35 ] ह/ मिजइ। 2 33 पढमए। 873 “बा नासखि। 4 73 ०माओ। 53 9 अच्छिजं । 6 2 साधारण अणिसद्त । 7 2 न्यणेए। 873 घाती । 9 # वड्डमा०। 0 3 वणीमगे। ॥7॥ + पाय० । ]2 3 एगासणग । 3 33 #म्ादीया। 4 3 भोत्ती। 78 ह नीस०। व6 ै वि ईओ वि्नं०+ ]7 2. ततिए। 8 ४ निम्वीयर्य । १६ सिद्धसेनसूरिकया [ गाथा ३४ अल अल के, आए मं ऋ अमल हे. मी क 20 थे बल अत गेरय-वक्निय-सेडिय-सोरद्रिय-मक्खिए करमत्ते सा्ृत्थ पुरिमइं। एये पुदषिमक्खियं,। श्यारणि आउमक्खिये भश्नद-ससिणिद्धे निश्विगदय । उदउल्ले पुरिमईं । पुरकम्म-पच्छकम्मे आयाम॑। एय आउम्क्खियं भणियं। दयाणि वणस्सइमक्खिय भन्नइ--सो य वणस्सई दुविहो-परित्तो, अण- न्‍तो य | परित्ते तिन्नि मेया-पिट्टं, रोह', कुकुसा | उक्ुई चिंचाइ | पपहिं मक्खिएहिं तिहिं वि 5 पुरिमईं। अणन्ते वि! एएहिं चेव तिन्नि मेया | एत्थ पक्कासणयय | एयं सश्चित्तमक्खिय भणियं । इयाणिं अचित्तमक्खियं भन्नई-तं दुविदं--गरहिय-मज्ञायमक्खिए आयाम । अगरहिय-संसत्त- मक्खिए आयाम | एये मक्खिये भमणियं । इयाणि णिक्खित्त भन्नर-एत्थ अउभंगो सचित्ते सचित्त निक्खिसत | एत्थ तइप' पच्छित्त। ते च सचित्त छक्काया--पुडदवी-आऊतेऊः वाऊ- परित्तवतणस्सइकाऊ-तसाणं च । सच्चित्ताणमणम्तर-निफ्खित्ते आयाम । एर्फ्स चेच सश्ित्ताण 0 परंपरनिक्खित्ते पुरिमइं | एएसि चेव मीसाणमणन्तर'निक्खित्ते पुरिमइ । एणसि चेव मीसाएं परंपरनिक्खित्ते निघीयं | अणन्तवणस्सइ-सश्चित्ताणन्तरे खमर्ण । एयस्स चेव परंपरेण' एक्का- सणये । अणन्तवणस्सह-मीसाणन्तरणिक्खित्त पक्कालणर्य । एयस्स चेव परपरनिक्रिखत्ते निध्चीयं । पिहिए चउभंगो। तत्थ तइण” पब्छित्त। अचित्तेण शुरुणा पिहियस्स, सचित्तेण पुढदवी-आऊतेऊ चाऊ-परिस्तणण तस-सचित्तेहिं, अणन्तर पिहिए आयाम | एएहें चेव ॥5 परंपरपिहिए पुरिमई | प्णहिं चेव मीसेहिं अणन्तर-पिहिए पुरिमई | एणटि चेव परंपरे निध्ीयं | अणन्तवण-सचित्ताणन्तरपिष्टिप खमर्ण । तेण चेव परपरपिहिए एक्ालणय | अणन्तव णस्सइ-मीसाणन्तरपिटिए एकासणय | एप्ण चेव परपरपिदिण निध्वीय । गुरु अचित्तपिहिए- खमण | इयारणिं साहरियं भन्नद । पत्थ वि चउभंगो | तत्थ पुडवि-आऊ-लेऊ-वाऊ-परित्तवणस्सद- तससचिक्षाणन्तरसाहरणे आयाम॑। एए॒हिं परपरसाहरणे पुरिमई। एएहिं चेव मीसाण अणन्तर- 20 सादरणे पुरिमई | एएहि चेव मीसाण परंपरसाहरणे निध्चिइयय ।अणन्तवणस्सइसचित्ताणन्तर- साहरणे खमण। एएहिं चेव अणन्तंवणस्सइपरपरसाहरणे एकासणय। अणन्तवणस्सइमी साण- न्तरसाहरणे एक्कासणय । एयर्स चेव मीसपरंपरसाहरण निश्वियय | वीयसाहरिए निशिगइयं । अचित्ते अखित्त साहरिए पुरिमई । अद गुरुसाहरिए तो खमणं | दर्याणि दायारो त्ति' भप्नह-- बाले चुट्ढे मत्ते उम्मत्ते चेव णेजरिए अन्घे पप्सु दिन्‍तेसु गहणे आयाम | पगलन्तकुट्टे खमण्ण। 45 पाउयारुढे थि खमण। हत्थे दुइए नियलूयद्ध य हत्थच्छिन्ने य पायच्छिन्न य सपुसके गुध्रिणी- धघालवच्छाए भुश्नन्तीए विरोलन्तीए भजञ्ञन्तीए कंडन्तीए पीसन्तीए एयासु सब्वाखु आयाम। पिज्ञ- न्तीए'' रुवन्तीए कत्तन्तीए पमदमाणीए पुरिमड | उऊक्कायवग्गहत्था समणद्वा णिक्ग्ि वित्तु ते चेत्र गाहनती घटन्ती ” संघडन्ती आरभन्ती“। एयासु सट्टाणे नी० पु० ए० आ० अभ० कल्लाणर्ग । पएुय॑ सट्ठा्णं। संसत्तेण दघेण लित्तदत्था य छित्तमत्ता य आयाम॑, सेसेस्ु पुरिमई । भोयत्तन्तीए'' 80 साहारण च देन्तीए चोरियगं देन्तीए पाहुडिय ठवेन्तीए सपच्चचायाए पर च उद्दिस्स आयाम॑ ॥ इयाणि उम्मीर्स भन्नई--परित्तचणम्सद सचित्तउम्मीसे आयाम । एएण चेव परित्तेण मीसेण उम्मीसे निश्चि्य । अणन्तसचित्तउमस्मासे खमण । एएण चेव अणन्तमीसे निश्चिदये । बीउस्मीसे'' निश्चियय । अह पुढवाईहितो जहा णिकिखित्त | इयाणि अपरिणय भन्नइ--त डुविई- बच्चे भावे थ । दधे अपरिणये-पुढवि-आउततेउ-चाउ-परित्ततणस्सइ अपरिणए आयासे । अणा- । 3 नाखि॥ 2 ै अणतेहिं। 3 3 एगासणग । 4 2 इद वाक्य पतितम । 9 ५ ततिए। 6 ४. मीसाणतर० । 7 < परंपरे। 8 3 एगामगग। 09 औ ततिए। 0 & क्षणतरे०। 4 3 निव्वीय। 2 ै/ एतद्वाक्य नाम्नि। 8 33 दाग्रगत्ति। 4 हि दृत्थ। 35 /* श्सये। 6 73 रुंचतीए । 77 हैच्ेब । 8 & 5हिंती | 0 / नास्ति+4 20 औै सघइमारभतीए। 27 ४. भोयततोए। 22 >डियग। 23 ४ पिछउ०। गाथा ३५-४६. ] जीयकप्प-चुण्णी १७ जा आुच ,९५९००७५०+०००4०+७५५०७५५-६०५०-५०००५०५७०७०५०७००५९->जपल अमन, म्तवणरुसाइ-मपरिणए खंम्रर्ण । एशथ य चउभंगों--दधे अपरिणयं, भावे थिं अपरिणय । भावा- परिणय दोण्ड पि' भुञमाणाणं, एस्य थि पुरिमइ | इयाणि छिफ्त भश्ना--संसत्तेण दृत्येण वा मत्तेण वा* आयाम॑ | स्यारणि छड्टियं भन्नर--पुठवि-आउ-सेउ-चाउ-परिक्ततणेस्ु आयाम । अण- न्तवणेसु खमण | एए एसणा दोसा । संजोयणा दुधिद्या-बाहिं भायणे, अस्तो वयणे। दोण्द थि खम्तणं। परिमाणाइरित्ते 5 आयाम । सरंगाले खमण | धूमे आयाम । थफारणे भुजई/ आयाम । कारणे अभुअ्ममाणस्स आयाम । घासेसणा दोसा प॒ण। एयम्मि परिछत्तपत्थारे-- ३५. “उद्देसियचरिसतिए' इष्याइ गाह। | एयाओ दोधि भगादाओ जेसु जेसु टाणेसु ३६. अइरं अणन्त' शष्यादइ गादा । अधष्भत्तईड तेसु तेसु ओयारिज़्जल्ति | 40 ३७. 'कम्मुदेसियं' इच्चाइ गाहा। किक दोबि जेछु जेछु ठाणेसु आयाम तेखु तेखु ३८, 'अररं परित्त०' इच्चाइ गाहा। | ओयारिज्ञन्ति । ३९. 'अज्ञोयर' गाहा | एगासणयट्टाणेसु भोयारिज्ञर३ । ४०, 'ओह जविभागा' दृष्याद गाहा। | प्याओ तिण्णि गाहाथों जेम्लु जेस़ ठाणेसु पुरिमह ४१. 'सग्गामाहड' इच्चाए गाहा | कि हि ४२. 'पत्तेय 'मिष्यार शाह । | तेखु तेखु ओयारिज्ञन्ति | ४३. “इत्तरठविय' इच्चाइ गाहा | एसा निश्विई्यं जेस जेस ठाणेस तेखु लेख ओयारिजह | ४४. 'सहसाणाभोगे' इधाइ । सदसाणाभोगा पुघुत्ता । तेखु सहसाणाभोगेस वद्मा- णस्स जेछु जेस फारणेसु पदिक्रमण भणिय तेसु तेछ्ठु चेच कारणेसु आभोषण्ण जाणमाणो जे करेइ, अइृबहुसों पुणो पुणो अदृप्पम्राणेण था करेह, सब्घत्थ निधिगहर्य । ४५. 'घावणडेघण' दृष्चाइ । घाघर्ण गश्मेदो') डेघर्ण उल्लंडर्ण । संघरिसेण गमरण-- १० को सिग्घगइ क्ति, जमलिओ था गच्छद । किट्टा अद्वावय-चउरग-जूयाइ । कुदहावर्ण! इन्दजाल- पट्खेड्ठार । आइसद्वेण समास-पह्देलिया-कुद्देडगा घेष्प॑ंति। उक्कट्टी पुकारिय-कलकलो। गीय॑े गीयमेव । छेलिये सेंटियाँ । जीवरुयं--मयूर-तित्तिर-सुग-सारसादिलविय सघ्ेखेतेस्ु अध्भत्तट्वो । आइसदूण अजीवरुये बि--अरहद-गड्डिया-पाउया-सद्देसु वि। ४६. 'तिविद्ोवहिणों विशुय' इधाइ | तिविद्योयहिणो--जद्दन्नो मज्यिमो उक्कोसो । मुह॒पो- 2 ज्षिय-पायकेसरिया गोच्छगो पत्तटठवर्ण च एस चउधिषह्ो जहन्नों। मज्यिमो छश्चिदों--पडलार- यच्षाणं पत्ताबंधो चोलपट्टो मत्तओ रयहरणं च। उक्कोसो चउधिहो-पडिम्गहो, तिन्नि पच्छाया" । एुए ओहियस्स थेरकप्पे ' चोइसमेया मणिया। इयारणिं उवग्गहिओ थेरकप्पो'' तिबिहो भप्नह-- जद्दक्नो मम्झिमो उक्कोलो। पीढर्यण निसिजझ्ञो डंडगा प्रझाणी घट्ठगा डगलगा पिप्पलग-सूई नदरणी दुंत कण्ण-सोहणग-दुर्ग, एसो जहन्नो । वासताणाइओ मज्झिमगो। बासताणा पंच 30 इम्रे--धालो छुत्तो छुंगो' कुडसीसग छत्तए चेव ॥ तेहिं य दोज्षिओ ओद्वोवहिस्मि वाले य खोत्तिए चेव । सेसतियवासताणे पणय तह चिलिमिलीण इम ॥ ] 8 तु। 2 2 दत्ये मत्तेवा। 3 / 'भुज्नए नास्ति। 4 3 गति०। 59 3 उप्ृर्ण ॥ 6 2. कुद्दाय। 7 5 उक्ुद्धित। 8 9 सिटियं। 9 ३3 पच्छागा । 70 3 कयो। |] 8 कप्पे। 2 4 बाले सुत्ते सूईं। 3 3 भोददोविहि० । द्रे जी० क्र्० चु० १८ सिद्धसेनसूरिकया [ गाया ४७-५० बालमडे' सुत्तमई घागमई तहय लक रे । स॑थारगदुगमझ्नसिरं झुसिरं पिय* डेडपणग च॥ डंड-विडंडग-लट्टि-विलट्टी तह नालिया य प॑ । अधलेहणि-मत्त-तिग पालवणुश्वारशस्तेले य ॥ चस्मतिय5त्थुर पाउर तलिग अहवाचि चम्मतिधिदमिमं। फत्तीतलियावष्मा पट्टगवुरग चेव होइ इम । संधारुत्तरपट्टी' अहया सन्नाह्रपट्टपब्दरथी | मज्झो अज्ञाण पुण अइरित्तो घारगो होइ ॥ 5 भकक्‍खा संथारो वा तुविद्दो एगंगिओ य इयरो वा। विश्यपय“पोत्थपणग फरूगण तद दोइ उक्कोलो ॥ एस अज्ला्ण साह्ण चोग्गहिओं भणिओ | श्यार्णि अज्ञाणं ओडिओ भन्नर | जो श्विय थेरकप्पियाण ओहोचह्दी चोदसविद्दो सो चेष अज्लाणं पि । नपरं-- अज्ञाण एस खिय चोलढद्ठडाणम्मि' कमढग नयरं। अन्नो य बेहलरूग्गों मोवद्दी होइ तासि पि॥ ओग्गहणन्तगपहो अट्टोरगचलणिया य बोधघा। अग्भिन्तरबाहि-नियंसणीय तह कंचुए चेच ॥ 0 उक्षच्छिय-वेकच्छिय संघाडी चेव खंघधकरणी य ! ओद्दोवद्दिम्मि एए अज्ञाणं पन्नचीसलाओ ॥ पएत्थ अज्ला्ण जदन्नों जो चेब साहुण ओदहिओ चडघिष्दो)। उक्कोसो अद्वविद्यो--चउरो से चेघ पुष्ठदिद्दा जे साहणं। अन्ने य इमे चउरो--अब्मिन्तरबाद्दधि-नियंसणीय संघाडी खंघकरणी एसो उक्कोसओ उ अज्ञाणं । तेरसविहो उ मज्ञो इणमो उ समासओ होइ॥ पत्ता वधाईया चउरो ते चेव पुधनिद्िद्वा । मत्तो य कमढग वा तद्द ओग्गहणन्त्ग चेव ॥ 6 पद्दो अद्वोरुविय चलणिय तह कंचुगे य उकच्छी । वेकच्छी तेरसमा अज्ञाणं होइ णायघ्ा ॥ जदन्नोवहिम्मि विद्युए' पडिए पुण लड्े निधिडैय। मज्मिमे पुरिमड्ं । उकोसए पक्कासणयं । “विस्सरिया पेहिए'त्ति--पडढिलेहिड विस्सरिउ क्षति भणियं होइ | जदृन्न अप्पडिलेहिए निध्िईय । मज्यिमे पुरिमई । उक्कोसे एक्तासणयं । 'विस्सारियानिवेयणे'सि निवेइउ' विस्सरियं ति, आयरियाईण तिविहों' वि | तो पर चेव पच्छित्त । अह पुण सधोवही विद्युओ 20 पुणरवि लझ्ो । पडिलेहिडं वा विस्सरिओ । निवेइड” वा विस्सरिओ सधो चेव, तो आयाम । ४७ 'हारिय धो'इश्चाइ | हारिए जहप्नोवहिम्मि पक्कासणययं | मज्मिमे आयाम । उक्ोसे चउत्थ (थ्योए वि एवं चेव पच्छित्त तिविद्दं। उग्गमेड न निवेइए | जाणन्तो वि जहा न पहुद परिग्गहि॑ आयरियरुस अणिवेदइओो उवही । तस्सानिवेइयस्स तिविह एय॑ चेव पच्छिक्ष । अदिन्न॑ वा आयरियाहईईहिं जदृज्नाइ भेय उबहिं परिभुअद एयं चेव तिविहं पच्छित्त । 25 दिन्न वा उवहिं जरज्नाइ-मेये आयरियाईहिं अणणुन्नाओ अन्नेसि ठेइ। एन्थ बि पर्व चेव पच्छित्त तिविहं । अह पुण सच्चोवहिं हारेजा | सप्नोवहिं वा उदुवद्ध धोषेज्ञा । सघ्ोषर्हि वा उमामेउं न निवेपद | सघ्ोवहिं वा अदिन्न परिभुजद । सच्ोचटिमणापुच्छाए अणणुन्नाओ था अन्नेसि देह । पं सघदारवणाइएसु'" पएसु जीएण छटं । ४८. 'मुहणन्तय' इच्याइ। मुहणन्तर फिडिए ओग्गहाओ निश्चिई्यं। रयहरणे अच्भक्तद्रो । 80 एवं ताव अणट्ठे। अह पुण नासियं दारवियं वा पमाएण मुहणन्तर्य तो से चडत्थे। रयहरणे छट्दे । ४९. कालद्धाणाईए! इच्चाइ | विगहाइपमाएणं कालाईय करिन्ति भत्ताइ निश्चिधय॑, आर्ट पुण परिभुआन्ते चउत्थ | एवं अद्धाणाइकमे वि अपरिभुअन्तस्स निधिईयं, परिभुअजन्तस्स अध्मक्तद्ने । पारिद्ववणिय सघमेवाविहीए विगिश्विन्तस्स भक्ताद पुरिमहं | ५०. 'पाणस्सासंचरणे” इश्चाइ। पाणाहारासंवरणे । भूमितिग ति-डक्षार-पासब्रण- 8 कालभूमि बोशिसियादय एगतर-अपडिलेदणाए जि निध्चिईय। चउधिहाहारासंवरणे, अहवा नमोंक्ार- ये पश्चक्खाणं ण गेण्हर, गहिये वा पश्क्खाएं भजद सच्र॒त्थ पुरिमह । सा हा पुरके मर!” स्थाने सर्वत्र 'मती' पाठ । 2 & चिय । 3 9 जोतरि०। 4 . पिहय । प्रो०)। 6 33 चोलगद्ठाणमि। 7 ै निबेणएए+ 8 & तिबिहे । 9 6 निवेदं । 40 वणाइसु । ]] ४ पम्राएप। 2 2 "व नाखि । ६ गा गाथा ५९-५६. ] जीयकप्प-चुण्णी १९ चििजजललजल जलललिजलज जल जल *+ौ १० ते कक क डज न अअऑलअलक नल >>. ऑण अऑंण हल अिजजअल ल >> जी अं जटज जी ज 2322०: ८-+ >>. ण्जजजिजजज जल जर- ५१. ये चिय' इच्चाइ! एय चिय पुरिमई | सामन्न अविसेसिय ति. भणिय' दोइ। तवो बारसबिदो | पडिमाओ बारस--मासिया, दोमासिया, तिमासिया, चाउमासिया, पश्रमासिया, छस्मासिया, सक्तमासिया, पढम-सत्तराइन्दिया, दोश्च-सत्तराइन्विया, तदय-सक्तराइन्दिया, अह्दोराइया, एगराइया । अभिग्गहा दघसेत्तकालभावभेयश्िज्षा। एपसि अरेण्हणे भंगे वा पुरिमह | गाद्य पच्छड॒स्स विभासा इमा। पक्खिए अव्मत्तहुमायबिले चा। जे वा दिवस- 5 पश्चकखाणं। ताओ जहासत्तीए तवं न करेइ अइररित्त, तो खुद्दगस्स निध्वीईयं, थेरगस्ख पुरिमहं, भिकखुस्स एक्कासणर्य, उवज्ञ्यायस्सायंबिरं, आयरियस्स अव्भक्तट्रो। चाउम्मासे खुडगाइ-आयरियावसाणाएं पंचण्द वि जहासंख पुरिमह्ेगासणायामचउत्थछट्टाई दिज्न्ति। संबच्छरिए पक्कासणायामचउत्थछटुट्टमाई दिल्लन्ति जद्दासंख पंचण्द वि। ५२. 'फिडिए' इश्चाइ | फिडिओ निद्दापमाएणं पएगस्सुस्सगस्स निधिशयें । दोसु0 पुर्मिहं। तिहे थि एगासणर्य | काउस्लग्गाणं चेव फिडिओ पच्छाहुन्तओ करेद ताहे आयाम । सर॑ वा ढस्सारेइ एगाइ काउस्सग्गे तो निधीइयपुरिम्ठेगासणाई जहासंख । से चेव सयमुस्सारेद आयाम॑। भग्गे वा एगाइसुस्सग्गे अपुण्णे चेच अन्तराले तहा वि निधिईय- पुरिमहेगासणाई | सघेसु भग्गेसु आयाम । एवं वन्दणपसु वि एस चेव गमो । ५३ 'अकपएसु' इच्चाइ | अद्दवा उस्सग्गमेव न करेड । एगाइ तादे पुरिसेगासणायामाई' ।5 सप्वावसस्‍्सय न करेह चउत्थं । जद्दा काउस्सग्गे एवं वन्‍्दणाइएसुं पि गाहा पच्छड्वेण सह चउत्थं सम्बज्यद | दिया अपडिलेहिए घडिले राओ' बोसिरइ, दिया वा खुबद चउत्थ। ५४. 'कोह्टे वष्ढ' इधाइ। समिमुप्पन्न कोहं पक्खाओ उचरि चाउम्मासाओ वा उचरि धरेइ तो चउत्थं। आसवो वियर्ड तमाइयंते” चउत्थे | ककोलग-लबंग-पूगफल-जाइफल-तं- बोलाइस सच्चन्थ चउर्त्थ | पुध्रगादह्यओ अणुषद्वाविजाइ | लखुणे अचित्ते पुरिमह । आइसद्रेण 20 पलंडू घेष्पह्ठ | तण्णगमयूरतित्तिराइ-बंधमुयणे पुरिमहं । ५५. अप्लुसिर' इश्चाह। अप्लुसिरतर्ण कुसाइ ते्सिं अकारणपरिभोगे निधिईयं,' सेसप- णएसु पुरिमहं। सेसा पंच पणगा--तणपणग्ग, दूसपणग', पोत्थयपणग, चम्मपणग । पत्थ य दूस- +णर्ग दुषिद्दे सेण पंचपणगा। तत्थ सालीबीहीकोदरवरालग आरकज्नतर्ण' चेति तणपणगं। दूसपणग कुधिइ-हुष्पडिलेहिय दूसपणगग अप्पडिलेदिय-दुलपणग च | कोयवि पायारण'” पूरी दाढियाली 25 बिराली, एय॑ दुष्पडिलेहिय-दूसपणग । तूली आलिगणी अंगोवद्माण' गंडोपहाण” मखरगो य एयं अप्पडिलेहिय-दूसपण्ग | गंडीपोत्थओ *, कच्छवीपोत्थओ, मुट्ठीपोस्थ ओ, छिघाड़ी/*, संपुडगें, एय पोत्थयपणगग । गोमाहिल-अय-पएला-मिय-चम्मपणग | एल्थ य तणपणए दुष्प- डिछ्ेहिय-दुसपणए चस्म्रपणप य पुरिमई । अप्पडिलेहिय-दूसपणए परक्कासणय । पोत्थयप- णणरश्गहणे आया । बेइन्द्याइ-तसघद्दे ज॑ च आपज्षइ ते च दिल्लइ । विश्य-चुन्निकारमएणण पो-30 त्थयंपणगे दि पुरिमई । ५६. “ठघणमणापषुच्छाए' इच्चाइ। दाणसह्अहाभद्सन्निमाईणि ठघणकुलाणि | ताणि आय- रियरणापुच्छिय भत्ताइ परवेसिकण गेण्हर जइ तो से एक्तासणयय । तेसु य कुलेस एगो चेघ संघाडगो णिघिस॒र सेसा न पश्चिसन्ति | पिरियं परक्षमो त॑ निमूहन्तस्स पक्कासणय | जीय- घवहारे एय । सुयववद्ााराख अन्नहा । पकासणयं च माया निष्फन्नं | सेसमायाओ अश्न-35 १ 8 पुस्तके “ति भणिय पतितं । 2» ५ विद्ासमा। 8 # कमसो । 4 3० गासण आया० । 8 3 'राओ' नास्ति | 6 2 तसापियते । 7 3 पुस्तके “अज्झुसिरतणेस्ु निव्वीय” एतावन्मात्रपाठ । 8 पोत्थय पणग, बूसपणय । 9 3 अरण्णतिण । 0 3 कौयव पावार-। 4 4 मडगोवहाणं । 2 गंडोबद्दाणी । 8 3वा। व4 ४ “पोत्थगो। 5 -3 छेवाडी । 76 ४ माय०। २० सिद्धसेनसूरिकया [ गाधा ५७-६१ बच +ओ 5 53 अजाअ+ 3ह> 3लल्‍-जस-> जज जजजजजजज< मायाओ,'ता य इमा--जहां-भद्दग भोद्वा विवजन्न विरसमाहरे आयरियसगासे । जसत्थी। जहा-- दस महा तवस्सी विरसाद्वारो रसपरिश्यार्ग करेइ क्ति । एवमाइयासु मायासु खमणं । ७७. व्ष्पेण इच्चाइ | दृष्पो वग्गण-घाषण-डेघणाइओ'। द्प्पे वद्ममाणेण पश्चिन्दिओं घहिओ दोज्ञा । संकिलिट्ृुकम्मं--अंगावाण-परिमदण-सुक्पोगगाल निग्घायणाइ,दीहद्धाण-पडिवन्नो'य । 5 आहाकम्म-छाणकप्पाइयं वा बहु अदयारं फरेज्ञा । वीदशिलाणकप्पस्स वा अवसाणे आहाक- म्मसन्निहिसेवर्ण घा कर्य होज़ा | एएसु फारणेस पंचकल्लाणगग पच्छित्त । ५८. 'सच्चोवहि'इच्चाइ। पाउसे ज़यणाए वि सघ्ोषहि कप्पे कए पुरिमत्ताए था चरिमाए पम्माएणं । अप्पडिलेहिए चाउम्मासघरिसेसु य विसोद्दीए पउत्ताए निरश्यारस्स वि पंचकल्ला- णरग्गं दिज्द । कि कारणं। जम्हा सुद्दुमाइयारे कए वि न याणदइ न वा सभरद | जहां पाउसहुर- 0 त्तवेरत्तपाभा भोग कालाग्गहणे सुत्तत्यपोरिसि-अकरणे अप्पडिलेहियमाई । एएण कारणेण सप्रेस्तु वि दिल्लद त्ति। ५९. 'छेया'इश्ाइ | जो छेय न सदृहद, कि धा छिज्लर न छिज्जह त्ति एवं भणह | मिडणो क्ति- जो छिज्ञमाणे वि परियाए न संतप्पर जहा में परियाओ छिप्नो'त्ति । अहवा अन्नेसि ओमराइ- णिओ'० जाओ त्ति परियायगधिओ जो दीहपरियाओ' सो परियाए छिलन्ने' तहावि अप्नेष्िंतो 5 अष्मद्िियपरियाओ न ओमशाइणिओ होह। नवा बीहेइ परियायछेयसरस। एएर्सि जहुद्दिद्वाणं छेय- माषन्नाण वि तवो दिल्लई | आइसदेण मूलाणवट्भपारंचियपयावन्नाण वि । जीयववह्दारमएर्ण ग- णाहिबदणो य। गणादिवई आयरिशो तस्स छेयाइमाघन्नस्सावि तघारिदं दिल्लइ। मा पुण खेह- दुसुंठाईण अपरिणामगाण हीलणिज्लो भविस्सद क्ति। चसद्देण कुलगणसंघाहिवा घेष्पन्ति । ६०. 'ज॑ ज'मिद्चाइ । इृद जीययवहारे जं जं पच्छित्त न भणिय अवरादहमुद्दविसिऊण 90 तस्सावि आवत्तिविसेसेण दाणसंखेध॑ं भणामि ! आवतक्ती पायच्छित्तद्शाणसंपत्ती। सा य निसीहकष्पववद्दाराभिहिया' । झुत्तओं अध्यतो य। आणा अणपत्थमिच्छत्तविरशहणा सघि- व्थर। तघसो य--सो य तघो एणगादी छम्माखपत्नवसाणो अणेगावत्तिदाणविरयणा छकख्त णो तेखु सब्वेसु ' गथेसु ! इृद पुण जीयववहारे संख्तेबेण आपत्तीदार्ण निकूविज्वह । ६१. “भिन्नो अविसिट्ट इृर्याइ। भिन्न इति ससमयसन्ना, पंचवीस॑ दिवसा भिन्नसद्देण 25 चेष्पन्ति। सो य अविसिट्टो एक्को चेच। अविसिद्गददणाओ य सघपणगाई मेया घेप्पन्ति। पणर्ण-- लहद्॒ुगं, गुरुगे च, द्सगं--लघु्गं, गुरुण च,' पन्चरसगं--लइहु॒गं, गुरुगं थे, घीसगे-- छहुुग, गुदग च पंचबीसग्गं--लह्डुगं, मुरग थे | एस भिन्नमासो बच्ुमेओ वि पक्को चेष घेष्पद | एसो य खुयध- बदारो जेसु जेसु अवराहेसु भणिओ तेछु चेघ भवशहेसु” जीएण सघत्थ निव्विगई । मिश्नो अधिसिट्टो श्विय एवं वक्खाणियं | इयारणि मासों लि | सो य लद्डुमासो ग्रुरूमासो य। एत्थय 30 लह्डमासे पुरिमहं। गुरुमासे पक्कासणयं | चउरो य छक्च मासा सस्वज्झन्ति। तत्थ लद्दुचउमासे आयाम | चउगशुरूमासे चउस्थं। छल्ठलाइमासे छट्टं । छघुरूमासे अट्म | एप सुत्तनिद्दिद्वाव्ति जहाधराई जाणिऊकण जीएण निधिदयाइ-अट्टमभत्तन्त तप देज्ा । ६२. इयसघाघत्तीओ' इश्चाइ ! इय एवं एएण पगारेण। सधाषत्तीाओ सद्यतषद्वाणाईं। जदहकम पायच्छित्ताणुलोमेण। समएण सिद्धंते । जीएण देख्या | निधिश्याइय दाणं झह जह 98 भ्णियं तद्दा तद्दा देज्ज त्ति भणियं होइ । ] # “»मायातो । » ४. “णादीओ। 38 2 निग्घाइयणाइ । 4 2. पडिपनो । 5 3 व>राइणिंतो । 6 8 परियागो। 7 2. विच्छिन्े। 8 “णएण। 9 33 वहारादि अभिहिया। 0 3 'सब्वैयु नास्ति। !] & पुस्तके द्वितीय वाक्ये नोपलक्ष्यते। 2 अत्र 3 पुस्तके 'जेछु अवरहेष्ठु भणि अबराम! घुतारश खण्डित पाठ । गाथा ६३-६७. ] जीयकप्प-चुण्णी ३१ ६३. 'एये पुण सघ्'मिद्चाद | एयं ति जहुद्दिद । पुण सह्दो विसेसणे । सच पायच्छित्त- दाणं । पाएण बाहुलेण | सामप्नलमविसेसिय । विसेसेण निद्दिट्ट विणिद्धिदं। देय विभागेण। दूधाइ--आइसटद्देण--खेत्तकालभावपुरिसपडिसेवणाओ य। अविक्खिऊण विसेसियं । ऊणा- इरित्त तस्स मंवा (!) देख्त त्ति। ६४. दर खेत्तसिश्चाइ । पढम गाहऊं कण्ठ । नाउम्मि त॑ चिय--जाणिऊण दर्वाइ 5 विभागस्मि त॑ चेव परिमाणपरिच्छिन्न देज्ञा। अहवा, नाउमियं चिय--इदमिति पश्चक्खी- भावे । हद्मेव जीयववहारभणियं देज़ा | तम्मत्त' भणियसमं । द्घखेत्तकालभावपुरिसपडिसेव- णादीसु हीणेसु हीणं देखना । अहिपसु' अहिय॑ देखा । साहारणेसु साहारण देखा । ६५. “आहाराएं दव मिशच्चाइ । आहारो आई जेसि दघाणं ताईं दघाई आहाराहेणि | ज़म्मि देसे ताई बलियाई। जहा अणूवएसे' सालिकूरो बलिओ । सहावेणं चेव सुलहो' य। एये0 नाऊण जे जीयभणियं दाण तस्सव्भहियमवि देज्जा । जत्थ पुण चणक-निष्फाब-कंजियाइ तुकखाद्यारो, दुलहो वा, तत्थ जीयदाण हीणमवि देज्जा । ६. 'लुक्ख'मि्याइ । छुक्ख नाम नेहरहिये। खेत वाय -पित्तलं वा। सीयलं पुण सिणिद्ध॑/ भन्नर अणूवखेत्त वा | निद्धलुक्ख साहारणं भज्ञए। इह य जीयदाणे णिद्धखेत्ते अहिय॑ देसा। साहारणे जहा भणिय सम॑ देज्ञा । लफ्खखेत्ते हीण देज़ां | एवं काले वि तिविद्दे' 75 तिविहं देज्ञा । ६७ “मिम्दसिसिर इश्चाह | गिम्हो छुक्खों कालो | साहारणो हेमन्तो | चासारत्तो निद्धो । मिम्हे तिविहो तवो--जहज्नो मज्यो उक्कोसो | जहज्नो चउत्थं, मज्झिमो छट्ठ, उक्कोसो अड्ठम । देमनते तिविहों--जहन्नमज्मिमुकोसो छट्ठृड्ठमदसमभेओ । वासारत्ते वि जहब्नमज्मिमुक्कोसो अट्टमद्समबारसमेयमिप्नो ! एस नवविहो वबवहारो। एये सुद्द जाणिकण सुयववहारेण वा 20 नवधिह॒विगष्पेण सुद्रु जाणिकण तिविह-काले तिविह-विगप्पियं तब देख्ला। सो य इमो-- अहागुरुआइ । एत्थ य सूलिया नवसेया नवसेयपत्थारे दद्ृघा। विभज्ञमाणा सत्तावीसं। आवतक्ति-दाण-तवसा कालेण य निओएयघा। एस नवविद्दो ववद्दारों वल्षिओ त्ति। सो य नव- विद्दो बवहारों इमो-- गुरुओ गुरुयतराओ अह्ागुरु चेव होइ ववहारो | 95 लह्ुओ लहुयतराओ" अद्दालह होइ'" बबहारो ॥ लदुसों लद्डसतराओ अह लदुसों चेव होइ वचहारो | एएसि पच्छित्त वोच्छामि अणाणुपुर्धीए--( सत्ताणुसारेण ) ॥ शुर्णों य होइ मासो शुरुयतराओ'' य होइ चउमासो । अह गुरुगो छम्मासों” गुरुपक्खे होइ पडिवत्ती ॥ 30 तीसा य पन्नचीसा वीसा * विय होह लद्द॒ुयपफ्खम्मि। पनरस द्स पंचे व य लह्डुसय पक्खस्मि पड़िवत्ती ॥ गुरुग थे अट्ठम॑ खलु गुरुयतराग" च होद दसम॑ तु । अह् शुरुग बारसमं गुरुपक्ले होह पडिवत्ती ॥ 3 33 म्मित्त। 2 2 अहिए। 3 &. अण्ण | 473 झुलभमो । 9 उेवबात्त। 68 निद्ें। 7 2 तिद्दे। 8 3 गुरुततरा० । 9 3 लहुगत०। 0 33 हहू चेव होइ। ॥] 8 गुद्गयरागों । 2 ४. >म्मासं। 3 ४. द्वितीय 'बीसा' पतितमू । 74 3 फ्णस॥ 75 8& लहुसप० । 6 73 गुरुतशा० । श्रे विनषिनवकी मनन किक न कम न मिनी की टन नक कम कक सनक पे अजय या जी भर मनी भीम अर अर आर 40 46 30 95 30 सिद्धसेनसूरिकया [ गाथा ६७५ छट्ठुचउत्थायंबिल लद्दुपक्खे होइ' पडिवत्ती। एगासण-पुरिमडं निधीयं' ल्डससुद्धों वा ॥ ओद्देण एस भणिओ', पत्तो जल विभागेण-- | तिगनवसत्तावीसा * भेएहिं ॥ नघविद्द बवह्ारेसो संखेयेण तिहा मुणेयधों। उक्कोसो मज्झो वा जहन्नगो चेव तिविहो सो ॥ उक्कोसो गुरुपफ्खो लद्भपकखों मज्िमों मुणेयघो। लड्डुसगपक्खो जहन्नो तिविगप्पो एस णायघ्ो ॥ गुरुपक्खो उक्कोलो मज्झ' जद्धन्नो य एस” लघुगे वि। पएमेचय लड्सेवी प्वेसो नवविद्दो होइ ॥ गशुरुपक्खे छम्मासो पणमासों चेव होइ उक्ोसो | मज्झो चउ त्ति मासो दुमासगुरुमासग' जहन्नो ॥ लद्दुमासभिश्नमासा' बीसा विय तिविहमेव लद॒पयसे” । पन्चरस दसग पणगं'" लहुसुकोसाइ तिविद्ेसो ॥ आधत्ति सघो एसो नवभेओ वज्षिओ समासेणं | अद्गुणाउ सत्तवीसो दाणतवो तस्सिमो दोइ ॥ शुरु छद्ठु लदुसगपक्सखे एकेक्के नवविद्दो मुणेयद्यो। उक्कोछ्ुक्ोसो वा उक्ोसो म्रज्यिम जद्न्नो ॥ मज्मुकोसो मज्म्िम मज्झो तद्द होइ मज्मिम जहन्नो। इय णेया जदप्षे घी उकोसो मज्मिम मज्झिम जहन्नो ॥ गुरुपक्खे नध एए नव चेव य दोन्ति लहुय पक्खे थि। नथय चेष रह्डुसपकरसे सत्तावीस हवन्तेण ॥ यारसमद्समअद्भम छप्पणमासेस तिथिह दाणेय । चंउत्तिमासे दस अट्ट' छट्ट उक्ोसगा'” तिधिद्दा ॥ एमैबुकोसाई ' दुमासगुरुमासिए तिहा दाणं। अट्टुम छट्ट चउत्थं नवविहमेय तु गुरुपफ्खे ॥ द्सम॑ अड्डम छटट लद्डमासुक्ोसगाइ तिह दाणं। अट्टम छट्ठ चउत्थं उक्कोसादेत* तिह भिन्न" ॥ छट्टू चडत्थायाम उक्कोसादेय दाणवीसाए। लद्बुपक्खम्मि नवविद्दों एसो वीओ” भज्रे नचगो ॥ अद्दम छट्ठु चउत्थं एसुकोसाइ दाणपन्चरसा | छट्ट चउत्थायाम द्सस्‌ तिविहे य दाणभवे ॥ खमणायामेकासण तिविद्ुकोसाइ दाण 'पणगेय॑ । छदुसेस तशयनवगो' सक्तावीसेस वासाछु ॥ ॥ 90दहोंति। 2 2. निव्वीयय । 3 3 भणितों । 4 ] एक्ासी इय। 5 2. मज्क्तिम। 6 5 एवं | 7 2 मासिंग । 8 3 मासो । 9 पुस्तके 'वीस लहुकोसमज्झिमजदन्ना' एताइशो द्वितीय पाद । ]0 ४ दसग। 77 ४ जअठ्रम। 72 .3 ०सगादिति०ग । 3 9 ०सादी। 4 2 एय । ]5 /& पमिम्ने। 6 8 एय। 77 3 बितिओ। 8 $ वसादि। 9 53 >रसे। 20 8 ण्प्ताइयाण । 2 2 ततिय। गाया ६८-७१. ] जियकप्प-चुण्णी श््ृ सिसिरे दूसमाईणं चारणमेणण सत्तवीसेण । ठायई पुरिमइम्मी अ्ोकन्तीय तद्द चेव ॥ अद्वममाई गिम्हे चारणमेएण सक्तवीसेण । तह चेव य ढोकन्ती” ठाचइ निधीयए* नवरं ॥ पएहिं दाणेहिं आवत्तीओ सया सया नियमा | 5 बोधघा सघाओ असहुस्सेकेकदासणया ॥ जब ठिय एकेक ते पीहासेज् असहृणो ताव । दाउं सट्टाण” तब परद्वाणं देज् एमेव ॥ एवं ठाणे ठाणे हेद्वाउत्तो' कमेण हार्सतो । नेयध जावठियं नियमा निधीदय एक ॥ 0 एस नवविदहों ववहारों। ६८. 'दृट्ुगरिलाणा इच्चाइ ! भार्व पहुश्चसममहियमस्र्ण वा देज्ञा । दृद्नस्स नीरोगस्स बलिय- सरीरस्स समहिय॑ वा देज्ञा ! गिलाणस्स ऊर्ं, नवा वि देज्ञा। जावहय वा थि सकेइ तावाय था वि से देज्या । कार्ूं वा सहेज्लञा, जाव पठणीहोइ। हट्टो सन्‍्तो करेस्सइ त्ति। ६९. 'पुरिसा गीयागीया' इच्चाइ | पुरिर्स पडुच्च सममहिय॑ ऊर्ण वा देज्ञा। पुरिसा केइ 6 गीयत्था, केइ अगीयत्था | घिदसंघयणसंपन्नत्ताओ केइ सहा, तघिरहियज्ञाओ केद असहा | सदा मायाबिणो, असढ़ा उज्जु भूयप्पाणो । उस्सग्गे उस्सर्ग। अववाए अबवाय॑ | जहां भणियं सद्ृहन्ता आयरन्ता य परिणामगा भन्नन्ति, अपरिणामगा पुण जे उस्सग्गमेव सद्ददन्ति आय- रन्ति य; अववाय॑ पुण न सदृदन्ति नायरन्ति य। अदपरिणामगा जे अववायमेवायरम्ति तम्मि चेय सज्लञन्ति, न उस्सग्गे ! 40 ७०, 'तह धिदृइच्चाइ | तहेत्ति आणन्तरिए। घिइ-संघयणे चउभंगो। घिएए स॑ंघयणेण य पढमों संपन्नो । इह य पढमपच्छिमा भंगा दुवे संगहिया सुत्तेण, मज्यमिला दुबे भाणियत्ा । अहवा वितियचुन्निकारा'भिष्पाएण चत्तारि वि सुत्तेणेव गहिया। कह ?-घिह्संपन्ना, ण संघयणेण १ । संघयणेण वा संपन्ना, ण घिईएण २। उभयसंपन्ना ३३ उभयहीणा य ७ | अद्दवा इसमे पंच विगप्पा। आयनरे णामेगे नो परतरए १ । परतरए नामेगे, नो आयतरप २। पगे आयतरपएफ थि 25 परतरए वि ३। एसे नो आयतरए नो परतरए ४। एए'' चत्तारि भगा ठाणककमेण। तद्दा पंचमो अध्नतरतरगो नाम विगप्पो । आयतरगो नाम जो उपवासेहिं दटो। परतरणो नाम जो वेया- वध्चकरो गच्छोवग्गहकरो व त्ति | अन्नतरतरगो” नाम जो एक सक्केइ काउं, तय वेयावश्य था। न पुण दो वि सकेइ । ७१. 'कप्पट्धिय' इश्चाइ । कप्पट्टिया आईए' जेसिं ते कप्पट्टियादओ | आइसद्रेण-- 30 परिणया”, कडलोगी, तरमाण त्ति पए” चत्तारि घेप्पन्ति। 'एफास चेष पड़िवकक्‍क्षभूया अण्णे थि चत्तारि जणा घेप्पन्ति''। अकप्पट्टिया अपरिणया अकडजोगी अतरमाणगा । तत्थ कप्पट्टिया जे आचेलुकुद्देसियाइ दसविहे कप्पे ठिया। कयरे ते *--हमे वक्‍्खममाणा-- आचेलुकदेसिय सेज्ञायररायपिंडकिइकस्मे । वयजेद्ठ पडिक्षमणे मास पञ्ञोसवणकप्पे ॥ 35 4 3 >मादीर्ण | 2 3 ठायति। 3 83 चेव अद्येौ०ग। 4 8 निग्वीए। 5 #. «ह्वाणे। 6 3 हेह्वाइन्तो। 7 ४ “व्वीध्यय । 9 2. तस्मिन्रिव । 9 73 बिदयचुन्रिगारा०। १0 ४ एवे । 7। 2 पुस्तके 'अन्नतरगो'अपपाठ । 74 2. अइया। 73 / <णता । 4 एते। 5 “एएसे! जारभ्य 'घिप्पति' यावव्‌, पाठ. 2 पुस्तके पतित । २४ सिद्धसेनसूरिकया [ गाया ७३-७३ जे पुण मज्धिमजिणसन्तगा महाविदेहगा य ते अकप्पट्टिया। कप्पट्टिया दुषिद्ा-सावेक्खा, निरवेषला य। सावेक्खा गच्छचासी, निरवेक्खा जिणकप्पियादयों । एवम्रकप्पट्टिया वि सावेक्खा निरवेक्खा य। परिणया गीयत्था, अपरिणया अगीयत्था। कडजोगिणो चउत्थ- छट्टइ्माईहिं विविहतवोवहाणेहिं' जोगवियसरीरा । अकडजोगिणो अपरिफम्मवियसरीरा। 58 तरमाणगा धिइसंघयण-संपन्ना । अतरमाणगा एएहिं विउत्ता' | ७२. जो जह' इश्चाइ । एप्स कप्पट्टियाइयाणं सावेफ्ख-निरबेक्खसेयाणं जो ज़ह सक्केइ तवव कार । वहुतरशुणों नाम घिइसंघयणसंपन्नों परिणयकडजोगी आयपरतरो' था होज्ा तस्साहिय॑ पि दिजइ। कओहिंतो अहिय १--जीयववद्दारभणियाओ' । जो पुण हीणों घिहसं- घयणाईहिं तस्स थोवतरय पि' जीयभणियाओ देज्ञा । जो पुण सघहीणो तस्स' सं झो- 0 सेज्ञा', न किंचि दिज्इ त्ति ज॑ भणियं होइ | ७३, 'पत्थ पुण' इच्चाइ | एत्थ एयम्मि जीयववहारे बहुतरया भिक्‍खुणो ज्षि। तेय अकय- करणा अजोगविया अणभिगया अगीयत्था | च सद्देण अधिरा विय त्ति। ज॑ तेण कारणेण जीयवचद्दारे अट्ठमभत्त अन्तो निधीइयमाईए। एये मज्झ गहिय॑ जन्तविहीएण । एयर्सेव फुडी- करणत्थं" जन्तबिहां भणामि । तिरियाए तेरसघरए काउं हेट्टाइत्तो य जाव नव घराई पुण्णाई 5 ताच ठावेयधं | पच्छा एणसि णवण्हं हेट्ठा जाई दाहिणेण अन्तेडियाणि दोश्नि घरयाईं ताई मोत्तू्ण अहो एगं घरये बड़ाविज्ञइ । ताहे त्तिरियायया'' एकारस घरया होन्ति। पुणो एएसि एकारसणई सप्चदाहिणा दुबे मोत्तणं अहो एगं घरं वह्वाविज्जद | ताहे ते आयता णव घरा होन्ति। एवं दुबे दुबे छह्डन्तेणं घरयाई हेट्िल्दाहिणिल्लाई ता नेयधं, अद्दो पक्केक घरयवष्टीण जाव णएक्रमेव घरयं सच्ा5होजाय । एवमेयस्स घरजन्तयस्स सधुचारें तिरियायया'' सेढी । तीसे सेढीए उर्बारि 20 सब्बाईए'' निरवेफ्ख ठाबेजा | निरतेक्खस्स य' दाहिणेण विश्य तशयधर मज्झनिग्गयरेहो- चरि आयरिय कयकरण अकयकरणं ञ्व ठावेज्ञा। चउत्थपंचमघरयमज्ञमविणिग्गयरेहोवर्रि कयकरणं उचज्या्य अकयकरणं च ठावेज्ञा' । छट्टुसत्तम अट्ल्‍डमनयमघरयमज्ञविणिग्गयरे हो - वरि गीयमिक्खु ठापेज्ञा, थिरं अधिरं च। तत्थ जो सो थिरो सो कयकरणो अकयकरणों य। अधिरो वि कयकरणो अकयकरणों य। तओ पुण दलमएप्कारसवारसत्तेरसघरयमज्ञ- 25 विणिग्गयरेहोवरि अगीयभिक्खु ठावेज्ञा, धिरमधिरं च । थिर कयकरणं अकयकरणं च | अधि- रं कयकरणं अकयकरण च टावेज्ञा । एवं ठावेकण णिरवेक्पटेट्टिमघरप सुन्न ठावेयघ । जम्हा तहिं पारंचियं पयं होइ। सो य निरबेक्सो सहावेण” चेव पाराचिओ तम्हा तहिं सुप्नं ठावेयघ । एयस्स दाहिणेण कयकरणायरियहेट्टा पारंचियं। एवं” तहिं चेष अवराहे-- जहिं कयकरणायरि- यस्स पारंचिय अकयकरणस्सायरियस्स तम्मि चेवावराहे अणवद्गप्पं | एत्थ चेवावराह्दे-- 30 कयकरणोवज्ञायस्स अणवद्टं (टप्प)। एत्थ चेवावराहे अकयकरणोवज्ञायस्स मूल । एस्थ चे” वावराहे गीयभिफ्खु-थिरकयक रणस्स मूर्ं। एन्थ चेवाचराहे गीयमिक्खु थिरअकयकरणरुस छेओ। एत्थ चेवावराहे गीयभिक्खु-अधिरकयकरणस्स छेओ। एत्थ चेवावराहे गीयमिक्खु अधिर-अकयकरणस्स छग्गुरु। एन्‍थ चेचावराहे अगीयभिफ्खु-थिरकयकरणस्स छत्गुरू । पत्थ चेबावराहे अगीयभिक्खु थिरअकयकरणस्स छल्लड़। एत्थ चेवावराहे अगीयप्रिक्खु अधिर- ] *वा। £ ै विहणेहिं। 3 3 ०“णगा दोहि विजुया। 4 2 पन्ना। $ ै आयतरगो | 6 ऐ न्यातों । 7 >. पि! नाख्ति। 8 औ सत्सम । 9 ै सोसेजा । 0 3 फुदीकरणत्थ॑ । व छ व्यायता। 2 3 सब्यु्पारे। 38 3 व्यायता। 44 3 सब्वातीए । 5 #& 'य! नास्ति। 6 &. ततिय । 47 कय आरभ्य ठावेजा' यावत्‌ पश्लि' पतिता 8 आदश ।+ 8 33 गीयंसि० | 9 8 ततो । 20 8. समभावेण। 2] ४ एवं। 22 अन्न द्वित्रा. पह्य पतिता। ४ आदर्श । गांधा ७४-७७.] जीयकप्प-चुण्णी ३५ कयकरणरुस छल्लह । एत्थ चेबावराददे अगीयमिक्खु-अधिर-अकयकरणस्स चडउगुरू । एवं एयाए पन्तिए पायच्छित्तट्राणरयणा एवं कायध्ा | सुन्न | पारश्िय । अणवद्ठप्प | अणवट्गप्प । मूल। मूल । छेय | छेय | छम्गुर | छग्गुरु। छलहु। छल॒हु। अन्ते चउ शुरू । एयाए हेट्ा खुण्ण । अणव- टुप्पो | सूले २। छेदो २ | छग्गुरू २ । छल्लहु २। चउ गुरू २। अन्ते सघदाहिणे चउ लहु | एयाए हेझ्ा मूल २। छेदो २ | छग्गुरू२। छललहु २। चरउ गुरू चड॒ लडु २। सघदाहिणे मासगुरू । 5 एयाए हेद्ठा छेदो २। छम्गुरू २। छलहु ९। चउगुरू २। चउलहु ५। मासगुरू २। सबदाहिणे मासलडु | एयाए हेट्ठा छग्गुरू २ | छलइ २। चउगुरू २ | चउलहु २। मासगुरू २। मासलडु ३। सघदाहिणे भिन्नमासो | एयाए हेट्ा छछलडु २। चउगुरू २। चउछद्ु २। मासगुरू २। मास- लह २। भिन्नमासो २। सच्ददाहिणे वीसा | एयाप हेट्ठा चठगुस २। चउ रहु २। मासशुरू २। मासलहु २। भिन्नमासो २। वीसा २। सच्चदाहिणे पन्चरस । एयाए चेव हेद्धा चउलहु २। 70 मासमुरू २। मासलइडु २। भिन्नमासो २। वीसा ५। पन्नरस <। राश्दाहिणे दूस। एयाए हेट्ठा मासगुरू ९। मासलहु २। भमिप्लमासों २। वीसा २। पलन्नग्रा २। दस २। सच्नदाहिणे पणगं | एयाप हेट्टा मासलहु २ | भिन्नमासों २। वीसा २। पत्नरस २। दस «। सच्चादाहिणे पंच | एयाए हेट्ठा भिश्नमासों २। वीसा २। पण्णएस २। दस २। सच्चददाहिणे पणगं। एयाए ऐेट्टा बीसा २। पन्नरस २। दस २।| सच्चदाहिणे पणग । एयाए हेट्ठा पन्नरस २। दस २। सच्दा 5 हिणे पणग। एयाए हेट्ठ। दस २। सच्दाहिण पणग। एयाए हेद्ठा पच। एयासि च तिरिया ययाणं घरयाणं आईए ज पय जहि अवगरे ठाविय तहिं चेवावराहे ताए पन्तीए पुरिसावेक्खाए सच्चे पच्छित्तपया चारेयच्वा | पवं विरहेए पुरिसविभागेण पणगाटी छसम्मासावसाणे निध्वीयाइ अट्ठुमभत्ततं पुध्ध भणियमेव । अहुणा पडिसेवणा भन्नर-- 20 ७४ 'आउट्टिय' गाहा | आउश्टिया नाम जं उवेच्व पाणाइवायं करेद | दप्पो नाम धावण- डेवणवग्गणाइओ, कन्द्प्पो वा दप्पो | परम्राओ नाम ज़ राओ दिया वा अप्पडिलेहन्तो' अपम- ज्यन्तो' य पाणाइबायाइयमाय ज्ञइ । कप्पपडिसेवणा नाम कारणे गीयत्थों कडज़ोगी उबउत्तो जयणाए पडिसेवेज्ञा । एसा पडिसेवणा। पडिसेवओ पडिसेवियघ्च च दोज्ि वि पडिसेवणाए सदयाई । तत्थ पडिसेवओ पुरिसो पडिसेवियच्च पुण दब्वाई। द्माटाराइ। खित्ते छिन्नमड 25 चेयरं वा। कालो ओम-दुब्मिक्खाइ। भावे ह्डूमिलाणाइ | एवं एय पंडिसेवियच्च। ७५, [ 'जं जीयदाण' गाहा। | ज॑ जीयववदारेण मए पब्छित्त भणियं तमणन्तरं सच्चे एय च्उठण्हपडिसेवणाण आउट्टियाइयाण कयराए पडिसेवणाए पडिसेविए दिल्लाइ?। सन्देह सम्भवे इम भन्नई--तइ्याए परमायपडिसेवणाएं क्ति। दघाइए पडिसेविए सेसपडिसेवणासु पुण कहं भन्नद | पत्तो अिय ठाणन्तर बढ्ेज़ा । एक । एत्तो क्ति जदाभणिय-पमाय-द्यण-पायच्छित्ताओ 30 एगद्ठाणबुड्टी कायघा । पम्राए निधीयाइ-अट्टमभत्तन्‍्त, दष्पेण पुण पुरिमाइ-दसमन्त होइ। ७६. “आउट्टिया' इच्चाइ। आउट्टि आसेवमाणस्स' एकासणाई दुवालसन्तं दिज्लर३। अहवा सट्टार्ण । पाणाइवाए सूल । सट्टाणं ज जम्मि वा अवराहे सच्वहुय तस्स दिज्वइ त॑ चेव सद्बाण होइ । कप्पपडिसेवणाए पडिसेविए पडिक्षमणं, मिच्छादुकडमिति चर भणिय होइ। अहबा तदुभय आलोयणमिच्छादुकड च | 6 क ७७. 'आलोयण' इच्चाइ । आलोयणकाले थ्रि जया शहर पलिउश्चर वा तया: सो संकिलिट्गरपरिणामो तस्स अहिय पुण्णं वा दिजाइ। जो पुण आलोयणाकाले संवेगमुचगओ निन्द्‌- ण-गरहणाइणा पिसुद्धपरिणामो तस्स ऊणमबरि देज्ञा। जो पुण मज्ञपरिणामों तस्ख तम्भी समेव देज्ञा । 4 एयाए पा । 2 9 >्लेहितो। 3 3 न्मजितो । & * आउष्टियाए सेव०। 5 8तदा। ४ जी० क० चु० त- 2 ० द्‌ नल २६ सिद्धसे नसूरिकया [गाथा ७८-८५- ७८. 'इति दघाइ इच्चाइ। इति एव दघ्खेत्तकालभावेसु चउसु वि बहुगुणेखु,' शुरुसेवा पहाणसेवा भण्णइ । एएसु बहुतरं देज़ा। हीणतरे हीणतरं' ति। दब्खेत्तकालभावा जहा जद्दा हीणा तहा तहा हीणतरं पच्छित्त देजा | सघहीणस्स झोसो वा कज्इ । ७९. 'झोसिज्जइ' इच्चाइ | झोसिजजइ त्ति मुख्चद | सुबहुगमषि जाव अन्न तय वहद ताव जइ 5 अनज्नमावजइ तो ते झोसिजर | जहा छम्मासपट्टविए पश्चहिं दिवसेहिं गएणहिं अन्नममावन्न- गो होज्ञा । पढमर्ग वहन्तस्स पच्छिम से झोसिज्ञइ । वेयावश्चकरस्स वा थोवतरं दिद्लाइ । जावइय॑ वहन्तो वेयावर्च कार्ड सक्केइ तावइय से दिज्ञइ | एय' तवारिहं भणियं ॥ अहुणा छेयारिहं भप्नइ-- ८०, तवगध्चिय' इच्चाइ। तवगधिओ छम्मासखमओ । अकन्नो वा जो विगिट्-तवकरण- 40 समत्थो--किं मम तवेण किज्ञई क्ति। तवअसमत्थो पुण गिलाणो असह बालबुट्डों वा। ते था जो न सदृहद | पुणो पुणो वा तवेण दिज्ञमाणेण विण दम्म३। अइपरिणामगो अइपसंगी वा | पुणो पुणो सेबेइ', सुबहु वा । एएसु जहुद्िद्ेस तवारिहावत्तीए वि छेओ चेव दिज्ञइ त्ति । पुधपरियायस्स देसच्छेओ कज्ई । ८१. 'सुयहुत्तर' इच्चाइ | खुबहुगा उत्तरगुणा पिण्डविसोहिमाईया | ते जो भंसेइ विणा- 5 सेदद, पुणो पुणो छेयावत्ती ओ करेद। जो य पासत्थो। आइसद्रेण ओसण्ण कुसील-संसफ्त-नीओ वा | जईण साहण संविग्गाणं | पडितप्पइ बेयावच्च करेद। बहुसो य अणेगसो | उत्तरगाहाप्‌ अत्थपरिसमत्ती होही '। ८२ 'उकोस'मिच्चाइ। उक्कोसा तव भूमी । आइजिणिन्द्तिस्थे संवच्छरं॑ । मज्यिमजिणाएं अट्टमासा | वीरधरस्स छम्मासा | एय उक्कोसं तवभूमी समई ओ ! जो तस्स छेओ सावसेसं च 20 से चरणं, तस्स छेओ पणगाईओ | भाइसद्वेण द्स-पन्नरस-बीसाई जाव छम्मासा। जावब॑ था घधरद परियाओ । छेयारिहं भणिय ॥ अहुणा मूलारिह भन्नई-- ८३. 'आउद्,िया' इच्चाइ। आउट्टियाए पश्चिन्दिय वहेज्ा। मेहर दप्पेण सेवेजा। सेसा मुसावाय-अदिज्ञादाण-परिग्गह्य ते उक्कोसेणं पडिसेवेद । आउट्टियाए पुणों पुणोय त्ति। 85 एवं जडुदिटट्टाणेसु मूल । ८४. 'तवगच्विय' इचाइ | तवगधिओ। आदसदंण तवअसमत्थों । तब असइहन्तो तन्रेण य जो न दम्मद | मूलगुणे वहुविह वहुलो य दूसेइ भजइ वा। एव उत्तरयुणे वि एस वश्यरों। दूसर्ण वा वमइ | दंसणे चन्ते नियमा चरित्त वन्‍त। चरित्तस्मि द्सणे भयणा। देसणे वा चरित्ते वा वन्ते चियत्तकिशयों | किच्चाइ दंसणाइईणि। तप्परिश्चाएण चियत्तकिश्चो। सेहेय त्ति 30 सेहो जो अभिणवों सिक्‍खे गाहिज्ञइ | अणुवट्टविओ | एपसि जहुद्दिद्वा्ं मूल । ८७. 'अद्यन्तोसन्न' भिच्वाद। अच्चन्तोसन्नो नाम ओसन्न-पव्वाबिओ | संविग्गेहिं वा पच्चा- वियमेत्तो चेव ओसन्नयाए विहरिओ जो, सो अश्वन्तोसन्नो | परलिंग दुगे--घरत्थलिंगं, अन्न- तित्थियलिंगं च । ते जो आउद्टियाए दप्पेण वा करेइ | मूलकम्मं--इत्थीगब्भादाणसाडण्ण जो करेइ | भिक्‍्खुस्मि य विहियतवे। विधिओ तवो जस्स सो विषियतवों | छेयमूले वि अदक्कमि्ड। 35 अणचट्ठुतवं वा पारश्चियतर्व वा । अदयारसेवणाए पत्त एएसि जदुद्दिद्वाण मूल सघेसि पि। ] 43 पुस्तके 'चउ . णेसु' एलद्राक्य नास्ति । 2-४ “जहा” आरभ्य झोमिजई' यावत्‌ पाठ ै. पुस्तके पतित । 4 .ठि एबं। ४ 3 करणल्‍्स० । 6 0 कज्३ । 7 ७ गिऊाणअसहुबालवुद्धा । 8-9'पुणो०! आरभ्य सेचेइ” पर्यन्त पाठ. 2५ आदर्श पतित + 0 33 द्ोइ। 4] 3 पणगादीतो। 2 58 उक्कोसगे । 8 ४ अणुद्दत्विओ । गाथा ८६-९१. ] जीयकप्प-चुण्णी ३२७ ८६. 'छेएण' इचाइ | छिज्ञमाणे छिजममाणे जया परियाओ निरवसेसो कछिल्नों, तदा से मूलं। अणचद्॒प्पतवावसाणे पारश्चियतवावसाणे' य मूल दिजइ। मूछावत्तीओ वा-पुणो पुणो आवज्ञमाणस्स मू् । एवं जहुद्दिहिकारणेस सधत्थमूल। मूलारिह भणिय ॥ अहृणा अणव्गप्पारिहं' भन्नइ-- ८७. 'उक्कोस'मिच्चाइ | तदो (ओ) अणवट्गप्पा पन्नत्ता, ते जहा--साहम्मियाणं तेणं करे- 5 माणो १। अन्नधम्मियाणं तेणं करेमाणो २। हत्थादाण दकयमाणों ३। उक्कोस सचित्ताइयं। तेणेइ-पुणो पुणो तेणेइ। अहेव पउद्डचित्तो संकिलिट्टचित्तो ज्ति कोहलो होइ। पडदड्न्‍डचित्तो तेणेद। सा य तेणिया दुविहा-साहम्मियतेणिया, परधम्मियतेणिया य। दक्ओ खेत्तओ कालओ भावओ य । सचित्त-अचित्त-मीसया दघे। अन्नसंजओग्गहियखेत्ते अणणुशन्नविण अब- त्थाणं खेत्ते। काले जहिं करेइ | मावओ रक्तदुट्टो । अन्नधम्मिया दुविद्ा--लिंगपषिट्वा, मिहत्था 30 य। तिबिहं तेणमेतरेंखि आहारो उक्ही सचित्त वाप्वहरद् त्ति | हत्थादालो गहिओ, सो य ति विहो-भत्थादाणो, हत्थालस्वो, हत्थातालो । तत्थ अत्थादाणो नेमित्ति ओसन्नागारिया भध्वगप- डिभग्गवणियपेसणरुयगसउणी । बीइओ' उचणओ नउलगमेगो' घयगुरूमंतों वसतणकट्ठा- वाहिं अन्नो य सडणिगणिसित्तं। हृत्थालस्वों असिवपुररोद्उचसमणत्थमभिचारगाई” करेह। इत्थातालो जद्ठिमुट्टिलडडो पलपद्दाराईहिं मरणभयणिरवेक्खो अप्पणो परस्स य पहरद् | सपक्खे 5 च सद्देण परपक्खे य | घोरपरिणामो निरणुक्रोसो त्ति | ८८ “अभिसेओ' इच्चाइ। अभिसेओो उचज्ञा ओ। जेसु जेसु अवराहेख पारश्चियमावक्ञाइ । बहुसो अणेगसो। आवन्नो थि अणवद्गप्पो कीर्‌इ। कि कारण | जेण अणवट्ट॒प्पपारश्चियमावच्न- स्साबि मूलमेच दिज्ञइ भिक्‍खुणो | जेण तस्स परं मूलट्वाणं भवति । तहा उवज्ञञायस्साथि पर अणवद्गप्पपयं, अणवष्टप्पावत्तीओ य | जया बहुसों आवज्ञइ तया य अणघद्गप्प दिझ्ञएई। 20 ८९. 'कीरइ' इच्चाइ | वएसु लिंगेसु वाः जम्दा न ठाविद्भद तम्हा अणवदह्ृप्पी । सो य अण- यद्वप्पो चउडधिद्ो-लिंगओ, खेच भो, कालओ, तव॒ओ'"। लिंग दुविहं--दछ्चे भावे य। दघलिंग रभोहरणाइ'" । भावलिगं महध॒याद | एत्थ चउसभंगो । अणन्तरगाहासम्बद्धा इमा गाहा-- ९०. 'अप्पडिविरय' इचचाइ । सपकक्‍्लपरपक्‍खपडुद्दों तेणमाइदोसेहिं! अप्पडिविरओ सपक्ख-परपफ्ख' पहरणुजुओ । निरबेक्खो अणुचसन्तवेरों जो। सो द्घभावलिंगेहिं दोहिं वि 26 अणबह्पो । हत्थालम्बो, अन्‍्थादाणो', ओसण्णाइया य तहोसाणुबसन्ता न भावलिंगारिहा । द्घलिगमत्थि तेसि, मावलिंगेणाउणवद्गप्पा । खतेत्तओ अणदद्वुप्पो जो जम्मि खेत्ते दोसमावन्नो सो तम्सि खेत्ते अणबद्ृप्पो । जहा अत्थादाणिओ तम्मि चेव खेत्ते देसे वा न उबद्ठाविजञद | कि कारण पुवच्भासा लोगो पुच्छेज्ञा । सो वा त॑ इड्चिगारवमसमत्थो धारेडं । तेण अन्नत्थ उबद्वाविज्ञद | उत्तिमटुपडिवन्नस्स वा तत्थेच भावलिग दिज्द । 30 ९१. 'जत्तिय'सिश्वाइ। कालतो' अणव््गप्पो जो जेत्तियं कार अणुबरतदोसो” सो त- त्तियं कार अणवद्॒प्पो। तब-अणवट्गुप्पो डुविहों--आसायणा-अणवहुप्पो, पडिसेवणा-अणवद्गप्पो य। तरथासायणामिमेसि करेज्ञा । तिन्थयर-पवयण-सुय-आयरिय-गणहराणं महिट्ठियाणं । जदा सब्बोधायकुसलेहिं अदकक्खडदेसणा कया। जाणन्ता य कि घरवासे चसन्ति, भोगे य भुञजन्ति। तहा इत्थीतित्थे । संघमहिक्खिव्‌इ “पडिणीयताए वा बद्द३ । अहवा भणइ अज्ले चा संघा अत्थि 35 ! पतितमेतद्वाक्य /. आदरशे। ४ ै अगह्रप्पारिह । 3 [3 निमितिदोसण्णगायरिया । 4 -3 बीइदो । 5 2. नउलमेगो। 6 / चारुगाइ। 7 3 हवइ। 8 3 छिंगे वा । 9 5 भावओ | 0 73 रयहर० । | 9 पडिपक्ख | 3 73 हत्यादा० । 3 9 वन्दाणितों। 73 8 पुच्छिज्ञा। 45 3 कीलओ । 6 2 अणवरयदोसो। 7 2. 'पढ़िणी०” आरभ्य ०“खिब३” पर्यन्त, पाठो तोपकश्यते &. आदर्शे । २८ सिद्धसेनसूरिकया [गाथा ९२-९५ सियालसुणगाणं विगाणं ति। एवं सुय्य अहिक्खिवइ-पायय ति। थाणे थाणे वा काया, पुणो पुणो बा घयाणि, पम्माय-अप्पमाया वा। मोक्खदेसणाए जोइस-जोणिषाहुड-गणितेण वा कि पओोयण्ण | तहा आयरियं जच्चाईहिं. अहिक्खिवइ । तहा गणहरं महिद्नियं | महिष्टियगहणेण 838 गहिया । जो वा जम्मि जुगे पहाणो तमहिक्खिवद । इ्टिरससायगरुया, खुहसाया, ह 'ज्ञुया मंखा इव, गिहिबच्छछगा न जईणं ति' एवभाईहिं आसाएन्तोँ अणवदगप्पं पावेइ। एस आसायणा-अणघट्टठप्पो। पडिसेवणा-अणवट्ठप्पो इमेहिं कारणेहिं--साहम्मिय-अन्ष- घम्मिय-तेणियाए हत्थादाऊणादीहिं य आवज्ाइ। तत्थ आसायणा-तवअणवदष्पो जदन्नेण छम्मासा, उक्कोसे्ण संचच्छरं | पडिसेवणा-अणबद्भप्पो जहज्नेण बारसमासा उष्कोसेणं बारस संवच्छराणि, इमाए गाहाए भिन्नई(-- 0 ९२, 'चार्स बारस' इच्चाइ। सो य जइ इम्रेहिं गुणेहि ज्त्तो तो अणवद्गप्पतव पडिवद्भाइ | संघयणविरियआगममुत्तत्थविद्दीप जो समग्गो उ। तबसी निग्गहजुस्तो पवयणसारे अषिगयस्थों ॥ तिलतुसतिभागम्ेत्तो वि जस्स असुहो ण विज्ञार भावो । निजञ्ञहणारिहो सो सेसे निञ्जूटणा णत्थि ॥ ॥8 एय गुणसंपउत्तो पावदइ अणवद्ुमुत्तमगुणोहो । एय गुण विष्पह्णे तारिसगर्मी भवे सूल ॥ एय॑ं ता उस्सग्गेण। अवबापएण' पुण कुलगणसंघकज्ााई तेणाधीणाइ' सिंदणाइय कर्ज वा पसाहियन्ति तो थोव थोवतर वा से देजा' | संघोचा से सव'मेव मुश्चेजञा'' | तस्स पुण अणवद्गप्पतव पडिवज्ञमाणस्स वो विही ? कि वा तब करेइ क्ति। एत्थ गाहा ।-- 20. ९३ 'वन्दद' इच्चाइ। गणनिक्खेबसित्तिरियं का परगण पडिवज्जइ। पसत्थद्खखे- प्त-काऊ-भावेसु । पसन्धदत्े, उच्छु- वणसंड-पड मसर-चेद्यघराइस खेत्त, काले सुहदिवसे भाव ओ समञ्झागय रविगयादय मोचुं आलोयण पउअआइ। काउस्सग्गो कीरद निरुवसग्गनिमित्त सेसाणं” भयजणणणिमित्त च। गच्छेण सहवासो एगखेत्त, एगउवससए, एगपासे, अपरिभोण अच्छर । सेहमाइए वि चन्द्र । ने पुण ते ण बन्दन्ति | परिहाग्तवो गिम्ह-सिसिर वासाखु जह- 9 प्मज्किसुक्कोसो । गिम्टे चउस्थ-छद्ठ-द्रमाद । सिसिरे छट्ट-ठुम-दसमाई | वासाखु अद्ुम-दसम-बार- सनन्‍ताई । पारणए अलेबक्रड | संखेचओ अणवबड्डप्पारिहं भणिय ॥ अह्ुणा पारश्वचियारिद्द भनप्नइ -- ९७. “निः्थंगर' इचार | तिन्थगराई जहा अणवद्र'पे तहा इह पि भाणियघ्तों। गणहरों तित्थगराणन्तरमीसो, सो महिड्डियगह णेण गह्तिओ जो । जहिं जुगप्पह्याणो । आयो छामो संपत्ती 30 य एगट्टा। तस्स साइणा आसायणा। जद्दा जहा अभिनिवेसेण हीलेई तहा तहा आयस्स साडण्णं करिन्तो पारश्चिय पावद । ९५. 'जोय सलिंगे' इच्चाइ | तओ पारश्िया पन्नत्ता' त-जहा--दुट्टे पारश्चिए, मूढे पार- जिए, अन्नमन्न करेमाणे पारश्चिए। दुद्दों दुबिहों-कसायडुद्रो, विसयदुट्टो य। सपकख-परपक्‍खे चउभंगो। सपक्खो समण समणी | परपक्खो गिहत्था। तत्थ कसायदुद्टै उदाहरण '-सासवनाले 35 मुद्णन्तए य सिह्रिणि उल्युगच्िछिओ त्ति। त्रिसयदुट्टे वि चउभंगो | तत्थ दुबिद-दुद्ढों वि पढम- विश्यभग्रे वद्ठमाणो लिगओ पारज्ञी | तईए अदसई देज्ा। अणइसई न देइ लिंग। रायवहमो । 3 ब्यदेसु०। 2 2 तु। 3 73 एवम्रातीहिं आसादितो। 4 ४ भिन्नत। 5 अप्भो । 6 /० बाए पुण। 7 .3 तेणहीणाई 8 8 सिंगणा०। 9 ॥ दिजेज्ञा। 0 / संघो- वासब्व०4 3+4 ४ मुचेजा। 2 सेसा,.,मित्तं इ! एतद्वाक्य * जाद्श नास्ति। 3 ४ उयाह०। गाया ९६-१०२« ] जीयकप्प-चुण्णी २९ जहा उदाइमारओ अक्नो वा। राइणो वा अग्गमहिसि पडिसेवेइ | अम्गमहिसिग्गहणेण अन्नावि जा इद्दा । च सद्देण जुवराय-लेणावइमाईएणं वा अग्गमहिसीओ । बहुसो पुणो पुणो य। लोग- पगासो य जो स पारश्िय पावद। इयरासु महिल'स पुण कि न पारश्चिओ ? भष्नइ--बह अवाया रायर्गमहिसीए | कुल गण-संघ-आयरिय-पत्थारनिधिसयाई या दोसा ज़ओ पहवन्ति त्ति । इयरम- हिलासु पुण वयमंगदोसो, एगरुस य अवाओ होजा तेणं मूलं। 5 ९.६. “थीणडि'इच्चाइ । थीणडी दरिसणावरण-कम्मसेओ निद्ा-पणगस्स । अइसंकिलिट- परिणामा थ्रीणद्धी । पड़ट्र॒पुध्राभिलसिओवरि सुत्तो वावारण केसवबलद्ध चर जायए। उदाहरणाइं--- पोग्गलमोयगदन्ते फदठसगवडसालभंजणे चेव । एवमाई उदाहरणा । अन्नोन्नासेवण--अश्नोन्नाहिटद्राणासेवणन्ति भणिय होइ। तत्थ पार-0 थ्िय । बहुसो पुणो पुणो य तेसु पारश्वियावराहेसु पगरिसेण सज्ञण पसज्ञण जो । ५७. सो कीरद' [ इच्चाइ ]। सो य पारश्चिओ चडघिहो-लिंगओ, खेत्तओ, फालओ, तबओ। तत्थ दद्च-भावलिंगे चउभंगो | थीणद्धिमहादोसो | अशभ्नोन्नासेवणा-पसत्तो । रायवहओ भग्गमहिसीपडिसेवणाइएसु अवराहेसु उमयलिगेणावि पारश्ची । ९८-९९, 'वसहि' इचाद । जत्धुप्पन्नो' इच्चाद। खेत्तपारश्चिओ जो जम्मि खेत्ते दूसिओ5 अच्छमाणो वा दोसं पावेज्ञा । वसहीप एवं निवेसण-पाडग-साही-निओग-पुर-देस-रज्ञाओो य जत्थ जत्थ दोसमावज्नों आवज्ञिस्सइ वा ताओ ताओ' खेत्तपारश्चिओ कीरइ । १०० “जत्तियमेत्त' मिनच्चाइ | जो जावईय काल अणुबसन्तदोसो, दूसद वा जावईय काल सो कालपारश्चिओ | तवसा पारश्चिभो दुविहों--आसायणापार श्विओ, पडिसेवणापारश्ि ओो य। आसाथणापारश्चिभो तित्थगराइ द्वाणेसु । घिभासा पुप्ठभणिया। पडिसेवणापारश्चिओ तिविहो- 20 डुड्ठे पारश्चिए, पमत्ते पारश्चिए, अन्नमज्न करेमाणे पारश्चिएण । दुद्ोे दुविहों-कसायबिसए्हिं पुष्ठभणिओ । पमत्तो पश्चविहों-'कसाय-विगहा-वियड-इन्दिय-निह-प्पमाय” इति । एए भाणियव्वा वित्थरओ। अक्षमन्न करेमाणों पुछघमणिओ। आसायणापारश्चिओ जदपब्नेण छस्मासा, उक्कोसेण संवच्छर ! पड़िसेवणा-पारश्चिओ जहप्नण' बारसमासे डक्कोसेण बारसवासा । संघयणाइया गुणा जहा अणवह्गप्प, तवो वि तह चेव । 95 १०१, 'एगागी' इच्चाइ | जिणकप्पियपडिरुविओ खेत्तबाहिं ठाइ अद्धजोयणवाहिरओ। जओ बिहरइ आयरिओ तओ तओ सो वि विहरइ। खेत्तओं वाहिरओ ठियस्स आयरिओ पददिवर्स, अवलोयणं करेइ। सुत्तत्थपोरिसीओ दोज्ि वि दाउ गउछइ तस्स समीर्च । अहवा अत्थंपोरिसि अदा गचछद | अहवा दोन्निधि अदाऊण गचछइ। अहवा इडुब्बछो, असमस्थों तदुरं गतु, कुलाइकज्ञेहि वा वावडो, ताहे गीयस्थं सीसमन्न वा पेसेइ । भक्तपाण चायरियस्स 30 आयरियपेसवियस्स वा ज़त्थ गओ अन्तराले वा से उवणेन्ति | पारश्चिओ वि भत्तपाणाईये पडिलेदणुघत्तणाईं वा अगिलाणो सयमेव करेइ। अह गिलाणो तो आयरिओ अक्नोवा से भत्ताइ आहारइ उच्चत्तणाइयं पि से कुणइ। सुक्तत्थेश्ु आयरिओ अन्नोवा से पडिपुच्छग देइ । एवमेय संखेवपारश्ियारिदं भणियं। १०२, “अणवद्गप्प' इचचाइ | तवअणवद्गुप्पो तवपा रश्चिओ य भदबाहुसासिस्मि चरिमचउद्दस- 35 पुषधरे दो थि वोच्छिन्ना | लिंग खेत्त-कालाणवदुप्प-पारश्विया ताव अणुसजिजन्ति जाव तित्थ। ]98जओय हबन्ति । 2 2५ भावजो । 3 8 तातो तातो। 4 2 वित्वरयेण । ५. >-<मउ०>५2५2५2 ५ >७०-०त-> >> 2५25० 2वरन-ल्‍न्‍ १ 2१ ३५०-रप-जतलन मनन जजजी पार पनपसररन्‍सज मी मरजाजम ले. "॑जजी नजर न्‍पससजीजउ पर सिद्धसेनसूरिकया [ गाया १०३. १०३. इतिएस' इृश्याद। इतिकरणो परिसमतक्तिवयणों। एस इति अणन्तरुदिद्ो जीय- कप्पो जीयववबहारों कप्पो। वण्णणा परुवण त्ति एगट्टा। समासओ संखेवओ। सोहणं विहिय॑ जेसि नाणाइय ते सुविदििया साहू। तेसिमणुकंपानिम्रित्त। कहिओ अक्खाओ। देओ दायघो अये पुण। कहिं! पत्ते । किंविसिट्दे ? संविग्गवज्ञभीरू, परिणामगकडजोगी, आयरियवन्नवादी, संगहसीलो, 5 अपरितन्तबहुसुयमेद्दावी; एवमाइगुणसंपन्ने पत्ते। पुण सद्दोप्वधारणे । पत्ते चेव दायधो, नापत्ते | खुद्दु परिच्छिया गुणा जस्स । एए चेव संबिगगाई भणिया गुणा । आइमज्ञझावसाणेस ताव-ज्छेय-निघसेस्सयु य जश्वसुवन्नमिव अधिगारि जं, ते सुपरिच्छियगुण, तसम्मि खुपरिच्छिय- गुणे सु्तत्थथओ देओयमिति । इति जेण जीयदाण साहण5इयारपंकपरिसुद्धिकरं। गाहाहिं फु्ड रइय महरफ्यत्थाहिं पावर्ण परमहिय ॥ जिणभदखमासमणर्ण निच्छियछुत्तत्थदायगामरूचरणं । तमहं बंदे पयओ परम परमोवगारकारिणमदहम्ध ॥ ॥ जीतकल्पचूर्णि; समाप्ता। सिद्धसेनकृतिरेषा ॥ ३७० 0 श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता जीतकल्पबृहचूणिविषमपद्व्याख्या नत्या भरीमन्मद्ावीर॑ स्वपरोपकृतिहेतवे । जीतकल्पबृहश्ृर्णव्योण्या काचित्‌ प्रकाश्यते ॥ अधादों शाख्रारम्मे विप्रोपशमनायेश्देवता-गणधर-स्थविर-प्रवचनाना यथाक्रम वर्णनाय रूपकचतुष्टयमाह-«« १. 'सिद्धत्थे त्यादि। सिद्धा निष्पन्ना अथी प्रयोजनानि यस्य ज्ञानावाप्ती सत्यां स सिद्धाथे , समाप्तकर्तव्य इत्यर्थ । सिद्ध प्रसिड शासन सघो यस्य स तथा। सिद्धा अनादिप्रवाहतया नित्या प्रसिद्धा अर्था जीवादयो यत्र श्रुते तत्‌ सिद्धार्थ तच्छृतं यस्थ । तत पदत्रयसस्‍्थ कर्मंधारय । सिद्धार्थस्य राज्ष स॒तं चापल्म्‌ । कम्‌ ?-वीरेभ्योइति- क्रान्तेश्यो वर श्रेष्ठ, उपसंगादिसदनप्रत्यलत्वाद्वीरवरस्तम्‌ । वरा श्रेष्ठा वरा ईप्सितार्धलाभरूपास्तान्‌ ददाति यस्तम्‌ । वरा देवादयो यतयश्व तेभ्यो वरका प्रधाना ध्राक्राययो गणधराश्व तैमेंहितं पूजितम्‌ | नमत भ्रणमत दें जना ! जीवे भ्यो हित्तो मोक्षप्तागप्रद्शाकत्वेन स तथा, तम्त्‌ ॥ २. एकादशापि गणधरान्‌ दुधरगुणधारकान्‌, धराधिपो मेरुस्तद्वत्सारा अचलत्वात्‌, तानू, चस्य गम्यमान- त्वात्‌ जम्बुप्रभवादी समस्तसूत्रधरान्‌ सूरीन्‌ प्रणमत ॥ ३. दशपूर्वधरान्‌ नवपू्वंधराथ, अतिशयिन अवधिमन पर्यायज्ञानिन , अवशेषज्ञानिनश् मतिश्रुतज्ञानिन ; यल्नन सवीनपि यततिग्रुणप्रवरान्‌; सर्वकाल त्रिकरणशुद्धेन भावेन नमत ॥ ४. इत स्थविरनभस्कारादुध्वे प्रवचन नमत। निवंणाह्नप्नित्येतदेव व्याल्यानयति। निर्वाणस्थाई कारण जीवाना तदहूमक॒त्वात--तत्प्रापकत्वादित्यर्थ । निर्वाण मोक्ष गमयति ५ प्रापयाति जन्तून्‌ निवोणग्तिति प्रापे--अलु- खारो5लाक्षणिको निवाणज्ञमिति | श्रवचनमित्यस्थार्थमाइ--प्रकर्षण गत स्थित जीवादिवख्तुवाचकतयेति श्रगतम्‌, भआगामिफलजननसमर्थ यत्तत्‌। प्रशस्त वर्णादिगुणोपेत कष्टप्राप्प च थत्तत्‌ । प्रधान--तथा च दधिदूर्वादयः प्रशस्ता उच्यन्ते न तु प्रधानानि, प्रधान पटादिरपि भवति न तु प्रशस्त इति व्यवहियते, इत्यनयोर्विशेष- । ततः प्रशस्तानि ससारोत्तारीणि बचनानि यत्र तत्पशस्तवचनम्‌ । प्रधानानि द्व॒व्याणि वचनानि यत्र तत्प्रधानवचनम्‌। इत्यथैत्रयोपेत प्रवचन नमत !। ५, अधुना जोतकल्पसत्रकतुजिनभद्वगणेवेणेनाय 'छोकषद्रकेमयं कुलकमाह--नमहेत्यादि--तं जिनस- भवदक्षमाञ्रमर्णं च नमतेति योग । शेषाणि तद्विशेषणानि। युगप्रधानमिति--तत्कालीना आगमपार्थवेदिनः पुरुषा युगमभिप्रेत तेघु प्रधानस्तम्‌ । प्रधानज्ञानिना बहुमतम्‌ । सर्वश्रुतिशात्ञाणि शब्दशात्नप्रशृतीनि तेषु कुशरू तद्देदिनम्‌ । दशनशज्ञानयोर्योडसावुपयोगमार्यस्तत्र स्थित तत्परम्‌ ॥ ६. जस्सेल्यादि--यस्य पादपझ अप्तरा इब भुनिवरा यतयो रात्री च दिवा च सेवन्ते सदा नित्यं ते नम- तेति योग । अनन्यसाधारणविशेषणसामध्योदनुक्समपि विशेष्य लभ्यते । कीदशा अ्रमरा १--मकरन्द' किज्षल्क- सत्र धृषितास्तत्पिपासव. । यतय कीदशा-?--ब्ञानमेवाज्बानब्वादिभेदभिन्नं मकरन्दस्तत्तषितास्तदू द्वीतुमिच्छव । पुनः कीटशा अमरा./--अमृतमयवशगन्धामिवासिता --अम्रत जले तेन निवृत्तममतमय पद्मम्‌, तस्य वशो5घीनो यो गन्धस्तेनाभिसामस्त्येन वासिता आहूता शब्दिता इति यावत्‌ । वास्शब्दे--इत्यस्य ख(?)रूपम्‌। यतयः कीहशा *--मुखमेव निर्झरोइपा प्रसवस्थानम्‌, तत्नाम्तमिव यन्मत जिनागमस्तस्थ वशोडघीनों यो भ्न्षा परिमल माहात्म्यहपस्तेनाभिवासिता --तदाहृमानसा इसये ॥ ७, समयशब्द आचारार्थो5त्र, तत खाचार-पराचारयो श्रतिपादको य आगम शाज्निवदस्स च । लिपयश्चाश्टाद्शभेदा. । गणित पाटीगणितादि । उन्दांसि च पिड्नलादीनि । षब्दशाज्नम्‌ [ व्याकरण ]। तैनिर्मितो जनितो गश.पटहो दशस्पि दिक््वनुुयोगविषयेधनुपमों यस्य भ्राम्यति त॑ नमत ॥ ३२ श्रीचरद्रसूरिसंरचिता [ १-26. २-2१ <., तथा, येनानुपममतिनाइड्वश्यके ज्ञानाना मद्यादीना विशेषा विशेषिता कथिता अविशेषत सामस्‍्त्येन। श्ञानिनां च विशेषा, प्रमाणाना विशेषा विशेषितासतथा गणधराणां च प्रच्छा येन विशेषितास्त नमत॥ ९. येन छेदसूत्रस्था प्रायक्षित्तानामापत्तियों सविधिनियृंढ । भआचार्योपाष्यायादिक पुरुषविशेषमश्रित्य सफुट प्रकट । केन छत्वा दानस्य विरचना तया यत्स्तेन । क् जीतेन दान तस्य कत्पस्तन्र | अन्ये तु येन छेद- श्रुतार्थान , कथभूतान-आपत्तिदानयोर्विरचन यत्र, तस्मात्‌ जीतदानकल्पविषययोविधि पुरुषविशेषमाश्रित्य हुफुटो यत्रेन नियुढ़ उद्धतस्तं नमतेति, व्याचक्षते ॥ १७-११ भूयोपि परसमयवेदित्व विशेषतस्तस्माह--परेल्यादि--सुपमिता ये सुश्नसणास्तेषा य. समा घिमागे प्रतिदिनाचरणीयमलुष्ठान तेन क्षमाप्रधाना ये श्रमणास्तेषा निवानमिवकम्‌ , अनेनानेकसुद्दिष्यसपत्समन्वितरव तस्माह । त नत्वा । मदमथनम्‌ । मानारिहति मानारिहस्तम्‌। शेष सुगमम्‌ | सकन्धक छत्द सेरूपकेपु, आयो- गीतिरित्यपरनामकम्‌ । पृ० पघ्‌० (्‌ प्ृ०ष्टम , पं०-पंक्ति ) १--26. फोवीत्यादि--भाचारचूलात्वानिशीयस्माचारपदान्‌ परत उपादानम । ५५27 वधहारमाइयन्ति--आदिस्रहणादू भगवद्यादिपरिप्रद । »-73 , [नाणाइयारेखु ]|--तानातिचारेषु का आपत्ति । आवन्ती पायच्छित्तणमम्पन्ति! प्रायश्रित्तयी* ग्यता इब्थथ | कम्मिवत्ति--कस्यामापत्ते! अपरिमूट सम्‌ । २--2 कप्पियाइएहिन्ति--पिण्डघणा-व्त्पणादिकत्पा येनार्थत सूत्ररश्चाम्यला से कन्पादिगुणोपेत उच्यते । [ अपत्तापत्त |--अपात्रमयोग्य भश्राप्त श्रुतेन वयसा च। येन नावीत थ्रुत सोषप्राप्तश्ुत्त । [अवत्त |--भव्यक्तो वयसा पोडशवर्षाणि यावत्‌, तदूध्वे व्यक्षत प्कृ्रश्चथ । [ तिन्तिणिय ]-- तिन्तिणिको झिगिन्निगिणस (स्व) भाव । [ चलचित्त |--सम्यक्वादिपु योजस्थिर स चरूचित्त । तथा चायोग्य उक्तो यधा-- विन्तिणिए चलचित्त गाणगणिए य दुब्बलचरिते । आयरिय पारिभासी वामाबः ये पिसुणे थ ॥ »+ 9. [कयपवयण ]-प्रोच्यन्ते तेनेति प्रवचनम्‌ । बफ़्तीति सबदतीति वा प्रवचनम्‌ ) श्रतिशवचन बा प्रवचनम्‌ । प्रवचने योगानन्यन्वात्‌ सहृस्य सर्वपक्षण्वपि सद्द एवं प्रवचनशब्दवाच्य । यत --प्रवचन श्रुतमुच्यते। तन्च भावश्रुतमुपयोंगरूपम्‌। श्रुतोपयोगश्व न निराध्रय इति प्रमचना श्रयत्वास्सट्र प्रवचननममिधीयते। अन एवाइ जेण त॑ सुयमित्यादि तद-सह्दोपयोगात्‌ । »- 4. वच्तणुवत्तेत्यादि--शत पात्रवन्धग्रन्बिदानादिक । एकदा नवों जात । ततोष्चुगत्त एकपुरुष बावतू । तत प्रदत्त पुरुपप्रवाहेण । अत एवं बहुग आसेवितों मद्दाजनेन । भाध्यकृता उउ्तमू-- घत्तो नाम एककस्सि अणुवत्तों जो पुणो त्रिधयवारे । तईयवाग्पवत्तों, परिग्गहीओं मदहणेणति ॥ १ ॥ ॥7 5. सोहणन्ति--शोधकम्‌ । मस्याई--घिग्जातय । कत्थद क्षि--ठविजातिवधे । »772., [ पलाख-खार।दगाड़ ])-पहासक्षार॑ थ उदक व । श्रादिप्रदणादरिश्रकादिप्रद, तद, यथ! वस्नमल शोधयति । »४“25. विसेसण्ण चर सदर्संभवे--यथा विद्यावान्‌ धनवान्‌ गोमानय वर इल्लादिपु प्रशस्तातिप्रचुराइ- ननन्‍्यसाधारणविद्याधनगवादिबस्तुसद्भधावेन यवाविशेश्व विशिष्यते विद्यादिभिस्तदा तत्तत्र सम्भवि विशेषण ज्ेयम्‌ । व्यमिचारे नीलोत्पलमित्मत्र नीलविशेषण रक़्तोत्पलादेरपि सम्भवाद द्रव्यव्यवच्छेदाय नीलपदम। एवमिद्ापि शेषागमादिव्यवद्दारसम्भवात्तदवच्छेदाय जीतपदम्‌ । 7729, [केवल-मण-ओदिणाणीति ]--केवछ-मण-थो द्विणाणीत्यत्र अवधिद्विधा--भवप्रत्ययः क्षायो- प्रशमिऊश्व । तत्राद्यों देवनारकाणाम्‌ । तत्राय॑ विशोष --- उपञमत्तेण उ खछ भवपत्चईओ ह्वि जत्तिओं विसओ। सब्ब ते ओभासई न य बुड्ली गन य हाणी [हि] ॥१॥ गुणपच्रइओ आद्वो गब्भजतिरिमणुयसपमोत्तृण । कम्माण खजोवसमे तदवरणिज्ञाण उप्पल्ये ॥ २ ॥ २-४0. ३-॥0 ] जीतकल्पचूर्णि-विषमपद्व्याख्या ३३ सह्यातायुप्कगर्भजतिर्यडमनुष्यान्‌ झुक वा न झेपाणा क्षायोपशाम्तिकावधिसम्मवों युगलधर्मिकाणाम्‌ । अवधिर्मू- तिंमडव्यनिषय । अत यदा केवली ग्राप्यते तदा तदग्रतो दीयते । तदभाचे मन पर्यायज्ञानिन. समीषे । तस्थाप्य- भावे अवधिज्ञानिन इत्यादि यथाकम वाच्यम्‌ । २--30. अवसेस-पुव्वीक्ति--अवशेपपूविण --अ०-सप्ताथ्षेक-तदद्धोन्त यावत्‌ । २-३, निशीथ-कल्प-व्यवहार-दशाश्रुतस्कन्ध-पश्चकरप-प्रछृतिक शेप श्रुत सर्वेमपि श्रुतव्यवद्दार । तदुकक्‍्तम्‌ू--आयारपकप्पाई सेस सब्व सुय विणाहद्र! सिति। चतुदशादिपूर्वाणा श्रुतत्वाविशेषेष्प्यतीनिद्रयार्थेघु विशिश्ज्ञानद्वेतुत्वेग सातिशयत्वात्‌ केंवड'दिवदामसन्त्रनव तान व्यपदिश्धनि। यत आगम्यन्ते परिच्छियन्ते अतीरिद्रिया पदार्था अनेनेत्यागम्त उच्यत । २--32. तथा आजायत आदिश्यत इल्याज्ञा | तद्गूयब्यवहारस्तु केनापि शिष्येण निञ्रानिचारालोचकेन आलो- चनाचाये सन्निद्दितोष्षाप्त , दरे त्वगा तिष्ठति । तत कंनचित्कारणन स्वग्न तावन्तन्र गन्तु न शक्तोति । अगीतार्थस्तु कृश्षित्तत्र गन्‍्ता विद्यते | तस्य हस्त आगमभापया गृटानि अपरावपदानि लिग्यित्वा यदा शिष्य प्रस्थापयति, गृरुरपि तयैव गृढपद(द )प्रायशित्त सिगिण्वा प्रेपयति तदासा आज्ञालक्षणस्तृतीयों व्यवद्दार । तद यु(दु)क्‍्त 'दिसन्तरहियाण गृटपयालोयणा आणा ।' गृटपदानि च दशयिप्पति चूणिद्ञत्‌ू । जहा-परढमस्स य कजम्मेत्यादिना ॥ आखेचि- यसन्थत्य त्ति--अभ्यस्तगासत्राथा । £ २--३३ दृरदेशान्तरनेवासिता | मइधारणा-कुसले ति-सन्दिए्यस्तुनयनसमर्वम्‌ । २--३+ गूटाबयाक4 । डपासेवना|पद्मक्म, अपर च कायासेवनरूपम्‌ । तत कब्पासेबनह्ितीयपदा- पेक्षया दर्पामिवनलक्षण प्रथम पडमू्‌। तत्रापि दर्षसिवने दशपदानि दपात्पनिरालम्बनादी नि | तेषु मध्ये प्रथमपदेन दर्षलक्षणन पढ़ेनि च ब्रीणि । दत प्रवमपद्क जतपदुल्प्षणम्‌ । अन्यन्तरतन्मध्यवार्ति तत्र पठितमिव्यर्थ । तत्रापि च्‌ प्राणातिपाताबीनि पढ़ स्थानानन । तपु मध्ये प्रथम स्वान प्राणातिपातरझूपम्‌ , आपन्नमित्येव गृढ़पदेन प्राणाति- पातातिचार ! हएवान्‌ । प्रयमपद़्े टितीयाहिस्थावष्वतियशलार -- २--३5 पढमेत्यादि। सेसेखु वि ज्ि-्वितीआादपु सपावाः डेपु स्थानेपु इस्ब बाच्यम्‌ । द्वितीय पहूं कायपड्ुलक्षणम्‌ । तत्र प्रथम थे स्थान प्रथिरीयायदिपयन्‌ , अपाणि च पढ़ाती अप्फापादीनि। तेपु तृतीय पह् भकल्पगहभाजनादि-शोभावयलनपर्थन्तलक्षणप्‌ । तन्न पिण्ट उग ये यक्कपत्ररप चअतुट्य यदनेपणीय तदकत्प्यम्तू । क्रोटकक्शपा त््यादिय ये गृहभाशनम ' आनदस्मविकादि पत्यपृरूपम | मिला गतेन सयतेन गृहे नोपवेश्व्यमित्येव निपद्मावजनमुच्यते । झ्लानवर्जन पश्चमम्‌ । भवन पढ़ भति । स्थान न्यक्षेण व्याख्यास्यते गाथेयम्‌ । तत्र प्रथमस्थानमयल्पठक्षणम । २--३७. सेसेसु थि पएसु ज्ञि--शेपाण पढने एहमाजनदीनि तेपु | इदानीमतिदेशमाह-प्रथमपदद दर्पलज़णममुप्नता तत्नरत्र थाने अउत्पनिराठम्बनादी।न उ्रिलीयनुतीयादीनि पदा।न नि शद्पर्यन्तानि तेषु वाच्यम्‌ । यथा पढमस्स य कज्स्सा विदण्ण पएण सेवियं ज च्व । याप पृर्ववत्‌। तत तइएण पएण सेवियं ज॑ चेल्यादि । यापद्‌ दृुसमेण पएण सेविय जं च त्ति | इत्वेव प्रवम॒पक्ुमाश्रिश् चारणीयम्‌ । भूयो&पि द्वितीयपक्कमाश्रित्य तृतीयषद् चाज्रिद्धत्वमेव चारगानव प्रावद्ृशमपदमिति । जत एवंह--- ३--$ पुढ़विकायाइसु क्ति। अपिशब्दोष्च्र दह्यस्तत पएथिवीरायादिष्वपीति दृश्यम्‌। द्वितीय व कार्य कल्पासेवनरूपम्‌ । तत्र चतुरवविशति पदानि भवन्ति । तेपु मश्ये प्रथम पद दशनछक्षण तदर्थमासेवितमित्यर्थ ॥ प्रथमादिपबष्या्यामाह--पढ म॑ ठाणमित्यादि--दर्प्प-ऊत्पासेवनेइविकृत्य प्रभम ब्थान दर्प , दर्पकल्पासेवना- प्रयणन एतत्पाध्यलादाउुदरेतयोरिवान भाव । प्रमादस्य दर्प एयेति न तयो एथक प्रायश्वित्तनिरूपणम्‌ । ३--9. परिग्गहों चेव क्ति --च शब्दद्वानिभोजनप्रह । इत्यव प्रथमपक्ुविषय । ३--0, एवमकप्पाईसु वि क्ति--नवछु पदेषु । ष्‌ जी० क्कण० चु० इ्छ ओऔघन्द्रसरिसंरचिता ( ३-।॥।, ३०23 जज व मम आम मम जे अज केक की अर ३--।. द्वितीयं कार्य कल्प , कल्पासेवनामाश्रित्य । ३--2. तत्र ज्ञानादीनि त्रयोविंशति पदाति तेषु सध्ये एकेकस्सिन्‌ पदे, एकमशदछासु चतुबिशत्यां गुणितेश्ु फत्पासेवनायामेतावन्तो भेदा --४३२ । उभयासेवनयोभेंदमीलने ६१२ गाथाना भवन्ति । ३--4. दुधिदा पडिसेवणा-दप्पिया कप्पियेत्यादि-द्प्पाईंणि द्सपयाणि वक्‍खाणेइ-- ३--7. तत्थ दष्पो--धावणडेवणाई--इत्यादि । अमीषामयमर्थ --घावण त्ति नि कारणेण स्तडयप्पयाणें* घावण । डेवण गत्तवरंडाईफडण । आदिशब्दात्‌ मह्नबत्‌ बाहुजुद्धकरण, ल्युडिभमाडण ॥ १ ॥ अकप्पो नाम पुठवाइकायाणं अपरिणयाण ग्रहण करेइ | अहवा उदउछ-ससणिद्ध-ससरक्खाइएहिं दत्यमत्तेहिं गिण्हृह । ज॑ वा अगीयत्थेणं आह्वारोवहि उप्पाइय त परिभुजतल्‍्स अकप्पो। पश्चकादिप्रायल्षित्तशुद्धियोग्यमपवाद- सेवनविधि त्यक्त्वा ग्रुरुतरदोषसेवरन वा अकप्पो ॥ २ ॥ निरालम्बो ज्ञानाद्यालम्बन बिना नाणाईणि अवलबि अकप्पिय पडिसेवइ३ सालूम्बा, नाणाइई अवरूम्बनं त्यक्वा अकारणेण पडिसेवइ ज सा निरालम्बा ॥ ३ ॥ ३--8. चियत्त क्ति--ल्वक्त कृ्य करणोय येन स व्यक्तकृत्य , ल्यक्तचा रित्र । अयमर्थ --ज श्रववायेण निसेविय गिलाणाइकारणे असबरे वा, पुणो ते चेव हृ्ठममत्थो वि द्वोठ (3) निसेव्तों वियत्तकिबों भवइ ॥ ४ ॥| अप्पसत्थे क्ति--बल्वर्णायथ श्रासुऊुभोज्यपि ज पडिसेवइ सा भ्षप्रशस्तपडिसेवणा, कि. पुण अविद्युद्ध आहाकम्माइ ॥ ५॥ ३-9 बीसत्थे जक्षि--अकि्न॑ पाणाइवायाइ सेवतो लोय-लोउत्तरपिरुद सपक्ख-परपक्खाट अलजिरो बीसत्थो । सपक्खो सावगाई, परपक्खों मिध्याहय ॥ ६ ॥ अपरिच्छिय त्ति--आयबव्ययमपरीक््य य॒प्रवर्ततेषपवादे । आयो छाभो, व्ययों रूब्धस्थ प्रणाश , एस्रा अपरिच्छियपडिसेवणा ॥ ७ ॥ ३--20 अकडजोगि त्ति | जोगमकाऊण त्षि-र्ठानादी कार्य गृदह्ेपु वारत्रयवर्यटनमकृत्वा सेवले यद्वा सथाराइस तिन्नि वारा एवणीय अनिसिद् जया तइयवाराए व न छब्शद तया चउत्थपरिवादीए अणेसणीयं घेत्तव्वं | एवं तिगुण व्यापारमक्ष(क्)त्वेत्र जा वियवाराए चेव अणेमणीय गिरद्‌इ सोडझडजोगी ॥ ८ ॥ निरणुताबवि ज्षि--जो माहू अववाएणावि पुडवाइण सघट्टग-परियायण-3 हयण वा काउ पच्छा नाणुपप्प--- द्वादुह्ु कय! सा अणणुतावी होइ-अपच्छ,यावीतर्व । जो द पेण पडिसेयेन्यों नानुनप्येत्तत्य विशेष ॥ ९ ॥ ३--2।. णिस्संको क्ति--निरपेक्ष । अफार्य कुयन्‌ ऊस्याप्यादायोदन ३ इने, नेदढोकस्यापि बिभेति ॥१०॥ ३--23. दसणाईणि चडवीसपयाण, एएस इम वक्‍्ख/ण--दूसण ज्षि-दरगणप्रभावगाणि सत्याणि सिद्धि- पिणिच्छय-सस्मत्यादि गिग्हन्तोइसथरमाणों ज अउग्यिय पटिसेव३ जयणाए तत्व, सो सुद्दोह्प्राय्षितत इत्यर्ष ॥ नाण त्ति--तागनिमित्त झुत्त अत्य वा गरइम।णो तत्व वि असथरे अकष्पिय पडिसेवतों सुद्धों ॥ चरित्ते क्षि--जत्व क्लेने एमपदोसो, ताआ खेत्ताओं चारित्रार्थेवा निर्गन्तव्यम्‌ । तओ निग्गच्छमाणों ऊँ भ्कप्पियं सेवइ तत्थ सुद्रो ॥ तब ज्ि--तव काहामि त्ति घयाद नेटतिपिवेज्, कए वा विगिद्रतवे पारणे लायातरणाई पियेज्ञा । छाया नाम वीहिया भुजिया भट्ट त्ताण तदुरेमु पेथा कनइ त रायातरण अन्न त, विगिद्वतवपारणए अद्दववा आह्ाकम्म पि देजा। मा भन्नेण दोसीणाइणा रोगो हवेजा | पारणग आमछगगस्ऊरादयों वा दीयन्ते । जयणाए खुद्धों । अतो&्प् संजमेति पद दश्यते चूर्णिपुस्तकेपु पर तदश॒द्धम्‌। तस्य स्थाने पचयण त्ति पद पठनीयम्‌ । निशीधे एतदीय- भाध्ये चर इत्थमेव पठितत्वात्‌, चारित्रपदेगव सथमार्वस्योक्तत्वाच । अत, पवयण त्ति व्याश्यायते--- पवरयणह्याए किंचि पटिसेवतो सुद्धों । जद्दा कोई रायाइ मणेज्ञा 'मम विसयाओ नीह [र ]/। एत्य पबयणटइया सेवंतो छुड्दो । जह विहुअणगारो । तेण रुतिएण ठक्खजोयणपमाणं रूव॑ विगुरुव्विय लवणो चलणेणालोदिओ त्ति ॥ सम्रिय क्षि--इरियं न सोहेदत्सामि त्ति चअुनिंमित्त वैद्योपदेशादोषधपान कुर्यात्‌ । इरियासमिइनिमित्त । ३-25. ३०३0 ॥ जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या ३५ विश न मनन मे आम मी पीर रस मे अ की जीज जी की जी आओ जज सी शक मची जी जी समन जी भर जज कक कक लक खेसचित्ताईओ होठ मा भासासमिएडसमिओ होमि लि तप्पसमणद्धया ओसदपाण्ं कृथोत्‌ । तइयाएं समिईए अणेसणिय पि कयाइ गिण्हेजा । एसणदोसेसु वा दससु सकाइएसु गिण्हेजा । अद्भाणपड़िवन्नों बा अद्धाणकरप्पं पडिसेवेत्ला । आयाणनिक्खेवणसमिईए चलद्त्थो होउं कंपणबावणा गहिओ सो अन्नओं पमजइ अण्णओ निककेव करेइ, तप्पसमणद्वया वा ओसईं करेज्जा । पारिद्वावणियसमिईए कायभूमीए वा किंचि विराष्टेजा । मणोगुत्तीए वियर्ड कारणओ पडिसेविय तव्वसा मणसाइगुत्तो कारणागुत्तो खेत्तचित्ताइ हवेजा। 'सादहम्मियवच्छल्ाइ-वालवुद् पञ्भचलाणाण” नवण्ह पयाण व्याख्या । साहम्मियवच्छल॑ पडुच फिंचि अकप्पं पडिसेवेज । जद्दा अज्ञवयरेहि असिवगमुडो नित्थरिभो । तत्थ कि अकप्प? भन्नई-- तह्दे वा सजय॑ घीरो आसएहिं करेहिं वा । सय चिट्ठ वयाहि त्ति नेव भासिज्ज पन्नवं--इति ॥ सिलोंगो कण्ठय । कुल-गण-सघकज्ेघु समुप्पन्नसु वमीकरण उच्चाटण-होमाइ रायाइयमुदिस्स पठजेयब्व । निमित्त-चुन्च-जोगा कायव्वा । आचार्यस्य असहिष्णोर्गिलाणस्म बालबुद्डाण य जेण समाही त कायव्वं । को य असहू ! तत्थ राया जुवराया सेट्ठि-अमच-पुरोहिया य एए असहू पुरिसा भन्नंति । एए अन्तपन्ताइएहिं अभाविया। बालवुड़ा य कारणे दिक्खिया होजा,-जद्दा वयरसामी, अज्ञरक्खिय-पिया य । एएसिं पणगाइयाए जयणाए घेत्तु समाहिहेउ दायव्व । जयगाए अलब्भमाणे पच्छा जाव आहाकम्मेणावि समाद्दाण कायब्बं । ह३--25. श्याणिं उदयाइ-वसणपज्नवसाणाणं अद्ठ्ह पयाण व्याख्या उच्यते । तत्थ उदय क्षि-- वादों पानीयप्व इल्मर्थ । अग्गि क्षि-दवापिरागच्छति । [ चोर क्षि--]नोरा दुविद्दा उगगरणसरीराण। सावय त्ति--गय सप्प-सीह-वग्धाइ । भय तक्षि--एयसयासाओ भय॑। एएसे अन्नयरकारणे उप्पन्ने थभणिविज मतेऊण थभज्ञा । विजाभावे पछायद । पछाइउ अममत्थो श्रान्तों वा सचित्तम्क्खं दुरुहेजा, न दोसों | [ कंता- र क्षि--]१न्‍तारम'वानं जत्य भत्ततार्ण न लब्भइ तत्व जयणाएं कयलगाई फलं वा उदगाई वा फासुय गिण्हेला। अडवी ४, दव्व-खेत्त-काल-भावावई चउ॒हा । दव्वओ फाछुय दव्व न लतट्‌इ । खेनओ अद्धाणपडिवन्नयाण आवई । कालओ दुभिक्वाइसू । भावओ गिलाणस्सम आवई । तत्थ किंचि अकप्पिय पठिसेवेला । तत्थ विसुद्धो । गीयाइ- स्रब्भासो व[स]ण । कोई चारणाइदिकिखिओ वसणत्तों भीओच्चार करेज्ञ । पुव्वभाविओ पक्षताम्बूलपत्ताइ मुह्े प्रकिखवेज । एसा दसणाइया कप्यिया । एत्य पडिसेवओं साहू, दष्पिया-कप्पियाइ पडिसेवणा, पडिसेवियण्वं च॑ बपछकाईणि अद्वारसद्भाणाणि । तत्थ य-- ३--28. वयछक्क-कायछकं० गाह्दा । व्याख्या --बतपड़ूं प्राणातिपातादिपष्चकरात्रीभो जनविरतिषक्षम्‌ । फृथिव्यादय षड़जीवनिकाया । पढ्ुद्येन मुठडगुणा उक्ता । अथेत्दृत्तिकल्पा अकंत्प्यादय पद्धत्तरगुणा अभि- घीयन्ते । तत्राकल्पों द्विविव --शिक्षकस्थापनाकल्प , अकल्प्यस्थापनाकल्पश्व । तत्राथ -अनधीतपिण्डनियुक्द्यादि- शाश्नसाधुना आनीतमाद्दारादि साथुभ्यो न कल्पते । उक्त च-- अणहीया खल्ल जेण, पिडेसण १ सेज्ज २ वत्थ १ पाएसा ४ | तेणाणिआणि जद्दणों कप्पति न पिंडमाईणि ॥१॥ उउबद्धम्मि न अनला, वासावासे उ दोवि नो सेह्ा । दिक्खिजती सेदद्वगणा कप्पो इमो नवरं ॥ २ ॥ ददोवि त्ति-नपुंसकाइनपुसकआाख्य द्वव वषोसु न दीक्ष्यते । शीतोष्णाज्यशेषमासाष्टके अनला नपुंसका न दीक्षाद्दया इति | [ अकप्पो--] शिक्षकस्थापनाकल्पोष्कल्प्य । अन्यश्व पिण्डशय्यावस्रपात्रानेषणीयचतुश्यगोच- रो5कल्प्य । उद्गमोत्पादनादिदोषरहित च चतुष्क कल्प्यम्‌ । [ गिहिभायण--] शहमसाजनं शहय्थसम्बन्धि- कांइयकरोटकतलिकामन्सयकुण्डिकादिकमकल्प्यमू । पलियक सि--आसन्दकशस्यामश्बकादिके उपवेशनशय- नीयहपे सुषिरिदोषान्न कल्पते उपनेड खप्ु वा। निसेज्ञ चि--मिक्षार्थ हे अविश्स्य साधोस्तत्र निषदनं कर्दू न कल्पते उत्सर्गत , अपवादतत्तु साधुत्रयमध्ये अन्यतरस्य कल्पते जराभिभूतस्य व्याधिमतो विहृश्क्षपकस्य च तपखिन इति । एते च भिक्षाटनं न कार्यनत एवं । परमात्मलब्पिकाशयपेक्षया सूत्रे त्रयस्योपवेशनं योज्यम्‌। [ सिणाएं लि--] स्ानमश्नप्रक्षालनं देशसर्वभेदमिन्नमू। [ सोभवज्ञणं--]शोभावजन विभूषापरित्यागः । इत्यश्टादषा- स्थानगण प्रतिषेबयितव्य आलोचनागोचर । ३--३30, स्लोऊण० गाद्दा । तस्य गुरोः प्रतिसेवकस्म । सर शिभ्यः यूढपदावधारक । ३६ ओीषभन्द्रसूरिसंरणिता [_ ३-३।. ४-१ सोऊण चि- श्रुत्वा; प्रतिसेषनां आलोचनां च भर॒त्वा, कमविधि चर श्रुत्ता मूलोस्रगुणविषयास्‌ । आगमं हात्या, पुरुषजातं चर आचार्यादि ज्ञास्वा | तदीय॑ पयोय॑ बरतवयोविषयम्‌ , बलें च शरीरसामध्येम्‌ , क्षेत्र च कर्कश- साधारणादिरूप ज्ञात्वा । यस्मादागतस्तत्रेव गत । अमुमेवार्थ प्रकटययति अवधारेउमिव्यादिना । ३--3।, सो तउ स्ति--स तक गृढ़पदालोचनाकथक । स्रो० गाह। स आलोचना-दाता खय॑ ग्रन्तुम- समर्थ: खशिष्यं प्रेषयति, तदभावे आगतशिष्यस्येव कथयत्तीति तात्पय॑म्‌ । ३--32. अणुमजिय जक्षि--निरूष्य विशोष्येत्यर्थ । त॑ त्ति--गूडपदालोचितमतिचारम्‌ । तस्व गुरो । पच्छित्त त्ति--तपोदानरूप ददाति, गृढपदैरेषा कथयति । तान्येव दर्शयति पढमरुस येल्यादिना-- ३--33. प्रथमस्थेति दर्पासेवनारूपस्थ। [ दसबविहमालोयण्ण ति--] दर्शविधालोचना दर्प-अकल्पादि- दशपदात्तमिका, तां विम्रश्य, गूढपदो प्रायश्चित्त पाठयति । नक्खत्तेमे पील क्षि--अस्थार्थ--भे भवता पीडा विराधना, नक्षत्रे कोई्थ:-चन्द्रादित्यप्रहन॑क्षत्रतारकृभदत पश्चविधज्योतिश्वक्रमध्ये नक्षत्रभदश्चतुर्थस्थानी । भतस्तेन चतुर्थत्रतगोचरा पीढा सूच्यते--इस्मेके व्याचक्षते । भत्रेव--नक्खत्तमेगे मूल भणति, अन्ने दृत्य निदिसति, अवरे मूछत्तरगुणविरादहण त्ति। तत्थ चउत्थ ( व्त्थत 9 ) इयबयविराहणाइयारे दत्थ ति दृत्थकम्म कय। हत्येण क्षदिन्न वा गहिये । यद्वा त्रतषद्भादय सप्तार्विशतिसख्या अनगारगुणा मूलोत्तरयुणहूपा नक्षत्रशब्देनात्राभिग्रेता , नक्षत्राणाभप्येतत्सख्याव्यवद्दारात्‌ । तथा च अनगारणगुणानाशभ्रित्य पत्थयते--सत्तावीसाएं भनगारगुणेहिं ति!। ततन्न-- वयछकर्मिंदियाण च निग्गद्दो भावकरणसच्च च । खमया विरागया वि य मणसाईंण निरोद्दो य ॥ कायाण छक्कजोंगम्मि जुत्तया वेयणाहियासणया । तद्ट मारणतियाहियासणा एए अणगारगुणा ॥ इृद अतषड्॒_मूलगुणा । कायषड्ड चेति द्वादश शेषा (?)। तत्र मूल्युणे चतुर्थत्तविषये पढमे छक्के चउत्थं भवेद्वाणमिति गाथापाठो द्रश्व्य । उत्तरगुणविराबनामाश्रिल सुक्के मासे त्व कुणह क्ति भणित, चउमास छमास च तब॑ कुणह सुक्क इत्यप्यग्रतों भणितम्‌ । पर शुक्रमासादिदानपक्षे उत्तरगुणाना श्रित्य द्रष्टन्यम्‌ । कृष्णमासादि दानपक्षे मूलगुणविराधनामाश्रित्येति । नवर उग्घाओ सुक्षमासो सद्धसत्तावीस दिवसनिष्पन्नो । अणुग्घाओ पडिपुन्नो तीसभद्दोसतनिष्पन्नो ॥ ४--2. एव ता उम्घाए[द|ल्यादि--तत्र रदघातो भागपातस्तेन निकृत्त उद्घातिम लष्वित्यर्थ । एतब्निषेधा- दनुदघातिमं गुर्वित्य्ध । तत्र प्रथम पश्चकं, दशक, पश्चदशक, विंशतिम, पश्चरविशतिमं, इत्वतत्सव मिन्नमासशब्द- बाच्यं क्षेयम्‌ । मासलछु, मासगुरु, चउरूघु, चउगुरु, छलहु, छगरुरु। अन्यच् द्विमासगुरु, त्रिमासगुरु, चडमासयुरु, पश्ठमासगुरु, छमासंगुदु--एते सम्पूर्ण-निजनिजपरिमाणा क्ृष्णमासश्नब्दवाच्या , भजुद्वाताश्रोच्यन्ते । तत्र लघुगुरुदानेडयं कम -- अद्धेंण च्छिन्नसेस पुन्वद्धेण तु संजुर्य काउ । देज्जाहि लहुयदाणं, ग्ुरुदाण तत्तिय चेव ॥ यथा-मासपस्यार्द्धच्छिन्षस्य शोषदिन १५ । एतन्‌ मासापेक्षया पूर्वेस्य पश्चविंशतिकस्पार्द साधद्वादशकेन संयुत कृत आसादे सार्थसप्तविंशतिभवति । इस्येव दिनसंख्या निष्पन्न शुक्रमास , उत्तरगुणविराधनामाधित्य वाच्य । झुद्दचतु- मौद्चः प्राचीनप्रक्रियया कृत । एतावान्‌ ११० भवति । ध्ुक्ृषण्मासिकं तप. १६७। अणुघाए ताणि क्षि---तानि मासिकादीनि षण्मासान्तानि तपासि अणुग्घाए त्ति सम्पूर्णानि कृष्णशब्द- बाच्यादीनि द्रष्टव्यानि । तत्र गुरुमासिक गुरुद्विमासत्रिमासचातुर्मासिक पश्चमासिक पण्मासिकम्‌ । पि> +- प ] चा० ००० गरु०्पृू० ०००० गु०्षु० ००००० ल० .,, १०५ | छ० ,, १३५| ल० ,, १६५ अन्यब्रोच्यते किश्वित्‌-अट्टमाइणा तवेण ज बुज्झइ ते तवगृरुयं, निव्वीयाइणा छट्ठतेण बुज्झमार्ण तबलहडुग, कालओ ज गिम्हे बुज्ञइ त॑ काललहुय । अन्यश्व-- ज॑ तु निरेतरदा्ण जस्स व तस्स व तवस्स त॑ गुरुय । जं पुण संतरदाण गदय॑ पि हु तं॑ लहुं होइ ॥ तवकाके आासक्ष व गुरू वि दोइ लह्टू लह्टू युरुओ । काछो गिम्दो गुरु भद्टाइतवो छट्टू सेसो ॥ ४-३. ४-।७ ] जीतकस्पचूर्णि--विषमपदव्याख्या ३७ इद्द तीर्थ उत्क्ृष्टतो5पि षण्मासान्तमेवातिचारशुस्यर्थ तपो भवति | अत उकत॑--मास चउमास-छम्मासियाणि । इत ऊध्वे च षण्मासिकेनाप्यशुद्धी छेदमूलानवस्थाप्यपाराधिकानि तत्तत्कालापेक्षया सूरिमिर्दीयन्ते। अ्रतश्षूर्णि- झृदाज्ञाग्यवद्धारे छते गूढपदेरेव तानि वक्‍तठुकाम इदमाह--कछेअ अओ बोछ ति। अओ सि--पण्मासीए तपस ऊध्वे छेदादिप्रायश्वित्त गृढपदैराज्षाव्यवहारत्वाइ॒क््ये । अन्यत्राप्युक्तम-- “उस्सग्गेण वि सुज्झइ अइयारो कोइ, कोइ उ तवेण | तेण उ अस॒ज्ञमाणे छेयविसेसा विसोहिंति लि! ॥ ततन्न-- ४--3. छिंद तु तय भाणं ति० गाहा। भ्रस्थायमर्थ --तर्य॑ तु तकत्‌, भाणं ति पूर्वअतपर्योयरूर्प भाजनम्‌ , छिन्दन्तु अपनयन्तु उत्सारयन्तु | पयायच्छेद तु अतिचारानाश्रित्य 'छच्भागगुरूपणए' इत्यादिना वक्ष्यति । पूर्वप्योयच्छेदेताशुस्घमाने साधवो अतस्य पर्यायस्य मूल जजन्तु । अष्टमप्रायश्वित्तमाजो भवन्तु । तस्थाप्ययोग्यतायां “अव्वाबडावगच्छे'--अजेयुरव्याइ ता., अव्यापारा संतिष्ठन्तु, अनवस्थाप्यादी भवन्तु । तेनाप्यशुद्धों तदयोग्यतायां “अन्बिदया वावि” विदरन्तु । भद्वितीया एकाकिन सनन्‍्तो वक्ष्यमाणपाराशिकप्रायश्चित्तासेविनो भवन्तु। प्रागुपासे छेद दर्शयति-- ४--4. छब्भागंगुलेलादिना । छेदो हि प्धकदशकादिरूपतया तत्तदतिचारापेक्षया तपोभूमिमपक्रान्तस्य योवत्पयायधरण तावद्धवति । यदाइ-- 'उकोस तवभूमिं समईओ सावसेस चरणों य | छेय पणगाईय॑ पावइ जा घरइ परियाओ ॥! गायाद्यस्थार्थ कथ्यते-छब्भागंगुलपणगेक्ति--सो आलोयणायरिओ, तस्स सीसस्स एयाए सन्ना- गूढं छेयपायच्छित्त देद । त जद्दा-मास दुमास तिमास चउम्मास पच्मास छम्मासाण पत्तेयं प्तेये अगुलवबएस करेह । तहदा कए य जस्स मासमेत्तो परियाओ तस्स, पचगे त्ति पंचसु दिवसेसु छिदियव्वेसु, अयुल लि मासस्स छब्मागो छिदियव्वो त्ति भणियं होइ | द्सभाए ति भाग त्नि--तस्सेव य अगुलसन्नियस्म मासस्स दससु दिणेसु छिंदियव्वेप्तु अगुलस्स तिभागो छिंदियच्वों त्ति भगइ । मासपज्ञायस्म दसदिवसा छिदियब्ब त्ति भणिय होइ। अद्ध पश्चतरसे क्ति--तह्सेवागुलसत्रियत्स मासस्स पन्नरसे न्‍्ति पन्नरससु दिवसेसु छिंदियव्वेसु अद्धमगुलस्स छिंदियश्वं ति निद्िसइ । पन्नरस दिवसाणि छिंदियव्वाणि त्ति सब्भावो । बीसाए तिभागूर्ण त्ति- तस्सेव मासस्‍्स वीसाए दिवसाण छिंदियव्वाए तमेबगुल ति-भागृूण ति तइयभागेण ऊण्ण छिंदियव्व ति भण्णइ । मासस्स दोष्नि भागा अबरा य त्ति भणिय होइ । छब्भागरूण तु पणबीसे ज्षि--तस्सेव माप्तस्स पचवीसाए दिवसाण छिंदियव्वाए छबच्भागूण ति तमेवागु् छब्भागेण ऊण छिंदियव्व ति भणइ । मासस्स पचवीस दिवसा छिदियव्व॑ ति। मासे छिंदियव्वे अगुलं छिंदियव्व ति भणइ ॥ १॥ विहि मासेहि छिदियव्वेहि अगुलदुग छिद्यिब्य॑ ति भणइ ॥ २ ४ ति मासे किंदियव्वे सअगुलतिग छिंदियव्ब॑ति भणइ ॥३॥ चउमासे छिंदियच्वे चउरो अगुलाइ छिदियव्वाइ भणइ ॥ ४॥ पचरहहिं मासेहिं छिंदियव्वेहिं अगुलपंचग छिंदियव्व ति सन्दिसिइ ॥ ५ ॥ छम्मासपरियाए छिन्दियव्वे छअगुलाइ ववहसइ ॥ ६ ॥ ४--$. एए छेयविभाग तक्षि--एए त्ति पुब्बनिद्दिद्वा, छेय त्ति छेय सत्तमपायच्छित्त तस्स विभागा विसेसा नायब्वा--जाणियव्वा । अहकमेणं तु त्ति जे जद्दा निदिद्ठा । आह्वाव्यवद्ारे दर्प्पकीमासेवाममिधायाधुना कल्पिकी माह-- ४-6. विह्अस्स कज्जस्सेत्यादिना ! द्वितीयस्य कल्पासेवनारूपस्प ज्ञानदशनादिचतुर्विशतिषबरूपस्य तहो- घरामासेवनां भ्रुत्वा क्षिष्येण कथ्यमानां सूरित्रेते--आउत्तनमोक्कार क्षि। आयुक्ता. सयसोद्रमविधानिन पश्षपर- मेष्टिस्सरणपरा भवंतु सृरयो5प्रायश्चित्तिन इति भाव: । नवरं--कारणपडिसेवा वि हु सावज्जा निच्छये अकरणिजा, कि सर्वथा नेत्याइ--बहुसो वियाइसा। क्त॑व्यमिति शेष. । अधारणिजेदु--अल्यागाढकारणेष्वित्यर्थ । “जद वि य सम- णुक्नाया--सावद्यप्रतिषेवेति प्रकम --तहवि य दोसो न वज्णणे दिद्लो । दढधम्मया हु एव नामिक्खनिसेव-निहयया ॥!” ४--४६- एवं सो हलयादि । द्वव्यादिक ह्ात्वा परिभाव्य वेति शेष । परिष्रच्छघ खकीयगर्ण खयमात्मगमन बिघते, शोधिदाता सूरि' गीतार्थशिष्यं वा प्रेषयति | अविज्ञमाणे व क्ति निज्गमन-खशिष्याभावे। शस्सेय सि झालोचनातिबारकथकप्रेषितशिष्यस्येव हस्त गृढ़पदैरक्षत( रै! )र्लेखित्वा वा विशोधि ग्रेषयति । ४--0. भारणाव्यवद्यारस्तु-- झट श्रीचन्द्रसुरिसंरचिता [ ४-3, ५०26 जी अडजलशणन अजलिडि जल ज अल जिजजी जन पल, अं डड लीड +>-2 3-33 335 जी 'गीयत्थेणं दिण्ण सुद्धि अवधारिक्रण तह चेव । दिंतत्स धारणा सा उद्टियए य धरणरूवा जा ॥* सुगमा । ४-3. बहुखों पडितप्पियरस ज्षि--अनेकश कृतकार्यस्य। अवसेस स्ति--किशिच्छेषाकर्णितागमस्थ। श्यमर्थ -वैयाबत््यकरणादिना गच्छोपकारी कब्ित्साधुरयराप्यशेषच्छेदश्रुतयोग्यो न भवति ततस्तस्यानुभ हत्या यदा गुरुरुद्धतान्येव कानिचित्‌ प्रायक्षित्पदानि कथयति तदा तस्य तेषा पदानां धरण धारणा अभिधीयते । ४--5. जीतव्यवहारस्तु येष्वपराणेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तप प्रकारेण शुद्धि कृतवन्तस्तेष्वपराधेषु साम्पर्त दच्यक्षेत्रकालमावान्‌ विचिन्दय सद्दननादीना व ह।निमासाय समुचितेन केनचित्तप प्रकारेण यां गीतायो झा निर्दिशन्ति तत्समयपरिभाषया जीतमित्युच्यते । अथवा यथत्र गच्छे सूत्रातिरिकत कारणत' प्रायथित्त बर्तितमन्यै्य बहुभिरनुवर्तितं तत्तत्र रूढ जीतमुच्यते । ४--9. बक्तणु० गाह्ा !-- बत्तो नाम एक्सि अणुवत्तो जो पुणो बिश्यवारे । तइयवार पवत्तों सुपरिग्गहिओ मद्दाणेणं ॥ चहुसो बहुस्सुएहिं जो वत्तों न य निवारिओ होइ । वत्तणुवत्तपमाणं जीएण कर्य हृवइ एर्य ॥ तथा च--सो जह काईएण अपडिक्॒तस्स निव्विगइय तु । मुहणतफिडियपाणग-अखबरे ए[व]माईसु ॥ एग दिणं च वज घटद्दणतावेण गाढगाढडे य । णिव्विगशमाईय जा आयामनमोदहवर्णे ॥ विगलिंदणतघष्रणपरियादणगाढगाढउदवणे । पुरिमड्ठाइ उमेण उ नेयवब्यं जाव समण तु ॥ परत्रिदि-घट्टतावण-अणगाढगाढ तहेव उद्बणे । एगासणमायाम रामण तह पचकल्लाण ॥ एमाईओ एसो नायव्वों होइ जीयववद्धारो । अणवज्विसोहीक्रों सबिग्गणगारविज्नो त्ति ॥ ४--25. आगमव्यवद्दार(रा) न थरुतमनुवर्तयन्ति । जे पुणोत्यादि-- “आकारैरिक्षितेंगत्या चेश्या भाषितेन च। ने यवफ्त्रविकारश्व गृश्यतेडन्त्गंत मन ॥! इत्यन्यत्रापि पम्यते ॥ नवरम्‌्--इज्जित निषुणमतिगम्य भ्रशृत्तिनिशनिसूबकमीपद्श्रृशिर कम्पादि । आकार स्थूलघीसवेय प्रस्थानादिभाव- सूचको दिगवलोकनादि । ४--२6. बत्ति क्ति-वतत्रम | [णेत्त [नेत्र लोचनम्‌ । चयण ज्ि--वचनम्‌ । एतदीयविकारादिभि. । तिक्खुस्तो त्ति त्रिकत्वों वेलात्रय सब दार्थम्‌ | पलिडसि: समार्म, अपन्डिचिय कमायं । ४--28. खुयाभावे क्षि--अतवत्सब्रिधानाभावे । ४--29. ख़ुयववहाराणुसरिसो तक्षि--यत श्रुतोक्तप्रायश्रित्तमेबात्रापि दीयते । ४--३3। विसेसिड क्षि--आज्ञात्यवहार श्रुतोपदेशोजितप्रदानम्‌। ४--३2 सब्वत्थय ज्ञि-त्रिषु काटेषु, जीतस्य चिरानुवर्तन यावतीर्थ तावत्‌ । ५-4. तबेगदेस ति--द्वादशभेदस्य तपस॒प्रायश्वित्त तदेकदेश एवं । ५--$ पारंपरिएण--परम्परया । उब्बे्लणाए-परमसमखुद +--सम्यकुसुखलक्षण । ७--9. अनादानं अप्रहण नूतनक्मंण । ७५--0. अहच त्ति--यद्वा सवरनिजरे एते सप्रभदे कथ्येत्े--विशिष्टं लक्षणमेतयोभण्यत इति भाव.) मिभ्या स्वाविरतिकषाय प्रमादयोगानां निरोध [सवर ] । ५--]. अवरोधेन अपममेन । ५--|३४ इन्द्रियाणि पश्च, तेपा वियया शब्दरूपरसस्पशंगन्धाख्यास्तपु इष्टानिष्ेषु रागद्रेषाकरणम्‌ । विकथाः ख्रीकयाय्ाश्वतस्तर- । निद्रा पश्चत्रिधा । मद्य विकटम्‌ । प्रमादोघज्ञानसशयादिऊ । योगा मन प्रदृतय । ५--4. घावनादिक प्राग्‌ व्यास्यातम्‌ । म्फोटन बाह।यास्फीटन घटादिमेदन वा । ५--5. अधष्भूय त्ति--भमद्भुतोदड्धावनमू--अगुष्ठपर्र मात्रा दिजी व » नवकम्यलो देवदत्त इद्यादिकः । ५--6. ईसामरिस क्ति--परसम्पदामसहनमीभ्या, क्षमर्ष कोध , एते मनोव्यापारा, । ५--20 [ उत्तरगुण ]-- पिंडस्स जा विश्तोही, समिईओ भावणा तग्रो दुविददो । पडिमा अभिरगह्ा वि य, उत्तरगुणमों वियाणाहि ॥ ५--20 [ परीसह - छुद्ा पिवासा सीउन्हूं, दंसाचेढारइत्थिउ । चरिया निसीहिया पिज्जा, अकोसवदजायणा ॥ ४०-2।, ७-9 ] जीतकस्पचूर्णि-विषमपद॒ज्यास्या इ्दु अं लभओ- >> >>» नलडिध्िटबके २८५०५ ७८ 2५०५०५७)७०७/७८५८० अछाभरोगतणफासा, मरुसकार परीसद्दा । पन्नान्नाण-समत्त इइ बावीस परीसदा ॥ ५--2. [ डबसम्ग--] उपस्यो. १६-- दिव्या ४ माणुसगा चेव ४, वियाहिया तिरिच्छा य ४। भायसंचेयणीया य ४ उदम्रसर्गा चउव्विद्दा ॥ तत्र [ पुदोबेमाया | श्यग्‌ विमात्रा द्वास्येन प्रारब्घा प्रद्ेषेण निप्ठाह्ृता इति । ५--22. कुसीलूपडिसेवण सि--चरतुर्थवतलोपनम्‌ । विपयाभिष्वक्लिणा छुयादिना । [ घट्टणया ] पहने रजसबब्ु स्वत । [ थभणया ] खम्मनता पादायहतल्य । [ ऊसणया] शेषनताउइश्नाना वातादिना । [ पचडणया ] प्रपतन भूमी देहस्य । * चरणसोहणत्थ चेति--चकारात्‌ शञानदशनशुद्धर्थ च प्रायश्षित्त शेयम्‌, त्रयस्थापि मोक्षकारणत्वात्‌ । चरणशुद्धिथारित्रश्ेट्ठता । ६--१3. विगिचमाणो विहीयद सि--यद्‌ द्रव्यमधिकमकल्प्यं वा गृहीतं तद्विगिघयन त्यजन, विधिना तमतिचार शोधयति । ६--20. ज्ञाव० तवो द्िण्णो त्षि--ततो मदात्रतेबु नावस्थाप्यते नाधिक्रियते इत्यनवस्थाप्य । ६--2[ पारंतीरं तपस्ा अपराधस्य अश्यति गच्छति त्तो दीक्ष्यते य सपाराश्ी, स एव पाराशिकस्तस्य यद नुश्ठा< नम्‌ | तत्व पाराश्िक लिज्ञक्षेत्रकाउतपोभिबेद्ष्किरणम्‌ । लिज्ञाईहिं पारचिओ रहित क्रियते इत्मर्थ ॥ दस पायच्छित्त- पयाणि। तत्य साहवो पुलाग-बउस-कुसील-नि4ठा-सिणाय-भेया पंच । एएसिं ज॑ जस्स भवति तमियाणि भपह--- भालोयण पडिक्कमणे मीसविवेगे तद्दा विउस्सग्गे | ततों तबे य ऋछट्ठे पच्छित्तपुलाके छप्पेए्‌ ॥ बउस-पडिसेवगाण पायच्छित्ता भवति सब्वेवि । थेराण भवे कप्पे जिभ्रकप्पे अद्वद्या होइ ॥ आलोयणा बिवेगो वा नियठस्स उ दुबे भवे । विवेगो य सिणायस्स एमेया पडिवतिभो ॥ समायिक साध्वादीनां च पश्चाना यद्स्य तत्कभ्यते-- सामाइसजयाणं पच्छित्ता छेयमूलरहियद्ध । धेराण जिणाणं पुण तवमर्त छब्विष् होइ ॥ छेओबद्ठावणिए पायच्छित्ता हृवति सब्बे वि। थेराण जिगाण एुण मूल त अद्॒ह्मा दोइ ॥ परिद्वारविसुद्धीए मूठ ता अदठ्ठ हुति पच्छित्ता । धराण जिणाण पुण छब्यिहमेय वि य तबंत ॥ क्षालोयणा विवेगो य तइय तु न विजई ! सुहमम्मि सपरागे अहक़्खाए तहेव य ॥ अन्यच--- जा सजप्तया जीवेश्ु ताव मूला य उत्तरगुणा य । दत्तिरियच्छेयसजमलेयठबउसा य पडिसेवी ॥ जा तित्य॑ ताव एए नेया । इत प्रसम्नेन । प्रकृतमुच्यत्रें-तत्र 'ऋरणिजा जे जोगा” गाथाया (ग्राधाह्ु ५) योगा प्रत्युपेक्षणादिका क्रियारूपा । ६--3. आलीण--भा ईंपह्लीच- । बहुतर छीन. प्रढदीन । भाष्ये तु-“भआलीण। नाणाइब्, पहुंलीणा, कोदाईया पलय जैसे गया ते पलीणा उ” इत्युक्तम्‌ । ६--32 पादमुद्धृत्म अधर्षयन्‌-- रीयेत-गच्छेत्‌ । तिरिच्छ ति तिययककृत्वा कीटिकादाकुले देशे। साहदु-पहल सकोच्य अग्रेतनफणादिना । ६--३4. जा य सश्चेत्यादि--पदार्थतत्त्वमज्ञीकृत्य या भाषा सब्या, परमवक्तव्या सावयस्वेन, भमुत्रस्थिता प्ठीति कोशिकरभाषावत््‌ ॥ १॥ तथा सत्वास्प्रा न वक्तव्या । यथास्मिन्नगरे दश दारका जाता इत्यादि तह्यूनाधि- कभावे, व्यवह्रतो5<त्मा सद्म्रषात्वात्‌ ॥२॥ या व मषा, यथा-क्रोधाभिभूतो जनक पुत्रमाह-न त्व मम पुत्र: । मानाध्मातोइल्पधनो $पि पृ आदइ-मद्ाधनो5हमित्यादि ॥ ३ ॥ या च बुषर्जिनादिभिरनाचोणा असल्यामषा आम- काृणि-प्रश्ञापतादिलक्षणा अविधिपूर्वक खरादिप्रकारेण।न ता भाषेत्‌ प्रज्ञावान--बुद्धिमान्‌-साधुरिति गायार्थ: ॥ ४ ॥ ७--. प्रव--वक्ष्यमाणन्यायेन शिष्यो भगतीति शेष । ७--9. तेय शि--तान्‌ योगान्‌। # इद पद चूण्यों नोपरभ्यते। ४० भ्रीचन्द्रसूरिसंरचिता ( ७०]0- <-(4 ७--0. का अधिसोह्दी--किन्ठु विशुद्धिरेव तन्न वियते । ७--[. खुहुमप्रमाय--यथोक्तविधिहासो5लूक्ष्यो यगुरुसंदिशे यथा आलोचयति | ७--2. पुड्व थ क्ति--कार्यकरणकालात्‌ । ७--4. गहणे तक्ति--प्राकृतत्वात्‌ प्रहणानीति दृश्यम्‌ । ७--6. सेज्ल क्षि--वसति । पायपुंछर्ण--रजोहरण उपवेशनरूप च । ७--7- ओहिय इति--'ओपेण जस्स गदहण भोगो पुण कारणा स ओहदोही' । ओघोपधि' स । जस्स य॑ दुर्ग पि नियमा कारणाओ सो उबग्गहिओ ॥! ७--8. गद्दण तु क्ति--गदण कथनमित्यर्थ । ७--2. कुलगणे ज्षि--कुछ नागेन्द्रादि, गण कोटिकादि । ७-23. बहियाणिग्गमों क्षि--किमपेक्ष्य बहिरिद्याह ।-- गुरुमूलाओ त्ति । किमर्थ यातीह्याह-- कुलेत्यादि । ७-24. चेइय दुविहमेयतददब्वेय्ादि--चैल्य पश्चवा--साधर्मिक्रचेल, यथा वा रफक्तकसाभ्वादीना प्रतिकृतिरूपम्‌ १। मज्नलचत्य गदद्वारदेशादिनिकुट्टितप्रतिमारूपम्‌ २। शाश्रतच॒त्ये नन्‍्दीश्वरादिव्यवस्थितम्‌ २३ । भक्तिवेलं भक्‍त्या क्रियमाणं जिनायतनम्‌, तन द्विधा-साधुनिभ्रया क्रियमाण निश्चाकृतम्‌ ४ । तदनिशभ्रया तु विधी य- मानसनिश्राकृतर्‌ ५। तस्य सामान्येन जिनायतनाख्यचेत्यस्य द्रव्य हिरण्यसुवर्णादिरूपम्‌, तस्य विनाशे जायमाने, तथा तह्ृव्यविनाशने तस्य चेत्यस्य द्वव्य उपकारक दारूपलेशकादिव/तु तस्य विनाशने सम्पय्ममाने डिविधमेदे, त्त(*)त मलसप्नोत्पाटितभेदतो द्विप्रकाभेदे-मूलोत्तरभेदाद्वा द्विविधभदे । तत्र मूल स्तम्भकुम्भकादि, उत्तर॑ तु छादनादि। खपक्षपरपक्षजनितविनाशाडविध्याद्विधभेदे । इद चेत्यतद्वव्यविनाशमुपेक्षमाण साधुरनन्तसासारिको भवती- स्युक्तम्‌ । उरम्मादिद्रन्य॑ काष्ठादिदल चेत्यादिना द्विविवभद यक्तद्वव्य चेत्यद्रव्य तस्थ विनाशस्य निवारणादीनि कर्ठु निर्गेततो भवतीति चुर्ष्यक्षरार्थ । ७--25 पाडिद्वारियं--यावितकम्‌ । अप्पणत्थं--समर्पणाय । ७-28. सन्नायग चि--खजना । ८--. पासवण त्षि--मूत्र भूमी ब्युत्स्ट वोमिर्‌इ ति मात्रके । ८--6 असिव ब्यन्तरादिक्ृतोपद्रवम । ओम॑ ति दुर्भेक्षम्‌ । राजदुष्ट प्रय्ननीकपति'। ग्लानो मनन्‍्द । उत्तमार्थ पर्येन्तक्रियाराधनविषय । ८--7 चक्कथूम क्ति--%षमजिनपदस्थाने वाहुवलिविनिर्मित तक्षशिलानग्र्था रक्षमयधर्मचक्र तहशनाय नजति । स्तूपो मथुरायाम्‌ । प्रतिमा जीवन्तखामिसम्बन्धिनी पुरिकायाम्‌ । यत्र सोरिकपुरादो अह्ठतो जन्म, निष्क- मणभुव उजय॑तादि व्रष्ठम्‌ , ज्ञान तत्रेंवोत्पन्नम्‌ । निवाणभूभ-दर्शनाथ च श्रयाति । [ घइदग ] बजिक-गोकुलम्‌ । सद्गडिप्रेक्षा विवाहादिप्रेक्षणम्‌ , आदिशब्दात्‌ शोभनाहार शोभनोपधियत्र लम्यते। रम्यदेशदशनार्थ चर ब्रजतीति एृहाते । <--3. अप्पा० गाहा | अल्परब्दोष्भाववाची सर्वपदेषु । लेन सृलगुणविषया विराधना अल्पा न का« बित्‌ । पाश्चस्था5वसन्नादिषु दाने महणे च न काचित्‌ । सम्प्रयोग, सम्पर्क । स पाश्रेस्थादिभि- सह न भासीत्‌ । सोह त्ति--श्यमोषत संक्षेपत्त आलोचना । <--4 अज्नस्मि वेखाए क्ति--अवमासाभ्यन्तरेषपि, अन्यक्तिन्‌ सातिचारे, समुददेशवेलयां भन्यर्स्या बैलायां विभागतों विशेषत भालोचनीयम । €*]6. ९०5 ३ जीतकस्पचूर्णि-विषमपद्व्यास्या ४१ ८-- 6. संधिम्ग खसि--संपिप्ता' प्रियदडघमाण. । ८-8 अ्रुतप्रदणायान्याचार्यमुपसम्पयमानस्य श्रुतोपसम्पत्‌ । सुख वा दुःखं वा सम॑ सोठव्यमिति छक्षादुःखो- पसम्पत्‌ । यथा क्षेत्रे बसत- मार्ग तजतथ्ष सम भवददीया निश्नेति सा तथातिधोपसम्पत्‌ । विभयकरणार्थपुपसम्पयसे यत्र गच्छान्तरे श्वा तथेति । तदुक्त भाष्यकृता-- उबसंपय पंचबिष्ट सयसुदृदुक्ले य खेसमग्गे य । विणयोवर्सपया वि य ८ंचविहा होह नायव्वा ॥ ८--20, थिभागेण--विशेषेण । ८--258. तलट्टाण खि--तेषां मिध्यादुष्कृतकरणस्थानानां खरूपनिरुपणाय । ८-32. अहिक्खेयो शि--किं भवान्‌ जानाति, जात्याशुद्धटनादि वा। तथा च वक्ति-- डदरो भकुलीणो त्ति य दुम्मेहो वमगमंदबुद्धि त्ति। अवि अप्पलाभवु(छ)द्री सिससो परिभवह आयरिय ॥ ९--. जाइकम्माईहिं ति--भद्दो सन्‍्तापिता वयमनेन रे बालिकेनेति । ६-2. क्मलिय शि--समश्रेण्वा गच्छति । पुरोध्भतः स्थितो अजति । गुरु प्रतीत्याभ्युत्थानकरणादिको ओो बिनयः कायिकस्तस्थ भज्ञो$करणम्‌ । ९---4. इच्छा० गादह | उचसेपया० गाह्य--भ्याख्या--इच्छया बहाभियोगमन्तरेण करण इच्छाछार'-« इच्छाकिया । तथा तरेच्छाकारेण ममेदं कुर । इच्छाक्रियया न बलाभियोगपूर्विकयेति भावः ॥ १॥ तथा मिथ्या- वितथाभृतमिति पयोय । मिभ्याकरण मिभ्याकार मिथ्याक्रियेत्यर्थ । तथा च संयमयोगबितथाचरणे विदितजिनवच- नसाराः साधवस्तत्कियाया बैतध्य प्रदशनाय मिध्याकार॑ कुर्वते मिथ्याक्रियेयमिति हृदयम्‌ ॥ २॥ तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्ननोचरो यथा मपद्धिरुक्त तथेदमित्येबरूप ॥३॥ अवश्यकर्तव्यैयोंगर्निष्पन्ना आवशि(इस)की वसतेनिंगे- घ्छद्धियों फ्ियते ॥ ४ ॥ निषेषेन निर्दता नैषिधिकी, वसती प्रविशद्धिर्या विधीयते ॥ ५ ॥ आपृच्छनमाएच्छा, सा विहारभूमिगमनादिषु प्रयोजनेबु गुरो काया ॥ ६ ॥ तथा प्रतिपृच्छा, सा च प्राम्रियुक्तेनापि कायेकरणकाछे कायो, निषिद्धेन वा प्रयोजनत कठुकामेनेति ॥ ७॥ तथा छन्दना च, प्राग्‌ गृहीतेनाशनादिना काया, भवन्‍्तो ग्रहस्तु ॥ ८ ॥ तथा निमञ्रणा, अगृहदीतेनेवाशनादिना अहं भवदर्थमशनाथानयामील्ेवंभूता ॥ ९५ ॥ तथा चामिहितमू-- आपुच्छणा उ कच्चे, पुव्वनिसिद्धेन दोइ पडिपुच्छा । पुव्वगहिएण छेदण-निर्मंतणा होइ अगहिएण ॥ ९-5. [डघरससंपयाओ]--शानदरशेनचारित्रार्थमुपसम्पश्न विधेय ॥ १०॥ इत्यादि शब्देन ब्रृद्मते । लहु- सर्ग-सूक्ष्मम्‌ , तत्सरूपं गायाद्ययेन दशयति--पयलछेल्यादिना । व्याख्या--पथलछ ज्षि--दिवा कोई साहू पय- छतोष्लेण साहुणा भन्न--“किं दिवा पयलायसि ?' । तेण भणिये--“न पयलामि! । एवमबलवन्तस्स मासलहुयोगो लहु मुखावाओ । एवं जत्थ जत्थ मासलहु तत्व तत्य सुहमो य मुसाबाओ ॥ १ ॥ ओलछ्े त्ति--ओहछं, बास । कोह साहू बासे पड़माणे अन्नयरपओयणे पढि(ट्वि)ओ। अप्रेण खाहुणा भन्न_--अज्जो कि वश्वसि £ वार्सते । पडि(ट्वि)य साहुणा तओ मभ्ह--वासंते दं न गच्छे ।! एवं सणिऊण वासंते चेव पडि(ट्वि)ओ। तेण साहुणा भणियं--“नणु अलिये ।” इयरो प्याह-न । कर्थ ! । उच्यते--नणु वासबिंदवों एए | बास पाणिय॑ तस्प एए बिंदवों थिवुगा । वृष्टिरेह आरस्वेचतु (!) सा नेयं ॥२॥ मय क्षि--कोइ साहू कारणविणि[ग्ग]ओ उतस्सयमागतूण भणइ---/निग्गह, मस्या द्विजा भुझते, भम्हे वि तत्यथ गचछामो ।' ते साहू जाव संपट्ठिया--करहिं ते भुजन्तिः मिक्षादने न दृष्ठा.। तेण भन्नइ--नणु सब्वगेहेस--आत्मीयशद्वेष्विति ॥ ३॥ पश्चकसताणे क्ति--कोइ साहू केणइ साहुणा उदग्गभोयणमण्डलिवेलाकाछे मणिओ--एहि भुजसु” । तेण भणियं--भुशह तुब्मे, प्रक्ल्वायं भमेति 7 एवं भणिकरण मंडि]डीए तक्खणा चेव भुंजिजों। तेण साहुणा छुत्तो--'अजो तुम मणसे मम पथक्खायं ?? । सो भणइई--'कई न, नणु पाणाइबामाइया अधिरदइ सा प्ए पश्क्‍्खाया । भअवश् प्रद्या- छयातमिति भाव" ॥ ४ ॥ गमणे शि--केणह साहुणा चेहमबंदणाइपजोयणे वश्चमाणेण अन्नो साहू मणिओ --वश्षस्ति !! | सो मणइ--'नाएं बजे, वश्च तुम ।/” सो साहू पयाओ । हृथरो थि तस्स मग्गओं तक्खणादेव प्रयाओ । तओ घाहुणा पुस्छिओ--“कहं न वश्याति त्ति भभिऊण बश्नसि !” स्लो भणइ--सिद्धन्त न जाणस्नि” । है जी० क० झु० ४२ ओचन्द्रसूरिसंरचिता [ ९-8. ९०॥ कहं ? । उच्यते--'नणु गम्मइ गम्समसाण, न क्गम्ममा्ण । जम्मि समएउ॑ं तुमे पुट्ठो, तम्मि समए न चेवाहं गच्छो ॥ ५ ॥ परियाए क्ति--कोइ साहू केणइ साहुणा वंदिउ कामेण पुच्छिओ--'कइ वर्रिताणि ते परि- याओ? ।? सो एवं पुच्छिओ भणइ--'एयस्स साहुस्स भज्ञ य दसवरिसाणि परियाओ ।” छलव्रादमब्नीकृत्य श्रवीति । सो पुच्छतगसाहू भणइ--'मम नववरिसाणि परियाओ | एयस्स य वे पचगा दसओ, इति मा पादपतनं कुछ ॥ ६ ॥ समुद्देस क्षि--कोइ साहू कारणनिग्गओं रवें परिवेसपरिवियत दष्टूण ते साहवो सत्ये अत्थमाणे तुरियं भगइ-- भोजनवेला व॒तेते, उद्देह । साहू यहियभायणा उद्ठिया मिक्षाटनाय । पुच्छेति-- “कृत्य समुद्ेत ” छलवादी प्राइ--नण एस गमणमग्गम्मि । आदिचे गहण राहुणा क्रियमाण दशेयति॥ ७॥ संखड़े क्ति--कोइ साहू पढमालिय पाणगाइ विणिग्गयो पच्ायाओ भणइ--इट अज्ज निवेशे पउराओ संख- डीओ ।/ ते य साहवो मिक्षाटने गन्तुकामा इच्छति ' * [ अन्न कियान्‌ पाठ. खण्डितः प्रतिभाति ॥ खुडग क्ति--] 'कोह साहू उवस्सयसमीवे मय सुणहीं ददूण खड़ग मणइई--क्षुकुछ! तव माता झता। ताहे सो ख़ड़ओ परुण्णो । त रुय॑तं दद्मूण साहू भणइ--“मा रुय, जियई त्ति! । एवं भणिए खुड्ढो अन्ने य साहुं भणति--किं तुम॑ भणासि जहा मया ” । सो मुसावायसाहू भणइ--'एसा साणी जा मया, सा तुज्ञ माया भवति! । “कद माया भव ” अतीयकाले भविंघु। जओ भगवओ भणई--एग्मेगस्स ण जीवस्स सब्बजीवा माइत्ताए भजपुत्तधूयत्ताए भूयपुव्वा | तेण साणी [माया] भवाति ॥९॥ परिहारिय क्ति--कोइ साहू उज्ाणाइसु ओसन्नाइ दट्ठुं आगंतृण भणइ--“मए दिद्वा परिद्वारिया' । सो छलेण कहइ, इयरे साहवो जाणति--जद्दां परि- हारतवावन्ना अणेण दिद्ठा उज्जतविद्वारिण ।! तदनु तहशनाय गमनादों कृते यावद्‌ दृष्टा पाश्वस्था । तदसो छल- वादी उत्तरयति--“न्वेते5पि परिहारिका अभक्षादिपरिहरणान्‌ । परिहृरन्ताति परिहारिका इति कृत्वा! ॥ १० 0 मुहीओ तक्षि--एगो साहू विहा(या 0)रभूमिं गओ--'उजाणदेसे इत्थी घोडमुद्दी दिट्ठ'त्ति साहूण कहेइ। भश्वमुखी ज्ली इत्यध । जनगमने घोरिका कथयति ॥११॥ अवसगमणं ति--कोइ साहू केणइ साहुणा पुच्छिओ--“भजो गच्छति मिक्‍्खायरियाए ” सो भणइ--“अवस्स गच्छामि ।! तेण साहुणा पगिद्ियभायणोवगरणेण भन्नइ--'एहि बच्चामो' | सो पच्चाइ--“अवस्सगतब्वे न ताव गच्छामि' । “कि न जाति *! पुच्छिओं भगइ--वेला न ताव वहइ! प्रलोगगमणवेला मोक्‍्खगमणवेला वा न तावे जायइ। तो न ताव गच्छामि । पर अवस्स परलोग मोक्‍्ख वा गमिष्यामीत्यर्थ ॥ १२ ॥ दिस सि--एगो साहू एगेण साहुणा पुच्छिओ---/अजो कयर दिस भिक्खायरियाए गमिस्ससि ” । सो भणइ--पुब्ब । सो पुच्छतगसाहु अग्गाहिकेण गओ अवरदिस । इयरो वि पुव्वदिसगमणवाई अवबरं गओ । 'क्षजो ! तुमे भणिय “अह पुष्व गमिस्सामि ।”” कीस अवरदिसमागओ ?! एवं पुट्टी भगइ--“अन्नस्स अव[र]गामस्स इमा पुव्वा किंन भवइ ?। भवई चेव ॥ १३ ॥ एगकुले क्ति--कुल ग॒द्द भिक्खनिमित्तुद्विएण साहुणा भन्नइ--'भजो | एहि वयामो भिक्खाए!। सो भणइ---भद्दमेगकुल गच्छ, एगकुले एव म्या भरितव्य। वच्चह तुब्भे! । गया साहवो | सो विय पच्छा बहुकुलाय॑ पविसइ । तेहिं साहूहि भणिओ--अज | तुमे भणिय॑--एग- कुछे पनिस्मिस ।? बहुकुलपवेसे पुट्टो मणइ--“कह एगसरीरेण दोन्नि कुले पविस्सिस्म । एग चेव कुल पविसे ॥१४॥ पगदब्बे क्ति--साहुणा एगेण एगो साहू भन्न_र--'वयामों भिक्वाए / सो भणइ--वच्चह तुब्मे । एकमेव मया द्रव्य प्रद्देतव्य!' । तओ ओयणदोव्वगाइ बहुदव्वे गिण्द्दतो तेमिं (हिं) साहूहिं दिद्ों भणिओ य--'अजो ' तुमे भणिय--एगं दब्व घेच्छ, कह अणेगाणि गिण्दसि ” । अत्यो--घम्म्त्थिकायाईणि द॒व्वाणि छ तेसि धम्माइयार्ण मज्झ्े गहणलक्खणो पुगरत्यिकाओं एगो चेव । अन्निर्ति गहणलक्खण नत्यि । तम्हा भट्ट ए्ग दब्ब गिण्द्ामि; बहुग्गहणेडपि सति समस्तान्यपि द्वव्यमेकमेव ॥ १५ ७ ९-४. लद्डसादिए्णं पुणेत्यादि--स॒कमादत्त उपलादिप्रदणविषयम्‌ । ९--9. इत्तिरियं--अल्पकाम वृक्षादिच्छायावप्रद्यदों विश्रमणाय । ९--0. लहुसमुच्छा इच्यक्षेत्रकालभावभेदाबतुघो ता कमेणाइ--लह्डुसमुच्छा इयादि। कागाइसा* णे कि शय्यातरगण्द्दी काकादिपातं निवारयति, बलीवर्देकल्पष्ठकं लघुपुश्नादि रक्षति ॥ १ ॥ ९--]. खेत्ते भोवास शि--क्वकाश. प्रतिक्रमणादिस्थानप्रवेशः । ६-१2. ११-३4 ] जीतकस्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या ४३ जज पु आर अर चरम ये ये मा मी आय आयी ये ये पी अप पे की का ये पर वन कक की ९.--2. रागदोसाइ मासमध्येपि ॥ एत्थ क्षि--काकादौ | ठाणा--आपत्तिस्थानं, घेप्पन्ति--अ्रतिक- मणाइंमध्ये । ९--7. अखंकिलिट्टकम्म ति--कुछादौ शरीरकियायाम्‌ । छेदन दुष्टाजस्प। पीलनं रुभिरादिकर्मण' । भेदनं पक्कादिगडस्म । संघषण दढ्ांदे । अभिषातसेचनं छगुदादिश्रह्वासस्योष्णजठादिना । कायखाराइ प्रसूत्यादिषु । भसृप्तिरं पुतादि , सुसिरं उदरादि' । अणन्तरं अव्यवहितम्‌ । परम्पर वल्लादिना व्यवद्दितम क्रम; इल्यादिक असक्लिष्टकम । कन्दर्प -वाचिको नमोदिभाषणम्‌ , कायिकश्व धावनादिक । ९--22. सब्वपदाणि--दुसणाईणि २४। ९--2$ छूढे-उत्सिपति । पमादो अज्ञाना]दिकस्तेन । असंपउप्तस्स--असयुक्तस्य पश्चविधप्रमादर- द्तसय । णोवज्भुत्तरस--विस्मृतिरहितस्तस्थ । ९---३30. सन्नि क्ति--पैज्ञान सज्ञा--देवगुरुधर्मयरिज्ञानं, तबस्थास्ति स सज्ञी श्रावक । सन्नायगा--संज्ञा- सका खजना मातापित्रादिका । सय--सप्तप्रकार प्रसिद्ध । सोगो--अनिष्ठाना द्व्याणां सयोगेन शोक, । इशनां वियोगेन । ९--३2 वाउसक्तं--बकुशत्वं कश्मलचा रित्रत्वम्‌ । बउस सबल कब्युरमेगठ्ठ तमिह् जम्पर चारित्त। अद्यारपंकभावा सो बउसो द्वोद नायब्वो ॥ १०--4 खंभमो-सप्रम सक्षोभ । भये--दस्युविषय | दस्यवश्षीर । स्रिलक्खु--म्लेच्छा'। बो- हिय क्षि--बन्दिका । भालवा--उजयनीतस्हरा । आतुर --तीडढित । दिगिछा--बुभुक्षा तृष्णादिमि । १०--6 (बोच्छिन्नम डंबाइ]--वोच्छिन्ना जस्स सब्वासु वि दिसासु नत्थि कोई अन्नो गामो नगरवा त, पाश्चेत्रामादिरिद्दित मडम्ब | तथा च--मडम्ब सव्वओ च्छिन्नमिति पव्यते । १०--ह अणप्पवसओ--हस्व्यादिपरवशस्थ । कारणेहिं-संश्रमादिभि प्रदर्शिते । पवृणाय विराधये- दिति शेष । १०--0 मषावादः कूटसाक्षित्वेन । मथुन अतिक्रमादिना। राजिभोजन दियागहियाइभेदत । दीध॑मार्गे बजता एनमिश्रकेलकादिरूपोधप्वानकल्य, । लेवाडइय क्षि--क्षीरान्नादि उत्सगैतो न प्राह्मम्‌ तदप्यापथ्षेत । हा 5. दुश्चिन्तियं--ऊऋणायेकव॒त्‌ वनद्वदानचिन्तनादि । दुभोषित अभूडूतोद्धावनादि । दुश्गेश्टित धावनादि । १०--25. उबहि ज्षि--ओहेण जस्म गदण, भोगो पुण कारणा स ओहोदी | जस्स दुग पि नियमा, कारणओ सो उवम्गहिओ ॥ १०--29. अशक्नितं निर्णीत दोषवदेवेद्मिति, दोषवत्वेन। विहिण क्षि--अणावायमसलोए इत्यादिकया । १०-३। [कालाइचिछय--] प्रथमप्रहरण्हीतं तृतीयभ्रदरान्‍्त यावद्‌ प्रियते अशनपानादि तत्कालछाति- क्रान्तम्‌। [ अद्धाणाइच्छियं--] यद्वव्यूतद्वयात्परेणानीत नीत वा परिभुज्यते तदध्वानातिकान्तम । १०--३32 इंद्यमाइहिं ति--४न्द्रियमाया-इन्द्रजालादिभि । चक्षरादि-इन्द्रियाणा विक्रिया आसाहभू- तिवत्‌ | गिरणित्यादि--रलानादिव्यादृतत्वेन । सागारिका वा परिष्ठाप्यस्थाने स्न्ति । स्थण्डिलस्स वाइभाव । चोरादि भय॑ वा तत्रेत्यशनादि परिष्ठाप्यातिक्रमेडपि विधिना परिष्ठापयन्‌ छुद । दुलुंभव्रव्यप्राप्ती सहसात्‌ लाभो वाजात । ११--7. गमणं--अध्नत्व हत्यसयबाहिं । ११--१9 पहद्ुवण ज्ि--अलयोगप्रारम्भादिविषया । पडिक्रमण न्ति अजुयोगस्य । परियद्वणां गृणनम्‌ । ११--0. अणवज्ञसुसिण दु खप्त । दुर्नेमित्त अपश्रुतिगोचरम्‌ । दु शकुनादे प्रतिधाता्थम्‌ । अशेच्छूा- सोत्सगंकृतिरिति युक्तम्‌ । तन्न वक्ष्यमाणगाथोक्तादिशव्दसूनितोध्यमर्थ । ११--2, उज्भाणी--षरकुयठ । णईंसंतारो--नयुत्तरणम्‌ । ११--4, संघट्ट---१ संधट्ट २ लेव ३ उपरिलेपेल्लिख्पो नदीसन्तारसत्र जद्मापे. संघष्ट:। १। नार्मि यावत्‌ छेप. । ३। परेण छेघुवरि--नाभेदपरि । ३ । बाहु उद्धपसुप्पाकादिश्ववुर्थ: | ४ । श् भीचन्द्रसूरिसं रचिता ( ११-6, १३-॥३ ११--6, स्यणास॒णाणं जायणत्यं गओ। ते य दाया घरे अत्यि । वाउडो वा । तओ इरिय पड़िक्षमिकरण जे किंचि काल सजप्नाय करेइ । ११--२0. हत्थमेसे थि त्तिन-रेढुए जाते इति शेष । ११--28., छिज्र शि--विभज्यते । पडिक्मर्ण च अनुयोगस्य छ्लेयम्‌ । १२--. आदिदशब्दात्‌ कालश्रतिक्रमणे चेति च प्राह्मम्‌, कालूद्विषयेयात्‌ । ज्ञानाचारातियारों भवति। ब्यज्षनादिभेदाद्वाकृतात्‌ । १२--४ हीलयति--वा यो गुरुम्‌ । १२--2. ओरसो चि--आन्तर । १२--5. वश्जअयति-व्यज्यते । सन्न क्ति--सकज्ञभिधानम्‌ । १२५०--6. अन्नलाभिदणेण बा भणई त्ति-यथा “धम्मों मंगल'मित्यादिपरित्यागेन 'पुत्र काड़ाणमुत्तमं, दयासंवरनिज्वरा” इत्यादि नामान्तरेण । अर्धभदसतरेव व्यज्ञनेयंत्र विकल्प्यते, यथा आचारसूत्रे आवन्त्यध्ययनमष्ये 'आावती के आवन्ती लोगसि विप्परामपन्ती ति--अन्योष्र्थ कल्प्यते--“आवन्ति द्दोइ देखो तत्थ उ भरदृष्कूबजा केया। सा पड़िया हेद्ठें ऊत लोगो विप्परामसइ /” यत्र सूत्रा्थों द्वावपि विनश्येते स तदुभयातिचार. । यथा-- धम्मो मंगलमुक्षत्थो अहिंसा पव्वयमत्थए्‌ । देवावि तस्स नस्सति जस्स धम्मे सया मसी ॥ भद्दा गे 6 रंघंति कट्टेस रहकारिओ । रण्णो भत्तसि णो जत्थ गहमो जत्थ दीसइ ॥ क्त्र सूत्र अर्थश्न द्वावपि विनस्येते । उमयविनाशे चरणनाशस्तदभावे मोक्षाभावस्तदभावीक्षानैरर्थक्यम्‌ । १२--१ 9. अणागाढे खुए--दसवैकालिकादिके उद्देशकस्यातिचारेइकालातिपादे निर्वि० । आगाढे उत्तराध्य- यनभगवल्याविके श्रुते उद्देशकादिस्थानेषु पुरिमार्धादि क्षमणान्तम्‌ । अर्थअप्येवम्‌ । १२५--22. ओद्ेण--आगाढाणागाढादिभेदतो5विशेषे । १२--23. कमेण अहिज्लतो क्ति--कमश्वाय-- ति वरिसपरियागस्स उ आयारपकप्पनाममज्ञयण । चउवरिस्रस्स सम्म सूयगड नाम अगं ति॥ १॥ दसकप्पव्ववद्वारा संव्रत्सरपणगदिक्खियस्सेव । ठाण समवाओ विय अगेए अद्ववासस्स ॥ २॥ दसवासस्स वियाहा एकारस वासयस्स इमे उ । खुड्डियविमाणमाई अज्ञयणा पच नायब्वा ॥ ३ ॥ बारसवासस्स तहा अरुणुववायाइ पंच अज्ञयणा | तेरसवासस्स तहा उद्घाणसुयाइया चठरों ॥ ४ ॥ एगूणवीसगस्स ओ दिद्वोवाओ दुवालसममग । सपुन्नवीसवरिसों अणुवाई सब्वसुत्तत्स ॥ ५॥ जं॑ केवलिणा भणिय केवलनाणेण तत्तओं नाउ । तस्सन्नद्वा विद्वाणे आणाभंगों मद्वापावो ॥ ६ ॥ १२--24 [अपत्तो]--तत्सूत्रमर्थ वा विवक्षितशाखसत्क क्रमेणाधीयानो न प्राप्नोति, पठनविषये ब्तादि पयोयो वा यस्य न पूर्यते सोघप्राप्त । अन्यश्वायोग्यो य सो अपत्तों क्षि--अपात्र ।स च तिन्तिणिकादिक. । तिंतिणिश्ो स्तोकोक्तेषपि यत्किश्वनभाषी । चछचित्त --अस्थिरचित्त । गणाद्वणान्तरं सकमणशीलो वाघ्पात्रम्‌। अन्यक्षाब्यक्त --अपात्रम्‌ । क्षत्यक्तता च वयसाइतिलघु । वयश्व ग्राणिना कालकृता शारीरावस्था | श्ुतेन चाह्म- लक्षुतो& व्यक्त । एतेषां सर्वेषामप्राप्तादीना वाचना-श्रुतपाठनम्‌ । १२--26. जहइ पत्त आएं | खुएण श्रुतिकमेण । पक्त या पातत्र-योग्यम्‌ । व दमा १२--30. निसेज्ध ति-भआवचार्ययोग्याम्‌ | च शाब्दात्‌ वन्दनकायोत्सर्गी अनुयोगप्रारम्भे उत्सगंत भायंबिलम्‌ । १२--34. बिगई भुजेऊण त्ति--जोगसमत्तीए तां भुफ्त्वा पश्चात्कायोत्सग विधत्ते | एग्ट ति एकत्र विकृतिमाचाम्लप्रायोग्यं च गृहाति । १३--४. संकादयोष्झ ८ । १३--, [मइमों]--भजाम सेवयामः कुर्म इत्यर्थः । १३--3. मंडल्लि सि--तस्या सर्वे सरश्भोज[जि]न: । मोय शि-न्योगः | जछ शि-सर्वे मठ्मलाः । पूजा राजादिभिः क्रियसाणा कुत्तीर्थिनाम्‌ । भ्रतिक्षयाद्वा म्शश्नादिका", मतानि वा तदांग्मान्‌. शुत्या । १३-१6. १५-॥। ] जीतकल्पचूर्णि--विषमपदव्यास्या श्ष लिडजजजिजल जल लू ै 3 + ५ १३-०6. सिच्छत्ताइखु--मिश्याइश्िवरकादीनाम्‌ । उदबूहा--उठपबूंदा अप्रशस्ता । १३--9. एवं शद्वादीन्‌ प्रक्षप्य प्रायक्षित्त चिन्यम--मिच्छत्ाहण ति ! स्थिरीकरणादीनाभादिश्वब्दा- दृद्दीतानाम्‌ । १३६--23. जल शब्देन देशे क्षमणमिति योग । १३--24. ओहमो त्षि--पुरुषानपेक्षया । अट्डसु वि सति मिष्यात्वविषयेषु च सर्वतोषशखपि देशरूपाछ भिक्षद्पभउपाध्यायाचायोणां अतुणों यथासंख्यं पुरिमद्धादि यथोपदिष्टम्‌ । तब देखे प्रिक्स्लुस्सेत्यादिना दर्शितम्‌ । मिध्यात्वविषयेषु च सर्वतो5ष्टास्ोपि मूलमिति वक्ष्यति । १३--26. प्रशस्तेपूपबृंदणादिषु यत्यादिविषयेषु इदमाह-एवं खिय इत्यादि । यतिविषयाणा उपबृंह्ादीनाम- बिधाने । अणन्तरुदिट्ट लि---पुरिमाई खमणंतमित्येतत्‌ । १३--३।. तप्पसाएण ति--पाश्चेस्थादिप्रसादतस्तद्वशात्‌ । पाश्वेस्थादीनां परिपालनादिकं बाच्छल्य कुर्वतां भिक्षप्रदतीनां यथोपदिष्ट प्रायक्षित्तम्‌ । १४--6. नचुु एथिव्यादीनां चतु्णों भवतु सेघइनं अप्कायं प्रति कय संधट्टनादि संभवति, द्रवरुपत्वेन स्पर्शेंडपि मरणं संभवादितद्याइ--आउक्काएत्यादि । १४--7. इसि मनारू । घटादिस्थस्य चालने पादादिना संघष्ट । परितापो गाढतरचालना। डहृयण थ वहिना परितापन । हनन॑ दण्ठादिना । पानेन चरणादिक्षालनादिना च उद्वर्ण अप्कायस्थ । १७--१. अणागाढा अनिभेराम्‌ । पश्चेन्द्रियसघट्ट्वू--तदद्दंजातमूषिकागिरोलिकादिसवैविषयो हृश्यः । १४--3 पमाय०--प्रमादतो$पद्रापणे | एककल्लाणर्ग । नि० । पु० । ए० । आ० । 3० । इत्येफकश्या- णकादिविषयः । १४--5. तत्र झषावादो धर्मास्तिकायादिसर्वद्रव्यविषयः । अदत्तादान प्रहणधारणीयवस्तुविषयम्‌ । परिभ्रहस्तु सचित्ताचित्तमिश्रसर्वद्व्यविषय । क्षेत्रतो लोकालोकविषयौ मृषावादपरिपर ही । अदत्तादान च प्रामाया श्रयम्‌ । कालतथष दिवारात्री वा । भावतो रागतो देसतो वा। त्रितयमपि जपधन्यादिवस्तुविषय रषावादायपि जपन्याशुच्यते । १४--20. छेवाडयपरिवासे पात्रतुम्बकपात्राबन्धखरण्टितपयुषितत्वे अभत्तहों । सुंव्धादी च । १४--२2 पदढमभंगो जि--दिवा शहीतं दिवा भुक्त परं राज्युषितं द्रश्व्यमित्याद्रो भज्ञ- ।१। दिया शद्दौत॑ रजन्यां भुक्तमिति द्वितीयः ।९। रजन्या णद्दीत दिवा भुक्तमिति तृतीय ।३। रजन्यां ग्ृदीत तस्पामेव भुक्तमिति चतुर्थ, ।४। द्विप्रिचतुर्थेष्वष्टमम्‌ । १४--33. भोहद्ेसियं जमप्पणोद्ाएं रद्धं तम्मज्माओ भिक्‍्खाओ कइ विकप्पई, दाना य एध्यति तस्ते दते १। उद्देसकड़े कम्मे एकेके चउव्विद्ों मेओ--जावतियमुद्देस, पासंडीणं भवे प्रमुद्ेस, समणाणं भाएसं, निग्गंधाणं समाएसमिति चत्वारो मेदा । तन्नाये जाव दृ३ उक्कोइएयस्सइ पासंडीण दायब्य न गिहत्थाण २। निप्रेन्धशाक्यादिमेदत. पश्चथा श्रमणास्तेषाम्‌ ३ । निग्गन्थाण साह्ूणमेव न$न्नेसिं ४। तत्थ संखब्िभुन्तुन्वरियं चउन्हमुद्दिसइ ज॑ तमुहिद | वंजणमीसाइकड कर्रवादिकं । तमग्गितवियाइ पुण कम्म॑ गुल विम्धारेजण मोयए वंधिणा--दृति कर्मौदेतिक । १५--7. यावदर्थिकमिभ्रपासंडमिश्र[ साधुमिश्र |मेदतजिघा सिभ्रम्‌। यंत्र खग्ूहयोग्यजलकृणादीनां सरध्ये अधिकतरजलकणादीन्‌ मिश्नितान्‌ कृत्वा यदशनादि प्रथम्तो5प्रिज्वालनाइृहणदानादिश्रस्ताव एबं रादुमारभते । यावदर्थिकाधर्थ तप्निधा । १५--9. संघाडगस्स एगो भिक्‍खरयाही। वीओ दिसुवओगं देश । तहए गिद्दे निष्फेडिया। इत्तरहवियं । तआओ परेण सर्वेमेव चिरद्भबिय । १५--0.सुहुमा--कप्पट्ठगस्स भक्त न देह, भणइ साहुस्‍्स अद्वाए उड्लिया तुम वि दाह ति। बायरा-« कृप्पद्विए विवाह काउकामों रहमईंसु साहुसमागमं जाणिकण ओसक्कृ्ण करेला । १५--. आदारसेलाइयं साहुणो भुंजिस्संति, रंधिउं अभ्ो सब्वमेवादारे बहि नीणेह साहुअहाएं। एय॑ पागडकरणं | स्यणप्पईवजोईवायायणकुडछेड्नइएहिं उजोयकरण साहुअठ्ठाए [ एयं पगा-] सकरणं | ४द भीचन्द्रसूरिसंरचिता [ १५-6- १५-2१ १७५---6. आदहर्ड ति--सग्गामाहडे निप्पश्चवायाएं ।४॥ भाइडं चिय आइन्नमणाइन्तं च, तिप्न॒रंतरमाइंभ । १५-- 8. दददरक जतुप्रध्यादिरूप. | पिद्दितं च छगणादिना ओछित्त । १५--।१, मार सीककप्रासादोपरितलादिकमशिप्रेतम्‌ । तस्मादाहतं करप्राह्म॑ यदब्नादि दात्री ददाति तन्मा- छापहतम्‌ । नवरं तिधा एतजपन्यमध्यमोत्कृष्टभेदत! । जघम्योत्कृष्टयोरन्तरे मध्यमो गम्यतत एवेति नोक्तम्‌। पाएण्उ( 'ण्यु )त्पाटनमाञ्रस्तोककियागृहीतत्वाजघन्य लघु । मशकायघो दत्वा यहदाति शिक्षक्ादेस्तन्मध्यमं भाला- पद्वतम्‌। यदा च उचत्तरशिक्ककादिलेडुकादिग्रदणाय मूडकनिश्रेष्या,्दूखबल वा भ्रधों दा तस्मात्‌ ददाति तदोत्कृष्ट भवति । अन्राप्यायामम्‌ । १५--20. अच्छेज्े ति-प्रभुरंददिनायकः, अन्येषां दरिद्रकोठुम्बिकाना बलाद्वातुमनीष्सितामपि थहेय॑ ददाति तत्प्रभुआच्छेदम्‌ । खामी प्रामादिनायक', स यदा साधुन्‌ दृष्ठा कलहेनेतरथा था कौटुम्बिकेश्यों्श- नायुदाल्य ददाति तदा खाम्याच्छे्म्‌ । स्तेनाथारास्ते सार्यकेभ्यो बलादाच्छेय यत्पाथेयादि साधु+्यो दय्युखत्‌ स्ेनविषयाच्छेयम्‌ । १५--2]. अणिसट्ठं ति--बहुमि साधारणं बहुजनसाहिक यदशनादि सखब्यादोी खाम्यमनुज्ञनात यदेको दष्यात्तत्साधारणानिसश्मू । चोक़फ़ो भोजनम्‌ । यथा किठ कश्चिस्कोठम्बिको भक्ताहारकहस्तेन गह्ात्‌ क्षेत्रे ह्लिकाना भोजनाथ चोहनक प्रस्थापयति । तत्र कीठुम्बिकेन साधूना दानाय मुत्कलितचोह़कमध्यात्‌ यदि हालिक किश्वि- त्खाधवे ददाति तदा चोककानिसष्ठमू । तथा जड्स्थ हस्तिनः सम्बन्धि पिण्डरूपं वस्तु राज्ञा गजेन वाननुज्ञात- त्वादनिसष्ट जड्ञानिसष्टम्‌ । १७-22. यावदर्थिका समस्ताथिन । पाषण्डिकाक्षरकादय । साधवश्व निश्रेन्‍्था । अत्र शहिण ख्ार्थमम्रि- ज्वालनायाद्रदणदानान्ते आरंभे कृते सति पश्चात्खार्थकल्पित तन्दुलमध्ये कर्पटिकार्थ तन्दुलादीना माणक॑ सकत्पित प्रक्षिप्य राधभोति यदा, तदध्यवपूरक । स च त्रिधा--खग्रहयावदर्थिकमिश्र , संग्रहपापण्टमिश्र , खगहसाधुमिश्र इति । इह आहाकम्म उद्देतियवरिमतिय, भत्तपाणपूइ्य, पासटसाहुमीसं, बायरपाहुडिया दुविहा, अज्ज्ोयर- चरिमदुग एए छठग्गम दोसा अविसोही कोडी, विसोहिकोडीए अवयवेणाविच्छिफ सव्बमभोज विध्वादि(ति? ) इृषेणेव भक्त । बिसोहिकोडीए पुण सथरणे परिट्ठवेइ । अलमे अन्नस्स असथरतो या तम्मत्तमेव परिट्ववेद । जइवि य अवयवा तह्दा विसुद्धों । १०--24. थाई पचद्वा-खीरधाई मज्जण-मंडण-क्रीेलावण-अकधाई बालपालिका ज्री धात्रीत्वकरणमिति तत्त्वमू । एवं यथासभवमन्यत्रापि । दूती परस्परसन्दिशर्थक्थिका सत्री-दूतीत्वकरणमित्यर्थ । तत्कथयति--- खग्मामे परपामे वा । खनिवासग्रामस्येव सस्केधन्यस्मिन्‌ पाटकादों, परप्रामे वा संदेशक नीखाय पिण्ड लमते स दूतीपिण्ड । १५--28. अतीतायर्थतूचक निमित्त जातिकुलगणकर्मशिल्पाना कथनादिना आजीवनम्‌ । १५--26. वनीपकत्व पिंडट्टा समणा-तिदि माहण-किविण-सुणगाइ-भत्ताणं अप्पाण तब्भत्त दसइ जो सो वर्णीवमों त्ति । उउ(“)बर्णयति पिण्डार्थमात्मानं दायकामिमतेषु श्रमणादिषु सभक्त द्शयतीति भक्तवशाद्वनीपक. । यहा वर्नी लब्धार्थरूपों पाति पालयतीति बनीप , स एवं वनीपक । १५--27. चिकित्सा रोगप्रतीकार । तत्न नाइ वेथो, अप्पणो वा भमुगो वाही अमुगदन्वेण किशलेत्ति, एग्ा सुहुमतिगिर्छा । बायरा वाय सिंभ-सन्निवाय-समुत्थाण रोगाणं ओस्नहमाशय साहई। सयमे[वरे किरियं करे । बाहिवियारं किरिये वा से साहेइ ॥--क्रोघादय प्रनीता । १५--28. बयण-संथवो--पुर्िं घुणधुईं काऊण पच्छा मगाइ। पच्छासंथवो--नाम दिशे पच्छा संथरव करेइ “अमुगत्र २ यूय दृष्टा ! इत्यादि च । १५--29. सम्बन्धि-संथवो--नात्रकयोजनम्‌ । मायापियाइओ पुम्वसंबन्धि-संधवो; सासससुराहणों पच्छासम्बन्धि-संथवों । विज्ञा ससाहणा । असाहणो अंतो । इत्वी-पुरिस-विसेसों वा । चुण्णो अजगाइओ। पायपढे- बाइओ जोगो । गर्भादानपरिसाडों मूलकम्मं । + १५-३3।, १६-।३ ] जीतकस्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या पु १५--३. दाह्ितं सैभाविताधाकम्मोदिदोषं भक्तादि । चतूरूपों मज्ञअतुभह:-प्रदणे भोजने शक्लित' । भक्ता- देप्रहणकाले भोजनकाले च यदि पुनरमुकदोषवदिदमिति शहावान्‌ ।१। प्रदणे शब्बितों न भोजने ९ भोजने शक्लितों न भ्रहणे ।३। न प्रहणे न भोजने शद्धित- ।४॥ इति। एतेषा सभवों यथा-पग्रृहस्थेन प्रचुरां भिक्षां भिक्षाच- रेभ्य' खस्मे वा दीयमानं दृष्ठा चिन्तयति कि खगहोपस्करतया साधुभिक्षाचरादिनिमित्तराद्धतवा वा चेतसि शह्ितः । ततो छज्जा-संक्षोभादिना एनमर्य शहिणं प्रश्नमितुमशक्लवन्‌ शक्षितों शह्ाति, शब्ितस्तथैव भुड़े ।१। द्वितीयसयैव चेतति शद्वित तथेव गृहस्थं प्रश्नयितुमशक्लवन्‌ गृहीत्वा खोपाश्रये समागतस्नततो भोजनसमये त॑ दोलायमानचेतर्स हृ्ठा अपरसाधुसद्विक्षानि शड्कीकृतगाही तदभिप्रा्य ज्ञात्वा वदति यथा-साधोस्तद्वहे प्रकरण लाहणं वा समा- यातमिति--तद्गच धु॒त्वा श॒द्धमेतदिति निश्चित्य विगतशझ्लापरिणामस्तद्ुद़े इति द्वितीय । गुरो पुरत खभिक्षा- तुल्यभिक्षामालोचयतः साधुन्‌ श्रुवा सजञ्ञातशझ्ुश्विन्तयति यथा--यत्खरूपा बाही मया भिक्षा लब्धा अमुकगहे; अन्यैरपि तत्र तत्खरूपेव बह्ली लब्धा । ततो मा कदाचिदियमशुद्धा भविष्यतीति । तथा चासौ शह्डितचित्तस्ता भुज् इति तृतीय । च॒तुर्थर्तु सभव प्रतीत्य सुगम एवं । अन्न द्वितीयभन्नोषपि श्रद्णापेक्षयव सदोष । परमार्थतस्तु शक्कितप्रहणदोषस्यथ॒निवर्तितत्वाच्छुड एवं । तृतीयो बहुतरमदोप । उभयत्रापि भोजनशड्डितत्वेनाशुद्धत्वात्‌ | अत. प्रथमतृतीयावाश्रित्य यत्प्रायश्वित्त निरपयति । य कछ्चन दोषमाधाकर्मादिक शड्डते, सभावयति अमुकदोषमिति तत्सत्क प्राप्तोति । सम्नक्षितमारूुषितम्‌ । निकश्षिप्त न्यस्तम । पिहित॑ स्थगितम्‌ | सहतमन्यत्र क्षिप्तम्‌ | दायग त्ति दायकदोषदुश्म्‌ । उन्मिश्र पुष्पादिमिलितम्‌ । अपरिणत भ्रप्रासकीभूतादि । लिप्त दुग्घादिखरंटितम्‌ । छर्दित परिशारितम्‌ । एते दश शब्लितादय एपणादोषा । १५--33 अधुना घप्रक्षितादीनाह-सश्ित्तेत्यादि | प्थिव्यबूवनस्पतिमि सच्ित्तम्रक्षितयोगात्‌ । करमात्न देयमपि सवित्तम्‌ । अचित्तयोगादचित्तम्‌ । तेन पृथिव्यादिभि सचित्तेम्रक्षित प्रृर्विकायम्रक्षितमित्यादीनि तत्त्वम्‌ | १५--३4. ह॒त्थेण ति । मत्ते वि एवं चेव । निर्मिश्रकंम अपरिणत सचेतनम्‌। १६--2 ससिणिद्धे-तत्र ह्रिग्थमीपक॒क्यमाणखरण्टनजलम्‌ । हस्तादिउदकादे जलतीमित तदेव । १६-- 6. गरहियमज्ञायमक्खिए क्ति--मासवशाशोणितटरामृत्रोचारादिसि शिष्टजनस्थाभक्ष्यापेयै" साक्षा- न्त्रक्षित सत्‌। एतम्रेक्षिताभ्या करमात्रान्या दीयमान सत्‌ यतीनामकल्प्य उद्बाह्ददि दोषात्‌ | ससक्तिमदद्वव्यैद्द- व्यादिभिलपकृन्मध्वादिभिश्व॒ हस्तमात्राभ्या प्नक्षिताथ्या देय यदेतैर्दीयमान श्नक्षितं तदकलयमेकेन्द्रियादिवध- दोषात्‌ । मात्रादिलममक्षिकाकीटिकापत ज्ञादिसत्त्वव वदोषा चति । गहिते5गहिते च॒ म्नक्षिते आयामम्‌ । १६--7 निश्षिप्तश्वतुभज्न --सचित्त प्रृथिब्यादि सचित्ते प्थिव्यादो निक्षिम न्यस्तम्‌ १ सचित्त अ्चित्ते २. अचित्त सचित्ते ३ अचित्तं अबित्ते ४ निक्षिप्तम्‌। अत्र प्रधमद्वितीयभड्योग्रेहणप्रायोग्यद्वव्याभावान्न प्रायश्रित्त- बिन्ता । चरमस्तु शुद्ध एवं । अतस्तृवीयप्रायक्षित्तं निरूपयति--एत्थेत्यादिना--प्ृध्वी कायो मृत्तिकालवणोषतूवरिका वर्णिकादिरूप । अप्कायो जलावश्यायहिमकरकादि । तेजस्कायो मुमुराज्ञारादि । वायुगुज्ञावातादिरूपो दतिस्थश्व । प्रत्यकवनश्पतिकायो धान्यत्रीहिकाहरिताप्रादिफलछप । अनंत साधारण. सूरणगजरादिकन्दरूप । तअसाः कीटिकामत्कोटकन्ध्वादिरूपा । एते च सर्वेषपि प्रथिव्यादय. सचित्ता मिश्राश्वात्र प्राह्मा । तत एथिव्यादिषु श्रसान्तेषु निश्षिप्त देव वस्तु यदचेतनम्‌ । अनन्तरमव्यवधानम्‌ । परम्परं स्थगनिकादिना सब्यवधानम्‌ | सान्तरें पृथिव्युपरि स्थगनिकादी कत्वा देय मुक्तम्‌ । १६--]2 अणन्तवणस्सइ क्षि--उश्यादिख्पो । वीयनिक्खित्त इति प्रत्येकबीजेषु अ्णंतकायबीजेबु च अनन्तरपरम्परनिक्खित्ते देये नि० । १६--3. पिहिए चडभंगो ज्षि--यथा-सचित्तं सचित्तेण १, सचित्त भ्रचित्तेण २ भवित्त [ सचित्तेण ३० अचिस ] अचित्तेण ४ पिहिय॑ । अन्राप्यनन्तरपिद्वितपरम्परपिहितता बाच्या। तथा चतुर्भज्षे--अत्रापि गुरुलहु- पदाभ्यां चतुभेज्ष स्यात्‌ू, यथा-गुरुक॑ गुदकेण, रूघुक लघुकेन, लघुक गुरुकेण, ऊघुक लघुकेन पिद्वितम्‌ । गुरुक भारिक॑ महद्देयमाजनम्‌ । गुरुणा भारिकेण प्रहेडकादिना पिहितम्‌, ग्र॒दकक॑ लझुकेनाल्‍पभारेण छगनकादिना; छघुक देयभाजन गुरुकेण प्रदेडकादिना; ऊघुक लुघुकेन छगनकादिना पिहित। आज और ची की ००० ८+-०००१०५००++ नल ह्८ भीचन्द्रसूरिसंरचिता [ १६-।३., १७-०७ ५2-०० ९०५- १६--3. सचिसेण पुढवीत्यादिना तृतीयभश्नस्थ अचित्त सचित्तेण पिद्दितमित्यत्थ व्याख्या कृता। अण्टकादिक सनित्तमृदावश्ण्धमनन्तरपिहितम्‌ | तठआ सृत्तिका गर्भेच्छजिका । अवष्टब्ध मण्डकादिपरम्परपिद्ितम्‌ । एयमप्काधादिशेषैरषि भावना कायो । अस्मद्धिरचितपिण्डविशुद्धिज्ती दर्शितत्वाच । १६--8. संहतम्‌--येन मात्रकेण दात्री दास्यति साधोरशनादिकं-तप्र प्रथिव्यादिक तुषादिक वा यत्स्या- शदन्गत्न सचित्ते अचित्ते वा क्षिप्तवा तेन रिक्तीकृतेन यदि स्राधोदंदाति तत्संहततमशनाुच्यते । अन्न मन्नचतुष्टयं- सचित्ते सतित्त-सचित्ते ए्थिब्यादो, सबित्त प्रथिव्यादि संहतम्‌ १. अत्रित्त तुषादि संहत २. अवित्ते सचिस ३. अधित्ते अचित्त ४, संहृत । अत्राप्यनन्तरपरम्परता वाच्या । परित्तवनस्पति पत्रशाकादि । एथिव्यादिषु त्रसान्तेषु सचित्तस्थानेषु संदरणे साध्यर्थ कुते भाश्नकाम्तेन ग्रहीतेदशनादो आ० । एकस्मादन्यश्न संहत्य भूयो5पि ततो$पि योग्य संहृय तेन ददत' परम्परसहरणम्‌ । १६--22. बीयसाहरिए तिलादिगोचरे । १६--23. दायग(यारो)क्ति--मत्तो मदिरापानोत्यमद्विकल' | उन्मत्तो महासद्भामादिजयाइपोध्मातो प्रहद्दीत थ । १६--27. पम्हमाणी एथिव्यारीन्‌ । सेसेसु सि भग्नेषु । १६-29. ओयचतन्तीए--हम्येण द्ब्यान्तरं गृहन्त्या' । १६---30. परे लव उद्दिस्स क्ति--परकीयमिदमित्युकत्वा ददाति । यद्दा यत्र दात्री परेण निर्भत्स्यते । १६--३., उम्मीसं ति--मिश्रणस्मोभयाश्रितत्वात्‌ , उत्प्राबल्येन मिश्रितं दाडिमगुलिकादिना, पुष्पादिना था सद्द यन्मिलित तदुन्मिश्न॑ मण्यते | ते द्वें अपि वख़ुनी यत्रोन्मिश्य ददाति साधवे तदशनादिउन्सिश्रम्‌। तत्र परित्तवनस्पतिपत्रपुष्पशाकादिना सचितेन उन्मिश्रे आ० । १६--३. भपरिणतं अप्रासृकीभूतादि । तश्च द्रव्यमावमेंदात्‌ द्विधा । पुनभोवापरिणतं दातृगहीतृयोगात्‌ द्वि- धां वा। तश्न परिणतब्रब्ये सचेतने दायकेन साधोरदीयमाने द्रब्यापरिणतम्‌, दातृविषयभावापरिणत॑ तु द्वयोश्रो- श्रोद्रिंखामिनोमैष्यात्‌ यत्राशने साधारणे एकेन दीयमाने द्वितीयस्य यत्र भावों अपरिणतों अभवनशीलुस्तह्वा- ठूँभावापरिणतम्‌ । १७--. द्वग्यभावपदाभ्या चतुर्भनश्नोषत्र अनिसुश्भावापरिणतयोश्रासमक्षकृतों विशेष । गशहित्विषयभावा- परिणत तु यत्र द्वयो खाध्वो्मिक्षां गतयोरेकस्य मनसि तदशुद्ध परिणतम्‌, अन्यस्य तदेव शुद्ध मनसि परिणतम्‌; तहदपि भावापरिणतम्‌ । १७--2. [सं॑सत्त]--संसक्तेन दध्यादिना करमात्रकखरण्टकेनाशना दिप्रहणे लिप्तदोषा । १७--३ प्रुयिव्यादिषु दीयमाने छर्दिते परिशाटितम्‌ । १७--$, संयोजणा-वाहिं भायणे त्ति । रसहेतुरुद्वव्यं मिक्षाटने शाल्यादिकूर क्षीर वा प्राप्तवान्‌ । तानि बहिरेव पृथक भाजनेषु गृद्धातीति। वसतेबंहिद्ेव्यसंयोजनाया चेतसा क्रियमाणायां बाह्या द्वव्यसंयोजना । बसतावायतेन रसहेतोद्वेब्यसैंयोजना अभ्यन्तरा । संयोजना त्रिधा-पात्रकविषया, कवलूषिषया, मुख़विषया च। ययेन सद्द युण्यते तत्तेन सद्द भक्षयतीति भाव इत्सन्तवैदनाश्रया। “बत्तीसकवलमा्ण रागदोसाहिं धूमइंगारूं । बेयावज्ञाइया कारणमवहिंसि अदयारो ॥” कारण वेदनवेयाद॒त्यादिधो(?)४निर्वेहति | भोजनाभावे आ० । १७--9. घृत्रगाथा ३५-३६. एतस्याह्या-कर्मोदेशिकचरिमत्रिके । पाषण्डि श्रमणनिध्रेन्थास्ये पाषण्डिकमा दिके कस्मे । आघाकम्म । पाषण्डमिश्रे खसाधुमिश्रे च । बादरप्राभतिका विवाहुस्सक्षण-ओसक्षणहवा । सप्रत्यपायपरप्रामा- श्याहतम्‌ । यत्रात्मबिराघना । लोमपिष्हठ.। अइरं अणंत क्ति--तिरोइन्तधोने, न तिरमतिरं अन्तर्घानं बिना निरन्तरतिद्मर्य: | अर्य भावार्थ---अणन्तकाये पूयलियाई निक्खित्त साहरियं मीसियं वा। अणंत॒क्ायेण वा पिहिय॑ । आदिभदणादनन्तापरिणितेषनन्तछदिते चर क्षमणम्‌। अनन्तकायाव्यवहितनिक्षिप्तपिदितसंहतोन्मिश्नाउपरिणतछर्दि- तेषु क्षमणम्‌ । रसहेतुसंयोजना रागान्वितमोजने च, व्तेमानभविष्यज्निमित्ते व क्षमणम्‌ ॥ जावंतिकाश्य कर्मे देशिका- बमेदः । मिश्रप्रथमभेद्‌. । घात्रीत्वम्‌ । दूतीत्वम्‌ू । अतीतनिमित्तन्‌। आजीवनापिण्ड: । बनीपकत्वम्‌ । बादरलिकिस्छा- १७-३. १७-24 ] जीतकस्पचूजि-विषमपदब्यास्या श९ मम ज क कप आम ८५३५5 ५०५>न्‍कनन न >५३0>सीभीीली नीम नील ५ करणम्‌ । क्रोधमानपिण्डो । सम्वन्धिसस्तवकरणम्‌ । विद्यामआञ्योगचूर्णपिण्डा । प्रकाशकरणं द्विविधम्‌ । द्रन्यकीतम्‌ ; आत्मभावक्रीतम्‌ । लोकिकप्रामित्यपरावर्तने । नि प्रत्यपायपरप्रामाभ्याहतम्‌ । पिहितोद्धिभ्कपाटोद्वि्रे । उत्कृष्माला- पहुतम्‌। सर्वमाच्छेयम्‌। स्र्वमनिसृष्टम्‌ । पुर कर्म । पश्चात्कर्म। ग्िते द्रव्यप्रक्षितम्‌ । प्रत्येकाव्यवद्दितनिक्षितपिहित- संहृतोन्मिभ्रा5परिणतछर्दितानि । प्रमाणोछद्नम्‌ । सधूममकारणभोजने चेति। भत्रेदं (अथे० 0 ) सूत्रपदम-- कारणधिवज्लिए शि--कारणविवजओ नाम अकारणे भुड्ढे, कारणे न समुद्दिसइ । एतेघु आचाम्लं दीयते । १७--3. अज्ञोयर [ गाहा ३९ ] अध्यवपूरकान्यमेदद्यम्‌ । कड़े क्तिकृतैंदेशिकमेदचतुष्टयम्‌। भक्त- पानपूतिकम्‌ । मायापिण्ड । अनन्तकायव्यवद्वितनिक्षिप्तपिहितादीनि। मिश्रानन्तकायाव्यवद्दितनिक्षिप्तानि चैल्येघु एकभक्तम्‌ । तथा ओघोदेशिकमुद्श्मेदचतुष्टयम्‌ । उपकरणपूतिकम्‌ । चिरस्थापितं प्रकटकरणम्‌। लोकोत्त[र]- परावर्तिकम्‌ । लोकोत्तरअश्रामित्य च। मखमाइ परभावकीतम्‌ । नि प्रत्यपायसंप्रत्यपायखप्रामाभ्याहतम्‌ । दईरों- द्वित्रमू । जधन्यमालापहतम्‌ । उलझरे पढमे त्ति--यावदर्थिकाध्यपूरक सूक्ष्मचिगिच्छागुणसंस्तवकरणम्‌ । तिगमक्खिय तक्षि--मिश्रकर्दमेन लवणसेटिकादिना व प्रथिवीम्रक्षितमू । आउ उदक। उक्ुद्गरोहे परित्तो-- एये तिगमक्खियं | दायगो घहए सि-किंचिदयकदुष्टमू । यत उक्तम--- बाछे मूढे भत्ते उम्मत्ते वेविए य जरिए य । एए बिसेसवज्ञा एएपिं दायगो वहय॑ ॥ १७--5. पत्तेय० [ गाहा ४२ ] पत्तेयववणस्सइकाए सचित्तपरंपरद्वविएं | तेण चेव पिहीए साहरिए मीसे परंपरनिक्खित्ते अणतरनिक्खित्ते--प्रत्येकपरम्परनिक्षिप्तादीनि मिश्रानन्तरनिक्षिप्तसंहृतादीनि च। सर्वेषु पुरिमाधेम्‌ । संकाए त्ञि--ज दोसे आसकइ तस्सेव दोसस्स ज पायच्छित्त त आवज्ञइ । १७--6. दत्तरठबिए० [गाहा ४३] करमात्रस्थ इत्वरस्थापितम्‌। सुक्ष्मप्रा/ूतिका सल्लिग्थस रजस्कप्नक्षितम्‌ । पृथ्वी अपूवनस्पतिम्रक्षितम्‌ । शथिव्यादिषु मिश्रेषु परम्परनिक्षित्ति नि० । वनस्पतिमिश्रे परम्परनिक्षिप्ते नि०। प्रत्मेकबी जेध्वनन्तकायबीजेषु वानन्तरपरम्परनिक्षिमे । एवमेतेबु स्थापितेषपि देये नि० । अविगई--निर्विकृतिकम्‌ । ठवियगाईसु क्षि--आदिप्रदरणान्मिश्रपरम्परपिदििते नि० । एवं सहते5पि । परित्तवणस्सइओमीसे नि० । वीउम्मीसे नि० । १७--9 अतिप्पमाणे व त्षि-तेष्वेबातृप्यमानस्तदेवातिमात्र पुश्तया कुर्वेन्‌ । १७--20, संघरिसेण--होइया । १७--2!, ज़मलिओ--जमलतया स्थित । १७--22 बदट्दा गोलया | समास सि समस्या । १७--24. अरदृह्मदिसस्क आजीबे रुतेषपि क्रियमाणे खमर्ण । [ गाथा ४६ ] अम्यश्रोच्यवे--जिणकप्पिया थेरकप्पिया य दुविद्या स्राहुणो । ओहीय-ओबग्गद्दीय-मेया हुद्दा उवही । तत्थ-- भोहेण जस्स गहण भोगों पुण कारणा स ओद्दोही (ओघोपधि )। जस्स य दुर्गपि नियमा कारणओ सो उवग्गहिओ ॥ --जिणकप्पिया उपध्यपेक्षया । अप्टविधोपधयः-- बिय त्ति चउक़ पणग नव दस एकारसेव बारसगं। एए अठ्ठ विअप्पा उवहिंमि उ द्वोति जिणकप्पे ॥ श्यहररण मुदहपोत्ती दुविद्ो कप्पेकजुत्त तिबिद्दो उ। रयहरणं मुहपोत्ती दुकप्प एसो चउद्धा ओ ॥ तिन्नेव य पच्छागा रयद्दर्ण चेव होइ मुद्पोत्ती | पाणिपडिग्गहियाण् एसो उबहीओ पचविद्दों ॥ पत्तगधारीण पुण तवाइमेया इबंति नायब्वा । पुव्वुत्तोवद्दिजोगा जिणाण जा वारसुकोसों ॥ पत्ते पत्ताबंधो पायद्ववर्ण च पायकेसरिया । पडलाइ रयत्ताणं च्र गोच्छओ पायनिजोगो ॥ तिलेव य परछागा रयदरण चेव द्ोइ मुहपत्ती । एसो उ दुवालसबिद्दो उवही जिणकप्पियाण तु ॥ एए चेब दुवालस मत्तय अदरेगचोलपहो य। एसो उ चउददसविद्यो उवद्वी पुण थेरकप्पंति ॥| उकोसो अह्ृबिद्दो मज्त्तिमओो दोइ तेरसबिहदो य। जद्धभो चउज्विद्यो चिय अज्वां एस तिविह्ुदद्दी ॥ लत पढिस्मदगो अश्मितर बाहिरा नियंसणिया । संघाडी खंघकरनी उकोसो एस अट्टविद्दो ॥ 9 जी० कुछ चु० ५० श्रीचन्द्रसूरिसंरचित्ता [ १८-9१. १९-। लिजजजजजज जलन मध्यम रूयोद्राविघः-- पश्ताबधो पडला रयद्वरर्ण मतकमढ रयताणं । उग्गहपट्लेर्वलणिया ओक्षच्छि कंचु वेकच्छी ॥ गोच्छगपत्तद्ववण मुहणतगकेसरि जद्न्नो । अघन्योपप्रद्धिकः स्थविराणां एसो । तत्य पीढग ति काप्टच्छणणमय पीठ निसेज्ज पाउछण । दंडगा-पमल्लणी दडापुछणी । घट्टगा पात्रधर्षणोपला. । वर्षाइशिसु त्राणाय रक्षणाय । बाल त्ञि कम्बल । सूत्रमयम्‌ | सूई--तालप त्रसूच्यादिखुम्प %.। कुडसीसग पलासपत्रमय खुम्पकम्‌। पत्रक॑ वशमयम्‌ । सेसतिग बाल्सौत्रिकादन्‍न्यत्‌ । घासत्ताणे क्षि-- वर्षाकालोपयोगिसस्तारो अज्लुसिरों काष्ठफलकादि | झुसिरस्तृणादिमय । डेडेत्यादि--तत्व लट्टी आयपमाणा, विरट्टी चउरंगुलेण परिहीणा । दण्डो बाहुपमाणो, विदृण्डओ कक्‍्खमेत्तो उ ॥ पिरसो उवरि चउरबुलदीदा नालिया। अवलेहणी वटादिकाप्ठमयी पादलेहणी--“वहउंबरे पिलक्खू तस्स अछासंमि चिंचिणीया / चर्मंत्रिकम्‌। अत्धुर त्ति भूमावास्तीय॑ते अम्यादिभये प्रब्बादिषिकरणाय च | पाउर सि षर्द[पदि]कादिभये यत्‌ प्रावियते । तलिगा उपानह । यद्वा कृत्ति तलिगा बच्चा (वध्चा 2) यद्वा विद्वारे उपकर- णस्य शरीरेण सह बन्धनार्थ पट्ट | पल्हत्थी योगपट्ट । मध्यम ओपप्रहिक | वारगो क्षि--ससागारिके उद- गनिमित्तं, निद्यं जनमध्य एवं तासा वासात्‌ | उत्कृष्टीपग्रहिकस्तूच्यते-- अफ्खा० गाहा [ १८-5. ]--सथारको द्विविध --एकाजस्तिनिसकाप्रपद्रूप , तदितर कम्बिकादि- मय । उत्सगंपदापेक्षया द्वितीयपदमपवादसूत्रोत्कृष्टीपत्महिक कथ्यते। पुस्तर्पछ्षक--“गडी, कच्छवी, मुद्ठी, सपु- डफलए तहद्दा छिवाडीय त्ति--एतत्खयमगश्रे कथयिष्यते । फलग ति पह्चिक्ा, समवसरणफलकं वा । कमढग निजोद्रमान तत्‌ प्रतिसयतिनीनाम्‌ , अन्यथा एकभाजनभोजने गुरुकवलोत्पाटने एकया अन्यस्पा अप्रीतिसंभव* स्थात्‌। १८--१, ओग्गहणंतगं--ती सरशम्‌ । पह्सतद्वन्धनम्‌ । १८--], साह्ण ओहिओ त्ति--मुदपोत्तीयपायकेसरियाइओ चउरो ते चेव क्ति। पडिग्गद्दो प्रच्छा- दनत्रयम्‌ । अन्न य ज्षि--अब्मितर नियसणी १, वाहिनि० २, सघाडी ३, खंधकरणी ४, पत्ताबधो, पडला, रयत्ताणं, रयहरण च ४, जपघन्यमध्यमोत्कृशभेदत प्रागृक्तत्रिविधोपधिमंध्याजघन्यविच्युतलब्धत्वे नि० । मध्यमस्य विच्युतलब्धत्वे पु० । उत्कृष्टस्य विच्युतलब्धत्वे ए०. । जघम्याप्रत्युपेक्षितत्वे नि० । एवं मध्यमाप्रत्यु ५ पु० । उत्छृशप्रत्यु० ए० । न पडिलेहिओ त्ति--निवेदयितु गुरुआ्यो विस्प्रृतत्वे जघन्यस्य नि० | मज्झ्िमे पु० । उत्कृष्टय ए० । प्रकारत्रयेण सर्वस्योपधे संपन्नत्वे आ० । १८--2!. हारिय० [ गाहा ४७ ]--द्वारितत्वे जघन्यस्थ ए० । मध्यमस्य द्वारितत्वे आ०। उत्कृश्स्य द्वारितत्वे खमणम्‌ । जधन्यघोतत्वे ए० । मध्यधोतत्वे आ०। उन्कृश्स्य घोतत्वे उ० । उपधेज॑घन्यादिभेदस्योद्रर्म कर्तु न निवेदयते तत्नापि ए० । आ० । च०। भाचार्यरदर्त्त परिभुन्ने । त्रिविधमुपर्थि आचार्योनुज्ञा विनाप्यन्यस्मे ददाति । ०० । भा० । च० । सच्चमि छट्टं तु क्षि--जघन्यादिभेदतज्निविधस्य द्वारणे... ..श्र द्वेष्पि काछे बच्नप्रक्षालनादौ षष्ठ॑ स्थात्‌ । १८--३30. झुदरणंतय० [ गाहा ४८ ] एवं तावेत्यादि । तिबिद्दोवहिणो विभु(ब)ग्रेत्मादि [गाहा ४६] श्जोहरणमुखवस्तरिका विद्वाय अन्योपधी द्रश्व्यम्‌। अन्नप्रति भ्रम्नया उफ्त (?)। तत्न मुदृपोत्तियाए पडिय्राए लद्धाए य निब्कियं । एवं रयद्दरणे वि। यदि पुनर्द्धितयमपि पतितमथ च न रूब्धं तत्राइ--अह्द पुणेत्यादि । नपरे नासिय परचक्रादिसम्पातेन | हारिय आहलस्यादिना प्रमादेन । १८--३।. काल० [ गाहा ४९ ] पारिद्वावणियं अविदीए क्षि--33. स्थन्दिलायशुदया । १८--३4. विकालवेलाया पानकद्वारस्थाप्रत्याख्यानत्वे भोजनोद्धेमुत्सगंतश्वतुर्विधाद्रस्थापि प्रत्याख्यानत्व॑ युक्तम्‌ । तदकरणे-अत एवं साधवल्निविधादारं खाध्यायकरणसमये तृत्तीयपोदुष्या समये प्रत्माख्यान्ति । बिकालवेलायां व पानकाद्वारमिति । १९. एय चिय० [ गाहा ५१ ] द्ादशविधतपो यथा-- भमशनमूनोवरिता, बुत्तेः संक्षेप रसत्याग: | कायल्लेशः संलीनतेति बाह्य॑ तपः श्रोक्तम्‌ ॥ १९-०0. २०-१ ] जीतकरपचूर्णि-विषमपद्ठयाख्या ५१ 'न्‍ल्‍ज्जजज- प्रायक्षित्तष्याने वेयाइत्यविनयावथोत्सर्ग । खाध्याय इति तप षद॒प्रकारमाभ्यन्तरं भवति॥ भासाई सत्त ता पढमा बिहतइयसत्तराइदिणा । अद्द राइ एगराई, भिक्‍लू पडिमाण बारसग ॥ हद प्रतिमादिविषयेड्श्रद्धाने विपरीतप्रहूपणाया वा प्रायश्वित्त ज्षेयम्‌। एतेन तपोतिचारप्रायश्ित्तसूचा दृत्यायभिप्रहेषु चर वीर्यातिवारप्रायक्षित्तसूचन ज्ञेयम्‌ । पाक्षिके पुरुषादिविभागतो ज्ञातव्यम्‌ | पुर॒ुषा छुल्ठक स्थविर - भिक्षु उपाध्याय आचायभेदत पश्चधास्तान्‌ प्रति घूर्णिकृता दर्शितमेव । १९--0. फिडिए० [ गाहा ५२ ] निद्राप्रमादवशतों गुभि सह प्रतिकमणे फिडिओ त्ति न मिह्तितः। सय वा उस्सारेद गुरुणा अपारिते कायोत्सगें खयमात्मेब पारयति । अपूर्ण वा चिन्तनीयतयान्तराले पारयति । १९--5. अकप० [ गाद्दा ५३] एवं वंदणाइएसु पि ज्षि--एकद्विज्िस्वा अदानतो वन्दनेषु यथाक्रमं नि० । पु० | ए० । सवोकरणे आयाम । राओ बोसिरइ त्ति निसिसक्ञोत्सग कुरुते । १९--।7 कोहदे० [ गाद्दा ५४ ] सगि त्षि--सकृत्‌ , एकदा । तन्नगाइ त्ति तनेको वत्स%", आदि- एब्दात्‌ मयूरादिप्रह । १९--22 अज्युसिर० [ गाहा ५५ ] दु प्रत्युपेक्षितं चक्षुपा सम्यगनवलोकनम्‌ । अप्रत्युपेक्षितं सर्वथा चनश्लुधाइनिरीक्षितम्‌। कोयवि--रूतपूरित पट पुरक्षोौट्टठीति यदुच्यते। पावारगों बृद्दत्कम्बल परियच्छिवां। प्री-पत्दवी दस्त्यास्तरणम्‌। दढगालियौंतपोति । दुसर सूत्री पटी, दोयडी यावत्‌ । विराली नवओ जीणोति भन्तर । गड्ोबहाणी गद्गमसूरिका । पुस्तकपचके गडी पुस्तकखरूपम्‌-- बाद्ठपुदत्तेहिं गडीपोत्थो उ तुछ्गों दीहो | १। कच्छवि अते तणुओ, मज्झे पिहुलो मुणेयव्वों । २। चउरगुलदीहो वा, वद्टागी मुट्ठिपुत्थगो अहवा । चउरगुलदीहो च्िय, चररंसो द्दोइ विन्नेओ । ३। तणुप सियरूबों होह छित्राडी य पोत्थगा नाम । दीद्दो वाहुस्सो (छो) वा जो पिहुलो द्वोइ अप्पबाहुल्लो । त मुणियसमयसारा छिवाडि पोत्थी भणतीह । ४ । सधुडगों दुगमाई फलगा | ५। अपरमपि--चर्मपघक यथा--तलिगा खल्लग पब्मे ( वद्धे ) कोसग कत्ती य वीयंतु । तलिगा-उपानत्‌ , वब्भ -वध्च , कोसगो-लेहोघार चर्म, क्त्ति प्रलम्बकरणाय । १९--32. ठवण० [ गाहा ५६ ] सज्नी--अविरत श्राद्ध । वीयाचारातिचारो निजवीर्यगृूहनम्‌ । १९--35. सुयववहाराइसु अन्नह शि--मायानिष्पन्न तदेव दीयते इति विशेष । आसणद्वय देयमिति भाव । अन्लषमायाओ त्षि--“लरूदवित्ती मद्दाभोगो, एम साहू जिददिओ। रसब्चाग करेइ त्ति, अतपतेई बाढए ॥” इत्यात्मनि व्यापयति । २०--३. दृष्पेण० [ गाहा ५७ ] वल्गन-उल्लनम्‌ । खडयप्पयाणं धावणम्‌। खड्ावरंडाईण फडणम्‌। मह्नवद्गाह्वस्फोटन च दर्प । त कुर्वतो कदाचित्पश्चेन्द्रियस्थ [व्य|परोपणं--विघात कृत स्थात्‌ । २०--4. भन्नादानं-मेहन तस्य परिमर्दनेन शुक्रपुद्लनिर्धातनं-निष्काशन इत्येतत्सल्लिष्टकर्मोच्यते । आदि- परहणालिइस्य ख्लेद्ादि[ना] श्रक्षणादि करोति । दीर्घाध्वनि यत्सेवनम्‌ । आधाकर्म, अध्वानकल्पादिक वा शुष्ककदलीफलादिधरणत । दीघषेग्लानेन वा सता यदाधाकर्म रसादि- कारणतः । सन्चिधिसेवन वाचरितम्‌ । तत्रैतेषु पछकल्याणकमिति वक्ष्यमाणगाथान्तोक्त ज्ञेय॑ योज्यम्‌ । २०--7. पुरिमत्ता०-मिक्षापात्र तत्काडे न अतिलेखयति | चरिमभागोनायां पौरुष्यां प्रधमायां पादौनप्रहरे इस्यर्थ. । यद्वा चरिमपोरुष्यामुपोषितः कश्चित्‌ । ततोडसौ तस्या पात्र न पडिलेद्देह! तत्र कल्याणक प्रायश्ित्त ज्ञेयम्‌ । चातुर्मासे सांवत्सरिके च शुद्धी पश्चकल्याणक शेयम्‌ । यस्मात्सूहेमातिचारान्‌ कृतान्‌ न जानाति न च स्मरति । कथमिद्याह-झहा पाउसे इत्यादि । ५श्‌ शीचन्द्रसूरिसंरचिता [२०-१2. २१०] २०--2. छेयाइ० [ गाहा ५९ ] कि वा छिल्मइ क्ति-भो भो जना निरीक्षत निरीक्षत । छिद्यते न छिद्यते चेति भवति अभ्रद्धानपर.। मिडणों ज्ि--एरदोनिरमिमानस्यथ । अभिमानाभाव दर्शयति-जो इत्यादिना । छेदापभ्रद्धानपरस्य झदो*, पयोयगर्वितस्थ च इत्येतेषाम्‌ । २०-- है. दुसुण्ठा'-उह्ृण्ठा लिद्गा'। इद्द शिष्या अनेकबिधा भवन्ति--परिणामगा, अपरिणामगा, अइपरिणा- मगा। तत्थ उल्सरगे उघ्सग्ग, अववाए अववाय, जहा भणियं सहदृदता आयरंता य परिणामगा भण्णन्ति | अपरिणामगा पुण जे उस्सग्गमेष सहृहति आयरंति य, अबवाय॑ पुण न सदृहति नायरंति य । अइपरिणामगा जे अववायमेवा- यर॑वि, तम्मि चेव सभ्नति न उस्सगर्गे । अतो अपरिणामकानां उत्सगेदष्टीना मा निन्थो भविष्यति । चशब्दसूबित- कुलगणसल्लाधिपानामपि छेद्यापन्नाना जीतेन तप एवं दीयते न छेदादय । २०--9. जज ज़० [ गाहा ६० ] अत्थपय त्ति-अर्थ. सूत्रव्याल्यानं भाष्यचूर्णिनियुक्यादिकम्‌ । भान्ञाभज्ञादिदोषत प्रायश्चित्तापक्ति सविस्तरा तपस उक्ता। २१--5. दत्न खिक्त० [ गाहा ६४ ] आद्ाराई दब्व ल्ेत्त छुकखाइ काल गिम्द्ाई। हृद्ठाई भाव त्ती पुरिसं गीयाइ जाणित्ता ॥ भआउड्डि-पमाय-दप्प-कप्परूवा चउव्विद्या पडिसेवणा नायव्वा। साहारणेपु द्रब्यादिपु साधारण भणिय सम॑ देखा । २१--3. लुकखं० [गाहा ६६] वायं ति--बातलम्‌। अनूपक्षेत्र सजलक्षेत्रम्‌। एवं कालेबि तिविददे स्षि--वर्षादेमन्तप्रीष्मरूप काल सामान्येन ज़िग्परूक्षश्न भवति । तन्न ल्लिग्य -शीत , रूक्ष -उष्ण । अय स्रिग्धो- इप्युत्कृश्मध्यमजघन्यभेदाश्रिधा; रुक्षोषपि च त्रिधा । तत्र उत्कृषक्षिग्घोइतिशीत , मध्यमक्षिग्धो नातिशीत , जपन्यश्ीत घ्तोकशीत । जधघन्यरूक्ष किंचिदुष्ण , [ मध्यमरुक्षो नात्युष्ण , ) उत्कृष्टरूक्षो त्युष्ण । एवं च-- गिम्दासु चउत्थ देजा छट्ठ च हिमागमे । वासाझु अठ्ठम॑ देजा तवो एस जहन्नओ ॥ गिम्दयासु छट्ट देज्या अट्टम च हिमागमे । वासासु दसम देजा एस भज्िमओ तवो ॥ गिम्दासु भ्रट्ठम देखा दसम च॑ हिमागमे । वासासु दुवाठसम एस उक्कोसओ तवों ॥ एस नवविहो ववद्दारो । २१--2।. सो य इमो ज्ञि सुयववहारों । आपत्ति प्रायश्वित्तयोग्यता विषया। तपसा द्वादशादिना, कालेण वर्षादिना | अहागुरू--युदतम इत्यये । अहालट्ट--छघुतम । २१--28. अद्दाणुषुधीए्‌--इत्यस्थ व्यास्येयमू--छुत्ताणुसारेणेति । २१--29, चठउमासगहणेण छहु चउम्ासो वि दह्वव्वों । 30 छम्मासो--छम्मासप्रदणात्‌ लघुषण्मासोइपि द्वेय, । प्रतिपत्ति. आपत्ति । 3 तीसा य त्ति--स्थूछतया उक्तम्‌, अन्यथा साधंसप्तविशतिवंकतुमुचिता । 33 प्रागुद्दिशनि गुरुकादीनि व्याच्े गुरुग चेलदिना। २२--2 एतदशक्त मिथ्यादुष्कृतेन शुब्यति । शत एबोक्तमू--खुद्धोब त्ति । २२--4. स्रामान्य एवं श्रुतव्यवद्ार उक्तो विस्त रेणाधुना प्राइ--तिगनधेत्यादिना । २२--१. गुरुपक्खों डकोसो क्ति--यथा गुरुपदादिवाच्य गुरु[] ग्रझ्तरो गुरुसम । प्रध(स)लबड्डुगे बि-- उत्कृष्टादिभेदत्रयम---उकोस-उकोसे, उकोस-मज्ञिमो, उक्षोस-जहृन्नो[त्ति] उत्कृष्टे भेदत्रयम्‌ | मध्यमेषपि भेद- प्रयमू---उक्ोम्नो, मज्म्िम जदण्णो त्ति। जह न॒ुकोसे, जदन्न मज्झ, जद्धन्न जद्॒न्न इति जघन्ये मेदत्रयम्‌ । २२--28. एप्रेबचुकोसाइ क्ि--लघुतरमध्यमपश्चविंशतौ नवविधआपत्तिदानपद्चमगहनिवेक्षितायां अट्ठम- छट्ठ-चउत्थ-उकोसा देय तिद्ट भिन्न | भध्यमे ठत्कृष्मू, भध्यममध्यमम , मध्यमजपन्यमिति योज्यम्‌ । तृतीय नवकलहुस सत्कसप्तमगृहनिवेशितपश्ददशा गोचरपढ्ढों। भट्टम-छट्ठ-वउत्थ-योज्यम्‌ । छहुप्तरमष्यमदशके भ्रष्ट मशहद- निवेशिते । २। आा० । यथा लघुसजधन्यपश्चकग्॒त्के नवगृहे । 3० १, आ० १, ए० । खमणाया'मेक्कासणे त्ति 33 गायोक्ते योज्यम्‌ । सप्तविश्वतिभेदेषठु वर्षास दानमुक्तम्‌ । श३--. भघुना शीतकालाश्रितं दानमाद--सिसिर इत्यादिना। दसम॑ उवपासबतुष्टयम्‌। आदो पृत्वा । २३-22, २४-4३ ] जीवकःस्पचूण्ि-विषम्रपद्व्याख्या ५३ ७००2० त>29०3त3नन-०-3- १८००3) ५००म श३--2 अड्लोकंतीय तह चेव शि--तत्रार्धस्यासमप्रविभागरूपस्य एऋदेशस्थ था एकादिपदात्मकस्य-अप- ऋरमणमवस्थानम्‌ । शेषस्य बुद्यादिपदसड्ातरूपस्पकदेशस्पोध्व गमने यस्या रचनायां सा समयपरिभाषयाधोपका- न्तिरच्यते । यथा सिसिरे जघन्यत षह्ठम्र, मध्यमतोष्शमम्‌ , उत्कृश्तो दशमम्‌ | २। ३। ४ । एपा मध्यादेकन देश” प्रष्टलक्षणोइपक्रामति अवतिष्ठते । अष्टम-दशमे ऊर्ष्व व्षोसु गच्छत, । तृतीय तु अप्रेतन[द्वाद]शे भील्‍्यते | ततथ्व जघन्यतो5ष्टमम्‌ , मध्यमस्तु दशमम्‌ , उत्कृश्सु द्वादश तपो वर्षासु कुर्वन्ति । २३--३. अद्वममाइ गिम्हे इलादि--अश्म उपवासत्रयमादौ इंत्वा निव्वीय पर्यन्ते यथा-लघुस पश्वकसत्के नवमगहे । सयासय त्षि--खकीया. सदा शेया आपत्तय । अशद्दोरेकैकहासस्तावस्कार्य यावत्‌ स्थितमेकेकम्‌ । उ०। आ० । ए० | नि० । २३-३७. परद्वाणं देख क्ति--आधाकमादासेवाप्राप्तम्‌ । इद नवविधश्रुतव्यवद्धारे व्षा-क्षिशि(-प्रीष्मरूप- कालतया सप्तविशतिभेदेषु आपत्तिदान दर्शितम्‌ । अधोपक्रान्तिरपि तथा वाच्या । २३--4 काल वा सद्देज्न क्ति--प्रतीक्षेत २३-6 अणहीयनिसीदो अग्गीयत्थो। इतरो बीतार्थ । २३--2], धिद्द इतिश्रेतसोप्वष्टम । सदनन वजर्पभनाराचादि। धीईए सघयणेण य संपन्नों पढमों, न घिईए न सघयणेण य अन्त्य , मध्यवर्ति द्यमू-४एत्या न सहननेन, नदहसो(न ध्रृत्या)संइननेन सम्पन्न इति द्वयमतो वाच्यम्‌ । २३--25 विकल्पपश्चधकमपि व्याचट्रे आयतरगों इत्यादिना--जो ज तवोकम्म॑ आढवेदइ तप्ित्थरइ स आयतरग । दृढो5पि वैयावृत््ये तप एवं करोति न वैयाबत्यम्‌-इत्यायतरग । परतरस्ठपस्यपि शक्तः परं न करोति, किन्तु वयाशृत्यमेव विधत्ते । पश्षमभड्जव्याख्यामाइ--अश्नतरतरग(27)इत्यादिना । २३-३0. कल्पस्थितादय सर्वेष्शों ८। कल्पोष्वस्थितसमाचार । नत्र स्थितास्तत्परिपालनोद्वता । २३--३३ कयरे ते दशभेदा?--इमे वकक्‍्खमाणा-(१)अविदभान चेल वस्न यस्यासावचेलकस्तदूभाव भचेलक्यम्‌ । सचेलत्वेष्प्यचेलव्यपदेश' । दृश्यते च॒ विवक्षितवल्लाभावे सचेलत्वेप्यचेलव्यवहर । यदाहू-- “जल(ह)जलप्रवगाईंतो वहुचेलो वि सिरिवेटियकडिढों । भन्नइ नरो अचेलो तह मुणओ संतचेलावि ॥ तह थोवजुभकुच्छियचेलेहिं वि भम्मए अचेलो त्ति । जह तर सालिय लहुं देयो त्ति नग्गि यामो त्ति ॥! (२)उद्देसेन साधुसकल्पेन निर्ेत्षमौदेशिक आधाकर्म। (३-४) सम्यया वसत्या तरति संसारसागरमिति शय्यातर । स च राजा तृषथ्क्रवत्यौदिस्तयों पिण्ड समुदानमिति शबय्यातरराजपिण्ड । (५) कृतिकर्म वन्दनकम्‌ । (६) तथा ब्रतानि मद्दाब्॒तानि । (७) ज्येष्ठो रतन्नाधिक' । (८) श्रतिक्रमणं आवश्यककरणम्‌ । (५) मास मास- कल्प । (१०) परि-सवेथा वसनमेकत्रनिवास स॒ निरुक्तविधिना पर्युषणम्‌ | इति दशविध कल्पो भेद । तमि ठिया पकप्पट्टदिया--दश विधकल्पे स्थिता इत्मर्थ । अन्न च प्रथमचरमजिनसाधवो दशखपि स्थिता एवं । द्वाविश- तिमध्यमजिनसाधवो विदेहजाब्ब दशक्रमध्यात्‌ श्षय्यातरपिण्ड चातुयोमपुरुषज्ये_्वम्दनकरणाख्यचतुषु स्थिता , षद्पु चास्थिता । यथा आचेलक्येददेश्षिकप्रतिकृमणराजपिण्डमासपर्युषणाकल्पे च वषोकालसमाचारा मध्यमजिना २२ विदेदजाश्वास्थिता,, सततसेवनीयतया । दशानां मध्यात्‌ कानिचित्‌ स्थानानि कदाचिदेव पालयन्तीय- नियतव्यवस्थाखभा[वा]स्ते, अतो मध्यमजिनसाधवो मह्दाविदेहजाश्वाकल्पस्थिता । यतो$नवस्थितसमाचारो5कल्पो- इम्रिधीयते । २४--4. जोगवियसरीर त्ति--परिकर्भेतदेदाः। २४--। |. बहुतरया भिक्‍खुणो सि--बहवः बहुभेदा हति भाव । अन्न आवचरर्यकृतकरणादि-पुरुष विभागेन श्रुतव्यवद्दारतो जीत्तकल्पयञ्न विलेख्यम्‌। 'पय मज्य गहियति अभनया गाथया यत्ञकमध्यवर्ति पंचम- पंक्तितपोर्हीतपंचम पक्तावेव[स्था गाथाया अर्थों निपततीत्यर्थ । २७--१4. तिरियायए--तियेग्दीघोणि श्रयो दशगह्मणि छृत्वा अह्दो पुर्ग घरय ख--वामपा खें एक पक्तिमि- स्र्ष: । अद्दो पुंफेकाधरयदुड्दीए वामपाश्रत. सब्वाईए निरवेबल जिनकृल्पिक विनस्पेत्‌। द्वितीयपंफेरुपरि ण्छ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [(२५-१।, २७०६ आचार्य: कृतकरण । तृतीयपंकेरुपरि आचार्योइकृतकरण । चतुध्यों उपाध्याय” कृतरण । पश्चम्या उपाध्यायों- 5छृतकरण [ पष्या गीतार्थस्थिरक्रतकरण ] भिक्ठु । सप्तम्या गीतार्थस्थिराकृतकरणमिक्षुः। अश्म्या गीतार्थो- स्थिरकृतकरणभिक्ष॒[ नवम्या गीताथोस्थिराहृतकरणभिक्षु. । दशम्या अगीतार्थस्थिरक्तकरणमिक्षु.। एकादर्या अगीतार्थस्थिराकृतक्रणभिक्षु । द्वादश्या अगीताथोस्थिरकृतकरणमिक्षः ] त्रयोदश्या अगीताथोस्थिराकृतकरण भिक्षु । एव स्थापितदाहिणट्वियपणुवीस६ सहूव भिन्नमास निव्वीयसन्नियाओ, वामपारश्थवर्ति अट्ठमभत्त तत्य छग्गुह- सन्निय जीतदाणं नेयं । पचमपतीए । २५--[, तहीँ चेव अवराहे सि कोईर्थ ! तदेवापराधमाश्रित्येत्यर्थ । पुरुषा---आचार्योपाध्यायहप- भभिछुछुलछकमेदतः पश्चविधास्तान श्रित्येति भाव ।॥ २०--25. खित्त छिन्नमडय ति---अद्द|इयजोयणश्यन्तरे जत्य वसिम अन्न नत्यि त छिन्नमहम्बं । सर्वतो&* प्षासप्तसभिवेशान्तरं मडबमित्यन्ये । ओम॑ परिपूर्ण यत्र भक्तादि न लभ्यते । दुर्भिक्षे यत्र सवेया न छभ्यते । २७५--27. तमणतरं ति निकटवर्ति । २५---36. आलोचनाकाले जया यूहइ त्ति--सर्ववैव न प्रकाशयति। पलिउंचइ व क्ति--अधकथितं करोति। २६--. बहुगुणेस त्ति--ध्मर्थषु | गुरुसेवा--अशभ प्रति प्रधानसेवा । २६--ह छेदाई प्रोच्यते--तवगध्चिउ० गाद्दा । [ ८० ] २६--।। अदपरिणामगो--अपवादरुचि । २६--2. उत्कृ्श तपोभूमि समईओ त्ति--अधिकतपोदानयोग्यो जात । सवि (साव० ) शेष च यस्य घरणं तस्यातिचारदूषितव्रतपयोयस्य च्छेद क्रियते । २६--23. भआकुश्रिपेत्यकरणम्‌ , तया पश्चन्द्रियवध कृत । दर्पण मेथुनसेवन च । सतीवादमस्या नाशयामीति बुद्धथा त्रीसेवनायाम्‌ । भूषावादे कूटसाक्षित्तादिदानत । भदते निधानाथपद्दरति । सचित्ताचित्तगोचर परिग्गह च॑ गृद्बाति । २६--27. मूलगरुणान, द्विन्नादिभेदेन बहुविधानं बहुशों अनेकश शोधयति । सर्वशकादीन करोति । इति दर्शनवमक । २६-32 शृहस्थलिंग--कच्छावन्धन तकृकट्शिरसि विधानादि कातुकेन कुरुते । अन्यतीर्थिका --शाक्यत।!पसा- दयस्तेषां लिक्न तद्भेघषकरणं नटादिवेषकरणत । ख्रीणा ग्रभस्याधान शाटन च औषधादिकरणतो मूलकरण- तोध्मी (? )। २६--३4. विहियतवे त्षि--विहितं दत्त गुरुणा तपो यस्य सबिद्विततपास्तदूध्व॑ छेदमूलानवस्थाप्य पाराशिकानि प्राप्तस्यापि भिक्षोमेल्मेवेत्यर्थ । तथा आचार्योपाध्याययों. पाराशिकप्राप्तावप्यनवस्थाप्यमेव भवति । यदुक्त भाष्ये-- 'इत्य य जह नवदसमे आवद्नस्सावि भिक्‍्खुणों मूलं । दिल्लइ तहाभिसेगे पर॑ पर्य हो नवम॑ तु ॥! २७---$. अनवस्थाप्याख्य । अनवस्थाप्ये उक्ोसं० गादा । [ ८७ ] आसेवितातिचारसबन्नविशेष । सन्न अनाचरिततपोविशेषस्तद्वोपोपरतोषपि महाग्रतेषु नावस्थाप्यते नाधिकियत इत्यनवस्थाप्य.। तद॒तिचारजातं तच्छुद्धिरपि वा अनवस्थाप्यमुच्यते । नवम॑ प्रायश्षित्तम्‌। तत्र स्तन्‍्यकरणे कि सूत्रेड- नव॑स्थाप्यमुक्तम्‌ ? उक्तमेवेतद्यादि । तमोत्यादि--याथापूवोर्देन साधर्मिकरेन्ये प्रायश्वित्तमुक्तम्‌ । तत्र सृत्रपदस्यायमर्थ --साधमिंका' साध- बस्तेषां सत्कस्योत्कृष्टोपधे क्षिष्यादेवो । बहुशो वा प्रद्धिश्चित्तो वा । तेशन्न॑ ति--स्तेयं-चौर्य कुर्वेन भनवस्थाप्य । अन्यधार्मिका --शाक्यादयो गृहस्था वा। तेषां सत्कस्योपध्यादे स्तेयं कुर्बेनू। अयमर्थोष्न्यधार्मिकयों- लिश्विग्दस्थरूपयो' सत्क॑ स्तेयमाद्ारोपधिशिष्यादियोचरं त्रिधातत्कुवेन्‌ । अयोत्तराधैन--हस्थायालो गहिओ- स व शत्रिघा--अत्थायाणं दलमाणे, दृत्याऊबं दलमाणे, दत्यायारू दलमाणे त्ति। क्रमेण व्याख्या-- अस्थायाणं--अयादानं इण्मोपादानकरण अशज्ननिमित्त तर॒दत्पयुजञान इत्यर्प.। अ्त्र कथानकमात्रम-- २७--4. २८-॥ ] जीतकस्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या ५५ >> ७ ज+ड जज जज *०+ ४५3 उजेणी उत्सन्न दो वणिया पुच्छिकण आयरिय॑ । ववहारं बवहरंती ताहे सो तेसि साहेइ ॥ १ ॥ तस्स य भगिणीपुत्तो भोगमिछासीओ मुंचए छिंगं। तो अणुकंपा भणई-किं काहिसि त॑ विणत्थेण ॥ २ ॥ ता वच्य ते वणिए, भणाहि--अत्य पयच्छह मज्झम । तेण य गतु भणिया तो तेसिं बेह अदद एको ॥ ३॥ कत्तो अत्थो अम्हं कि सउणी रूवए इृद दगई। बीओ चंगेरि मरेवि निग्गड नउलयाणं तु ॥ ४ ॥ गिण्दिस्तु जावइएहिं कजत्ती गहिय तेण जावट्टो । बिश्यमि द्वायणंमी कि गिण्दामो त्ति ते बिंति ॥ ५ ॥ भणिओ सउणी इत्तो तणकट्ठ वत्यरूयकप्पासे । नेहगुलधन्नमाई अन्तो नयरस्स हावेहि ॥ ६ ॥ बिद्उ य तेहिं भणिओ सब्वदाणेण गिण्ह तणकठ्ठ । नगरबहि ठावावय गरहिएणुवरिं च वासासु ॥ ७॥ छट्एसु गेह्ेस पलित्ते दूं तओ उ त नगरं। तणकट्ठाण पुजों अइव मदहग्घो उ सो जाओ ॥ ८ ॥ दड्डुमियरस्स स्व ताहे सो गठु भणइ आयरिय॑ । उच्छाहिओ अद्दोह कि तु न नाय॑ इम तुब्भे ॥ ५ ॥ किं सउणी य निमित्त दृर्ग ति अम्इं ति भणइ नेमित्ती । द्ोइ कयावि तद॒न्नय रूठ नाउ तओ खामे॥ १० 0 च्यूणों भव्वग त्ति भागिनेय ।॥ प्रतिभगो वतपालनात्‌। चगोडगो चछघडर्य रूवई भरिय नउलाण घेत्तूण उब- हिओ । तदलु ध्रतगुडादिपण्यस्थ पत्तनान्तर्मध्ये सद्भहोपदेश दत्तवान्‌ । द्वितीयस्य रूपकदातुवशतृणकाष्टादीना सप्रहूं पत्तनात्‌ बहिश्शदुपदिष्वान्‌ । पत्तनान्तर्दग्धपण्यस्य सम्मुख ब्रवीति कि शकुनिका निमित्त दृदंते । एवंविधार्थोपा- दानकारिण पुरुषस्याभ्युत्थितस्थ ब्रतप्रहणाय तत्र क्षेत्रे प्रायश्वित्त दाठुं न कल्पते २७--4 हत्थालम्बों क्ति--दृत्थालब इव हत्थालबस्त ददत्‌। अशिवपुररोद्गा(धा)दी तत्प्रशमनार्थममिचार- कमत्रविद्यादि प्रयुज्ञान इत्यर्थ । दृत्थायालो क्षि--हस्तेन आताडन हस्तातालस्‍्त दलमाणे ददत्‌ | यश्टिमुष्टिल- गुडादिभिमेरणादिनिरपेक्ष आत्मन परस्थ वा प्रदरन्निति भाव । तत्र आयरियस्स विणासे गच्छे अहवाबि कुलगणे संघे । पर्चेंदियवोरमर्ण पि कारउं नित्यारण कुजा ॥ एवं खु करतेण अव्वोंडिछत्ती कया उ तित्थेमि । जयवि सरीरावाओ तहवि य आराहओ सो उ ॥ अन्यस्तु सामथ्यें सति आगाढे$पि श्रयोजने न भ्रयुड्े य स विरावक । २७--2।, कीरइ० गाहा [ ८९ ] सो य आचार्यादि । एल्थ जडभंगो क्षि--दब्वलिंग-भावलिगपदद्येन भन्नचतुष्टयं यथा--दव्वलिगेन रजोहरणादिना अणबह्वप्पो महाब्र॒तादिना भावलिज्लेन च | १। दबव्वलिंगेणाएण०, न भावलिंगेनेति शन्य । २। भावलिमेन अनवद्नप्पो न दब्बलिंगेण । ३। भावलिंगेण अणवह्ृप्पो, असभवि भगो5य ।४॥ २७--24 सपकक्‍्खपरपकखे प्रदुण्स्तन्यादिदोष स्तन्‍्यद्वय सूचितम्‌ ।१। खपक्षपरपक्षघातनोद्यतो निरवेक्षतया भनेन दस्तातालो गृहीत । दृत्थालबो अत्यादाणों य इत्यनेन तृतीयभज्गमाह । ह्वितीयचतुर्थभज्ञो असभविनों । २७--28. जहा अत्थावाणिओ त्षि--योडर्थमुत्यादयति निमित्ता स। उत्तमद्ठेत्यादि | तत्थेव त्ति-- खस्थाने । ओसम्नाइ अन्नयरस्स खम्थानत्यागे सति भावलिद्ञ दीयते । २७--३5. सपाधिक्षेपो जाल्यादिना ज्ञेय । २८--4 झुहसाय त्ति उखखापा । २८--2. न जईणं ति--बच्छला इति योज्यम्‌ । २८--7. आशातनया तपोइनवस्थाप्य कियता कालेन स्थादिद्याइ--जहन्नेणेत्यादि | एतावत्कालादूध्व असो व्तेषु स्थाप्यते । २८--2. तबसस्‍्सी य त्षि--तपोडन्वित । २८--4. निज्लूहणारिहो क्षि--गच्छात्यूथकरणादई स । सूत्रे सब्बो वि त्ति पदम्‌ । २८--7. आशातना-प्रतिसेवानवस्थाप्यो द्विप्रकारोईपि मूलाई उक्त उत्सगेत । अववाएण कुलादि-कार्य- कारी । तद्धीनानि कायौणि । उत्तम कार्य बहुजनसाध्य शज्ननादितकार्यमुच्यते । तत्असाधित येन भवति । संबासो से कप्पद्द क्ति- मूलसूतज्रस्थे वाक्यमिदं ]--एकत्र निवपन गच्छमष्ये तस्य कल्पते। पालपणसभाषणादीनि १ अयमत्र भावार्थ:--गाथोक्तवनदनादिक्रियाकरणसं भाषणादिक्रियापरिदरेण च॑ एकत्र सब॒- सनमात्र मुक्‍्वा तपस अनवस्थाप्यलक्षणस्थ विधिना भ्रतिपत्ति. खीकारोनवस्थाप्यतप+प्रतिपत्ति, । ५६ श्रीचन्द्रसूरिसरचित्ा [ २८-20. २८-३३ ल्‍सजीजीज-जखजत अलज लि लज 5 अर २८--20. तत्प्रतिपत्ती विधिमाइ--पसत्थधदध्ेत्यादिना--परिहारतवं पडिवजतो दब्वाइ अपसत्यवे वजित्ता पसत्येस्ु दव्याइस काउस्सग्गो कीरइ। तत्य दव्बओ वड़माइख्रीरहक्खे । खेच्नओ इस्षुझालिक्षेत्रकुस॒मितवनखंड- प्रदक्षिणावर्तजलपद्मसर चैत्यजिनगद्दादिषु । कालओ पुव्व॒सूरे पसत्याइदिणेसु य। भावओ चंदताराबलेसु। तत्नापि सन्ध्यागतादिदिनवज आलोचना प्रयुक्ते। यत उक्तमू-- “ंझागयं रविगय॑ विड्वेरे सग्गह्ट विलंबि च। राहुय गहभिन्नं च वजजए सत्तनवखत्ते ॥! अन्न छोकभ्रीटीकाकारव्याख्या--सूर्ययुक्तादनन्तरनक्षत्र सम्रदणम्‌। सुर्योस्तममनकाऊे यक्नक्षत्रमुदय- मुपयाति तद्विलम्बितम्‌ ! राहुणा मुखेनाक्रान्‍्त पुच्छेन वा तद्राहुह्ूतम्‌ । अन्ये त्वाहु --यरिमिन्‌ नक्षत्रे प्रहणमा- सीत्तयावद्‌ रविणा न युक्त तावत्तद्राहुद्वतमिति । प्रदमिन्न॑ यन्मध्ये प्रदो विभिग्य निगेच्छति । केचिच्छकटमेदमेव प्रदमेद इत्युदाहरन्ति । अन्ये त्वन्रैव॑ ल्रुवते--यथा-- 'जम्मि रविनक्खत्ते ततो संझ्ञागय तु चउद्सम । बिड़ेरे तु विश्ज होइ वउत्थ विलर्बि च ॥! अन्यछ्त्वाह--'सर्वविरुद्धे दिवसे यद्रेको भवत्यम्ृतयोगरु । हिमवद्दिनकरकिरण सर्वे दोषाः प्रलीयंते ॥! कालत श्रतिपत्तिथवास्य तपसो जहम्नेण मासो उक्कोसेण छम्मासा। तमि परिहारतव पडिवजतो भायरिओ भणइ--अणवहप्पतवस्य निरवसग्गनिमित्त ठामि काउस्सरग । अन्नत्थूससीएण मित्यादि कायोत्सगंदण्डको बाच्यो जाव वोसिरामि । 'लोगस्सुज्ोयरं' अणुपेद्दित्ता, 'नमो भरहताण'ति पारित्ता, लोगस्सुज्ञोयरं' कछ्टिता आयरिओ भणाइ--- “एस तथ॑ पडिवजइ न किचि आलवइ, मा य आलुवह । अन्नस्म(द्)विंतगस्स उ बाघाओ भे न कायव्यों ॥! अस्थाथे--- एस अप्पविसुद्धिकारओं परिहारतव पडिवजइ । एस तुब्भे न कि थि आलवइ । तुब्मे वि एयं मा अआलवह । एस तुब्भे सत्तत्थेसु सरीरवद्धमा्णी वा न पुच्छइ । ठुच्से वि एय मा पुच्छद । एवं च आत्मार्थविन्त- कर प्यानपरिहारक्रियाव्याघातों न क॒तैव्य । वन्दनं कुरुते भवताम्‌, न चासों भवद्धिवेन्य । खेलकाइयसज्नामत्तर्ग घा न सो देइ | तह्सतिओ वा न घेप्पइ । उवगरण परोप्परं न पडिलेहति । सधाढगा परोप्पर॑ न भवति । भत्तपा्ण पेप्परं न करेंति । एगमंडलीए न भुजति। यद्चान्यत्‌ किंचित्तरणीय तत्तेन सार्थ न कुरवैन्ति । गीयत्था परिद्ारिया तस्स गच्छतस्स सब्वत्यथ अणुगच्छंति । पारणकदिने अलेवकड पारेइ। सथमाणीय निदिद्वअन्रेण वा। इत्यन- भस्थाप(प्य)विधिरुक्ता ॥ २८--27 खधुना पाराश्विकममिधीयते--तत्न पारं तीर॑ तपसोड्पशधस्थाश्वति गच्छति । ततो वीक्ष्यते यः स एवं पाराखिकस्तस्प यदजुष्ठानं तच पाराशिक्रमिति । दशम प्रायश्ित्तम्‌ | लिकक्षेत्रकाउतपोभिवंद्दि करणमित्ति भाव, । तत्र पाराधिकेत्यादि--इह सूत्रे प्रतिषिघषरपाराखिक एवं त्रिविघ उक्त, । तदुफ्तम्‌ू-- “पडिसेवणा पारंची तिविहों सो होह भाणुपुन्बीए । दुट्ठे य १, पमत्ते य २, नायव्वे अनम्नमन्ने य ३॥! हैत्र दुशे दोषषान--कषायतो विषयतथ्व । पुनरेकैको द्विधा--खपक्षपरपक्षमेदात्‌ ) उक्ते च-- 'दुविद्यो थ द्ोइ दुद्ो--करसायडुद्ढों य विसयदुठ्ढों य। दुविद्दो कसायदुद्दो सपक्खपरपक्ख-ब्रउभगों ॥* खपक्षकपायदुष्: परपक्षकप्रायदुष्ट । )। खपक्षक०, न परपक्षक० । २। न खपक्षदुष्ट , परपक्षदुष्ट । ३ । न खप०, न परपक्षदुष्ट । ४ । चतुर्थ शुन्य । कोह करेंतो कसायडुद्ठो ! तत्थ सपक्षे कपायदुद्वस्स इमे सासवनालाई चत्तारि उदाहरणा । २८--३4. तत्थ सासवनालछेत्ति--सा(स]वा भज्या | एगेण साहुणा भिक्खागएण सासवनाठसे छय सुसंभ्त छड्ं । तत्य से अईंव गिद्धी । तेण त गुदणों उवणीय । तन्च गुरुण। सब्व भुत्त | इयरस्स कोबो जाओ, भंडियं च | गुरुणा सो खामिओ तद्दा नोवसंतो । भणाइ य-भंजामि ते दता । गुरुणा चिंद्रियं--मा एस म॑ असमाहीए मारि- स्सइ त्ति गणे अन्न॑ आयरिय ठविता अन्न गण गतु अणसण पडिवन्न । पुच्छह ते साहू कत्य मे गुरवों | पुच्छति कहि गज गुरू । न कहिंति साइवो । सो अन्नओो सोचा ग्रओ जत्थ गुरवो । लेहिं कद्दियं-अज्ज चेव कालगओ परिद्व- दा हे ताहे पुखछइ-कस्य से सरीर्य गृरुणो। पुष्बकहिओ भंजंतो भणाइ-सासबनाऊं श्ाइसि ति। एयं ॥१॥॥ २९-०१, ] जीतकत्पचूर्णि-विषमपद्व्याख्या ष्छ झुदहणतप य शि--एगेण साहुणा रूद्ध मुदृणंतर्ग ।आणियं ते युदुणा गहिय॑ । इत्य वि सब्ब पुव्यवशाणगस- रिसं । नवरं त॑ मुद्रणेत्ग पत्चप्पिणंतस्स न गहिय॑ जीव॑ंते गओओ राओ । साहुबविरदं ठमित्ता, गेण्हति मणंतों, धार्द गे ग्रिण्द्‌द् । संमूढ़ेण शुरुणा वि सो गहिओ । दोवि भया ॥ २॥ सिदरिणि ज्ि--एगेण साहुणा उक्ोसा मज्शिया सिहरिणी लद्धा । गुणों भालोहया निर्मेतिया | शुरुणा - सब्बं आवीया। से साहू पत्थरें उग्गिरित्ता भागओ । अनेहिं वारिओ । तद्दावि अणुबसंतो । गुदुणा सगणे चेव भक्त पषषक्खाणं, नो अन्न॑ गच्छ गओ ॥ ३ ॥ डलुयब्छिओ क्ति--एगो साहू अत्थं गए सूरिए सीवंतो गुरुणा भणिओ-पेच्छति उलगच्छी । सो रुष्ो मणह-एवं भणंतस्स दोवि भच्छीणि ते उद्धरामि। एत्थ वि गुरुणा खामिओ । नोवसंतो भणइ-ते अच्छीणि उद्धरामि । तथओो सो रोहरणाओं अ्रयोमर्य किलय कद्लिऊण दोवि अच्छीणि उद्धरित्तु ढोवेइ ॥ ४॥ एए चउरो वि लिंगपारंची । विसयदुद्धे वि बठभंगो त्ति--यथा सलिंगी सर्लिंगस्राध्वी सेवते | १ । सलिंगी गिहिलिंगीस्नीं । २ । सलिंगी अ्नठिंगे परिवाजिकां । ३। अन्नलिंगी अन्नालिंगे । ४। शत्यो5य । परपक्षकषाय- बुष्ख़ु राजवधक-उदायिद्रपमारकवत्‌ । सपक्षविषयदुष्टस्तु साध्वीकामुक' । स च--+ पावाणं पाययरो दिद्विब्भासो वि सो न कप्पइ हु । जो जिणमुई्द समर्णि नमिऊण तमेव घरिसेइ ॥ परपक्ष विषयदुष्स्तु--राज्जग्गमहिष्यधिगन्ता, अमात्ययुवराजसेनापत्याग्रप्रमहिषीसेवकथथ । जुट्े पारंचिए सि व्याख्यातम्‌ । सम्भ्रति मूढ़े पारंचिए त्ति व्याख्यायते [ गाथा ९६ ]--स्व्यानर्डिनिद्राप्रमादवान्‌ प्रमतः मूढोडपि थ एवात्र व्यास्येय --पश्चमनिद्रापरो य भतिसक्किष्टपरिणामात्‌ ए्त्यानद्िनिद्रोपपतो दिनदृश्मर्थमुत्याय प्रसाधयति। वाघारए त्ि--व्यपारयति । तबुदये व केसवार्धबलसइशी शक्तिभवति प्रथमसइननिन । क्यूर्णिक्रदृष्यत्रे पारा- विकविधों पमत्तपारंचिए इति पाठ दर्शयिष्यति । २९--१ पोग्गलेत्यादि--पोग्गल-मस १. मोदगा-लड्डुया २. दन्‍्ता-हर्यिदंता ३. फरुस्रगो-कुम्भकारो ४. वडसाला-डाली ५. एते थीणद्भीए उदाद्ररणा । तत्थ पोग्गल़े जद्दा-एममि गामे एगो कुद्धबी । पक्काणि य तेलियाणि य तिमण्णेसु य अणेगस्रो मंसप्पगारा भफ्खेइ । सो य तद्रारूवाण थेराण अतिए धम्म सोऊण पच्चइओ । विहरइ गासाइसु । तेण य एगत्थगामे मंसत्थि- एहिं महिसो विगिंचमाणो दिदट्लो । तस्स मसे अभिलापो जाओ। सो तेण अभिदासेण अन्बोच्छिन्नेण भुत्तो। एवं भव- वच्छिन्नेण वियारभूमिं गओ । चरिमा सुत्तपोरुसी कया। पाउसीयावस्सया कया । तदभिलासी चेव सुत्तो । सुत्तस्से- व थीणद्धी जाया । सो उद्लिओो गओ महिसमडल । अन्न हंतु भक्खिय सेस आगतु उवस्सयस्‍्सोवरि ठविय । पथसे गृरूण आलोएइ--एरिसो सुविणो दिद्ठो | साइूदिं दिसावलोय करिंतेद्दिं दिट्ठंं कुणिम । जहा एस थीणद्धी । थीणद्धिस्स हिंगपारंचिय पायच्छित्त । त से दिज्न ॥ १0 मोयरोे ज्ति--एको साहू भिक्‍ख हिंडतो मोयगभत्त पाप्तइ | सुचिरं उविक्खिय न रुद्धं। गओ जाव तद- ज्ञवसिओ सुत्तो | उप्पन्ना थीणद्धी । राओ ते गिह गठतुं भंतृण त॑ कबाड्ड मोयगे सक्‍्खयति । सेसे पढिग्गहे घेन्तुमागओ । वियदढर्ण । चरिमाए भायणाणि पढिलेहंतेण दिद्ठा । एयस्स लिंगपारश्चियं ॥ २ ॥ दूसे शि--एगो साहू गोपुरनिग्गभो दृत्यिणा पक्खित्तो कहवि पलाओ। रुसिओ चेव पसुत्तो | उदिश्ना थीणदी । उद्िदं गओ, पुरकवाडे भंतूण गजो वाबाइओ। दंतमुसले गद्देकगमुवागओं । उवस्सयवाहिं ठवित्ता पुणरवि पासुफ्तो । पभाए उद्ठिओो छुविण आलोएह । साहू गयदंतदरिसर्ण नाय । तद्देव विसज्जिओ ॥ ३ ॥ फरदसग शि--एगंमि महंते गच्छे कुम्मकारों पव्यशओ | तस्ख राओ स॒त्तस्स थीणद्धी उदझा | सो य प्रही* यच्छेयब्भासा स्रमीवत्याण साहूण शिराणि छिंदिउमारद्धों । ताणि सिराणि कलेवराणि य एगंते पढइ । सेसा भोखन रीया । 20076 । छुविणमालोयणं । पभाए साहुसंभारण नाय॑ । दिश्न॑ च से किंगपारंचिय ॥ ४ ॥ रद > कृछ चु० पट भ्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [ २९-३3. ३००] धड़सालभंजण ति--एगो साह भिफ्खायरिउं गणो। तत्य पह्टे बडसाला रुक्‍्खों। तस्स साला पहं निभ्नेण ऊंघेउ गओ । सो थ साहू उम्हाभिह्यभालो भरियभायणों तिसयभुखतों हरियोवउत्तों वेगेण आगच्छमाणों ताए सारूखंधाए सिरेण फिडिओ । रुसिओ जाव पासुत्तो । थीणद्धी उदित्षा। उद्धिओो गओ । गतूण त सा गहे- छणमागओ । उबस्सयदुवारे ठविया । वियडणा । नाय थीणद्धी । लिंगपारंची कओ ॥ ५॥ केइ भरायरिया भणंति--सो पुव्व वणहस्ती आसी। तओ मणुयभवमागयस्स थीणदी जाया । पुम्बध्भासा शंतुण वढसाला मंजणाणय । सेसं तहेव । दृह स्व्यानध्या प्रथमसहननिन केसवार््बलसदृशी धाक्तिभवति । तदन्यत्र साममबछा दुयु्ण तिथुण चउथुण वा भणति। अप्नमन्न करेमाणे क्ति--सूत्रपदस्प व्याख्या--अन्योड्न्यं परस्परं मुखपायुप्रयोगतो मैथुन कुर्वन्‌ पुरुष- युगमिति विशेष । अभय ( भण्य ! ) ते च--“आसयपोसयसेवी केवि मणूसा दुवेयगा हुंति ।” तेसिं लिंगविवेगो ज्षि--तीर्थकराद्रासातनापरा आसातनापारंची भवति | चरिमद्वाणावक्तिसु त्ति [ गाथा ९६ |--त्रिमह्ठाणं पारवियमेव । तस्यापत्तमसदतिवारसेवनानि तेधु प्रधल्यते, स च पाराशिकाई । २९.---]3., दद्॒भावलिंगे चउभंगो त्षि--द्रव्यलिज्न रजोहरणादि, भावलिंग महात्रतादि। दब्वालिंगेण पारेचिओ, भावलिंगेण य १, दव्वलिंगेण पारं०, न भावदिंगेण य २ भावलिंगेण पारं०, न दव्वलिंगेण ३. न दब्वलिंगेण पारं० न भावलिंगेण य ४ इति। चतुर्थ शून्य । भ्प्रमहिष्यादिसेवनादी सप्रकटसेवी । २९--4. उभयलिगेणावि ज्षि-८द्रव्यलिंगेन भावलिंगेन च पाराधिको भवति । २५--5. जत्थु० गाद्दा [ ९९ ] दोसो वतलोपादिक ॥ क्षेत्राण्येवाइ--घसहीएत्यादि--वसद्दी-वसति निवेसन एकनिष्क्रमणप्रवेशानि द्यादीनि गृहाणि । पाटको प्रामादेव्येवच्छिन्न सन्िवेश । साही प्रामगद्दाणामेकपाटी । नियोगो राजकृतपुरदेश , राज्यादिक प्रवेश , इस्येवप्रकारक्षेत्र यस्य यो दोष' सम्पन्नस्तस्मात्‌ क्षेत्रात्‌ स पारा- स्विकः कियेत्‌ । २९--23, अद्ममन्न॑ ति--अन्योन्याधिष्ठानसेवनम्‌ । २९--28. सूत्रार्थपोरुषी द्वे अपि शिष्ये+यो दत्त्वा गुरुस्तस्य समीपे गच्छति । २९--३. आचार्यप्रेषितस्य चागीतार्थस्य जत्य गओ त्ति गव्यूतद्यस्थितपाराधिकान्तिके । अंतरालेव जि तत्सकाशादागच्छत । से त्ति सूरिशिष्यस्य वा भक्त पान च उपनयन्ति साधव । २९-३5. अणवद्ग॒प्पो० गाहा [ १०२ ] परिद्दारतवों गिम्दसिसिरवासासु जदधन्षमज्झिमुकोसो-गिह्ले चउ- त्थछट्ठद्ठमाइ, सिसिरे छट्ठठ्ठमद्समाईं, वासासु अठ्ठमद्समवारसताइ, पारणए अलेवकड। एवं तप पाराश्ििकोषपि । भतो अभिद्दितं-अणवद्गप्पो तवसा तवपारंचिया दोबि वोच्छिन्न त्ति। लिंगक्षेत्रकाढेरनवस्थाप्य-पारा- श्िकास्तीर्य यावदजुज्ञाता । “उद्देसःज्ययणखुयखंघंगेसु” इत्यादि [ २३] गाथात आरब्भ 'झोसिझ्ाइ खुबडु पि हु' इति इति [ ७६ ] पर्यन्तगाथा यावत्‌ सप्तप्चाशतगाथाभिज्ञानातिचार [दर्शनातिचार] चारित्रातिचारवस्तुत्रयगोचर तवारिद्वं पायच्छित्त भणिये । तदूध्वे गाथात्रयेण च्छेदाईं । तदनु गाथाचतुष्येन मूलाई । तदनु गायासप्तकेना इनव- स्पाप्याह । तदबु गाथानवकेन पाराचिकमुक्तमिति शासत्रसमुदायार्थ । ३०--।. भय शाज्समाप्त्यर्थमुपसद्दारगाथामाइ-हय एस० गाहा [१०३ ] कियते अमिधीयते$र्थों5- नेनेति करण. शब्दः । जीयकप्पो शि--जीतमाचरितव्यं॑ सर्वेकालधरणा वा जीत, तस्य कल्प । कल्पशब्दों वर्णनायामत्र । यतः पव्यते-- “प्रामभ्यें व्णेनायां च ्छेदने करणे तथा । औपस्ये चाधिवासे व कल्पशब्दं विद्ुदृंधाः ॥! ३०-५4. १०-20 ] जीवकल्पचूर्णि-विषमपदथ्याकया ५९ सामभ्येइतो व्ेते कल्पशब्दस्तदर्थधातुनिष्पन्नत्वात्‌ । वर्णनायां यथात्र । यहां कस्पितों वर्णित रोधितः । छेदने कत्पितं छेदितं वह्मम्‌ । करणे ब्राइणा्थ कल्पिता कृताः पूषा । औपम्ये यथा-समुदृकल्पमिदं तलागम्‌। क्षिवासे यथा-कत्पिता अधिवासिता क्ञानाय सजता प्रतिमा । एठेष्वर्येपु कल्पशब्द । ३०--4. परिणामगा--उत्सगांपवादवेदिन । कडजोशिणो--चउत्थाइ तवे कयजोगा । संग्गह- सीका--व्षपात्रविष्यादिसश्लहपराः । अपरित्रान्ता अखेदवन्त अश्लोपान्नादिश्रुता्थंवेदिन' । बुद्धिवन्तो-मे- घाषिन । एवसादीनि-आदिशब्दात्परिणता: श्रुवेतन वयसा च। तन्न सोलवरिसारेण वयसाच्वत्तो, परेण वत्तो । श्रुतेन न अधीतनिषीयथो व्यक्त , शेषस्तदन्य । तथा तरमाणगा-ने जं॑ तवोकम्म आढवेति त॑ नित्यरंति तदन्ये तरमाणा इत्यादि प्राह्मम्‌। ३०--20. पावण ति--पविश्रम्‌ । निश्चितसृत्राथदायक्णासों भमरूचरणश्थ, तम्‌। ॥ इति जीतकल्पचूर्णिविषया [ विषमपद-_] व्याख्या समाप्ता ॥ जीतकल्पदृदर्ूर्णो व्याख्या शासत्रानुसारतः। श्रीचन्द्रसूरिमिटंब्धा स्वपरोपकृतिष्ठेतवे ॥ १॥ मुनि-नयन-तरणि ( १२२७ ) वर्ष श्रीवीरजिनस्थ ज़न्मकल्याणे | प्रकृतप्रन्थकृतिरियं निष्पत्तिमवाप रविवारे ॥ २॥ संघचेत्यगुरुणां च सर्वार्थत्रविधायिनः । वशा ( विशो ? ) ६भयकुमारस्य वसतो हब्धा खुबोधकृत्‌ ॥ ३॥ पकावशइतबिशत्यधिकम्छोकप्रमाण ( ११२० ) प्रथाप्र । ग्रंथकृतिः आस ह26:84 250: पु मिंः सततम्‌॥ ४॥ यदिद्दोत्सज किश्विद्‌ दब्घं । तन्मयि कृपाजुकलितेः शोध्य गीतार्थविद्द्धिः ॥ ५॥ ॥ समाप्ता चेयं श्रीशीलमद्रप्रमुभश्री घनेश्वरसरिपादपपष्मचंचरीक श्री श्री चंद्रसरिसंरचिता जीतषृहथूर्णि-दुगेपदविषया निशीधादिशास्त्रानुसारतः संप्रदायात सुगमा व्याख्येति ॥ यावल्धवणोदन्धान्‌ यावप्नक्षत्रमंढितों मेदः । से यावश्न्द्राकों तावदिय पाच्यतां भव्येः ॥ पा का जा आन के ० ०. | 4 । ५] ६ ७६ व | ७ । « | ५ फड रा ० ७६ हि च हे 88738 हक २ यह हि जद हआ कद हट हर कट पक कम 8०% दे डे है. ०] है. । ट _० ० | # ४ 3 हे क के कि + । ० लय # | | ए' दब $ । प 9 (2 $ दे ३ । कर क्म्ज्ल जा हु ७ ॥$ दि पार 49%॥0 शक +&॥९ ० 30]४8 ०)बे]!8 १ । फक विभाटिता अर >५४8 | ०३४८९ कक । ०३१ । 00002%०॥४ ( ज-8० ) ल्‍६)8 ७४६४ ६५ 6 >०७9७४७२७१५-- । 888७७